February 25, 2013

बिटिया की बातों के कुछ पल

जाह्न्‍वी बिस्‍तर पर सोने के लिए जा रही है. मैंने तकिया रजाई वगैरह व्‍यवस्थित कर दी है. मैं अपने टेबल पर. लैपटॉप ऑन किया है. टेबल पर नाइट लैम्‍प का जीरो वाट का पीला प्रकाश फैला है. जेनी के बिस्‍तर पर लेटने के बाद मैं लैपटॉप पर कुछ गाना लगा देता हूँ जिसे सुनते-सुनते वह सो  जाती है. यह रोज का क्रम है. आज उसका कुछ बात करने का मूड था.

तरह तरह की बातें करने लगी. बातों का विषय कुछ इस तरह बदलती रहती है कि उन्‍हें याद करके सिलसिलेवार लिखना मुश्किल होता है. भूल जाता है कि उसने किस बात के बाद कौन सी बात कही थी.

जैसे आज कहने लगी कि पापा आप हिन्‍दी में बात क्‍यों नहीं करते हो. मैंने कहा कि मैं हिन्‍दी में ही तो बात करता हूँ. जो मैं बोलता हूँ वह हिन्‍दी ही तो है. तब उसने कहा कि तो फिर आप दादी से इस तरह क्‍यों बोलते हो (उसने गांव की बघेली बोली का एक टोन बोलकर बताया) मैंने कहा वो तो गाँव की बोली है.

उसने कि कहा कि "आप गांव के हैं?"
मैंने कहा "हां"
"और मैं?"
"तुम भी गांव की हो"
"क्‍योंकि मैं गांव में पैदा हुई थी? "
"नहीं तुम शहर की हो"
"क्‍योंकि मैं हॉस्पिटल में पैदा हुई थी?"
फिर उसने बात बदल दी,
"पापा, आपको स्‍कूल में हिन्‍दी सिखाते थे?"
"हां"
"और गुजराती?"
"नहीं"
"और मराठी?"
"नहीं"
"और कविता कौन सी सिखाते थेये वाली एक दो दस ऊपर से आई बस?"
मैं हां हूं कर रहा था.
उसने फिर बात बदली.

‘"पापा आप कॉफी क्‍यूं नहीं पीते हो"
"क्‍योंकि मैं चाय पीता हूँ"
"क्‍योंकि कॉफी मूँछों वाले लोग पीते हैं?"
"तुमसे यह किसने कहा कि कॉफी मूँछों वाले लोग पीते हैं"
"क्‍योंकि कॉफी नत्‍तू वाले बब्‍बा पीते हैं मूँछे निकालकर गॉंव में"
उसे कहना चाहिए था मूँछे डुबोकर तो कह रही थी मूँछे निकालकर. मेरे पापा बड़ी मूँछे रखते हैं और चाय नहीं कॉफी पीते हैं. इसलिए कह रही थी कि कॉफी मूँछों वाले लोग पीते हैं. 
"पापा आपके भी मूँछें निकल रही है इसलिए आपको भी कॉफी पीनी चाहिए. आपको कॉफी नहीं अच्‍छी लगती?"
मैंने यूं ही कह दिया, नहीं.
"मैं भी काफी पिऊंगी"
मैंने कहा, "बच्‍चों को कॉफी नहीं पीनी चाहिए"
"तो चाय पीनी चाहिए?"
"नहीं चाय भी नहीं पीनी चाहिए. बच्‍चों को दूध पीना चाहिए. बोर्नविटा और हार्लिक्‍स वगैरह डालकर. कॉफी बड़े लोग पीते हैं."
"बच्‍चों को कॉफी नहीं पीनी चाहिए क्‍योंकि कॉफी पीने से खांसी आ जाती है?"
मुझे हँसी आई मैंने कहा, "हॉं"
"अब सो जाओ मैं गाना लगा देता हूँ. तुम्‍हे जुकाम है और तुम्‍हारा गला पड़ रहा है बोलते-बोलते"
"पापा आपको चक धूम-धूम वाला गाना पसंद है ना. सुनाऊँ उसको?" यह कहकर वह स्‍कूल में सीखा हुआ गाना गाने को हुई. 

मैंने कहा, जब मैं सुनाने को कहूँ तब सुनाया करो. तभी मुझे पसंद आता है.
"लेकिन पहले तो ये गाना आपको पसंद था."
मैंने कहा कि इसके अलावा मुझे और भी गाने पसंद हैं. यह तो तुम दो साल से गा रही हो। मैं कहना चाहता था कि अभी जो तुमने दो-तीन दिन पहले सीखा है, 

"हाउस रे हाउस, नाइस नाइस हाउस. 
हाउस माने केटला जना रहिए छे? 
ऑफिस जाता पापा छे. रोटली बनाती मम्‍मा छे. 
नखरा नु बहन छे, झगड़ा नु भाई छे. 
पेपर पढ़ता दादा छे. पूजा करती बा छे."

वह गाना मुझे अच्‍छा लगा है. लेकिन यह सोचकर नहीं कहा कि सुनाने लगेगी. उसे नींद आ गई थी. वह चुप हो गई और धीरे-धीरे नींद के आगोश में चली गई.


February 20, 2013

अपना मोर्चा में अप्रकाशित पत्र


 (यह पत्र दि.14 दिस. 2012 को जीमेल के माध्‍यम से editorhans@gmail.com को लिखा था)

पिछले कई अंकों से हंस में डॉ भीमराव अम्‍बेडकर के बौद्ध धर्म संबंधी विचारों पर बहस देख रहा हूँ।

हंस के नवंबर अंक में डॉ धर्मवीर के लेख का समापन कबीर की कविता से हुआ देखकर लगा कि यदि आप अम्‍बेडकर को उनके बौद्ध धर्म संबंधी व्‍याख्‍याओं में अवैज्ञानिकता निकालकर उसे खारिज कर रहे हैं, तो आप कबीर को उनके रहस्‍यवादी उलटबांसियों, निर्गुण भक्ति के आध्‍यात्मिक इशारों वाली उक्तियों के होते हुए किस तरह स्‍वीकार कर सकते हैं। यदि आपके दृष्टिकोण से धार्मिक संदर्भ में अम्‍बेडकर क्रांतिकारी नहीं हैं तो आप कबीर को कम से कम अम्‍बेडकर की तुलना में किस तरह क्रांतिकारी मान सकते हैं। कबीर निर्गुण भक्ति शाखा के संत थे। ब्राह्मण रामानंद के शिष्‍य थे। कबीर ने लिखा भी है "भक्ति द्राविड ऊपजी, लाए रामानंद" कबीर के दोहे धर्म संबंधी पाखंडों और आडंबरों पर चोट करते हैं। लेकिन कबीर एक भक्‍त हैं, निर्गुण राम के ही सही लेकिन उन्‍होंने धर्म की मूलभूत सत्‍व को तो स्‍वीकार किया ही है। उनके विचारों में भी एकरुपता नहीं है। शायद समय के साथ परिपक्‍वता आयी होगी।दूसरे नारी के विषय में कबीर की सोच तुलसी के समान ही रुढि़वादी है। कबीर ने नारी को नरक की खान और विषधर नागिन की भांति खतरनाक बताया है। इस तरह अम्‍बेडकर के बौद्ध धर्म संबंधी विचारों पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाकर कबीर के दोहे उद्धृत करना हास्‍यास्‍पद है।

अम्‍बेडकर के समक्ष मुख्‍य चुनौती या समस्‍या छुआछूत और जातीय भेदभाव था। हिन्‍दू धर्म की अवैज्ञानिकता नहीं। उनके बौद्ध धर्म स्‍वीकार करने की वजह क्‍या हो सकती है। एक विशाल समुदाय को ऐसी छत के नीचे लाना जिसमें जातीय आधार पर भेदभाव न हो। जिसके ईश्‍वर और संसार संबधी विचार वैज्ञानिक हों और सबसे बडी बात वे विचार उस विशाल समुदाय के मानसिक बुनावट को ग्राह्य हों। इसके लिए किसी ऐसे विचारधारा के साथ जाया जा सकता था जो इसी मिट्टी और अतीत काल में इन्‍हीं कुरीतियों समस्‍याओं की वजह से उपजी रही हो। जाहिर है द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद एक तर्कपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत होते हुए भी ऐसे लोगों की समझ में आने से रहा जिनका पुस्‍तकों से कोई नाता न हो। अम्‍बेडकर को यह भी पता था कि यदि मार्कस इनके समझ में आ भी गए तो भी मार्क्सवादी सवर्ण इन्‍हें अपने बराबरी का दर्जा देने से रहे। भारत में वर्ग अभी पैदा नहीं हुआ था। यहॉं केवल जाति थी, अभी भी है, मृत्‍यु से भी बडी अकाट्य सत्‍य। अम्‍बेडकर अपने साथियों के साथ कम्‍युनिज्‍म में दीक्षा नहीं ले सकते थे। क्‍योंकि वहॉं उन्‍हीं लोगों का आधिपत्‍य था जिनसे अम्‍बेडकर ताउम्र लड़ रहे थे और इंतजार करने का उनके पास समय नहीं था। 

इन परिस्थितियों में बौद्ध धर्म ही सर्वोत्‍तम था। अब रही बौद्ध धर्म की तत्‍वमीमांसा और इहलोक परलोक संबंधी विचारों की तो इसमें शास्‍त्रों के आधार पर अनंत समय तक तर्क किए जा सकते हैं। लिखित रूप में बौद्ध धर्म बुद्ध के पांच सौ वर्ष बाद अस्तित्‍व में आया। लिपिबद्ध करने वाले भी ब्राह्मण थे। स्‍वाभाविक है उसमें उन्‍होंने अपने संस्‍कारों के हिसाब से पूर्वजन्‍म की कथाऍं वगैरह डाल दी हों। इसी आधार पर अम्‍बेडकर की सोच को अवैज्ञानिक बताना तो एक बार विचारणीय हो सकता था। लेकिन उसके साथ ही  मक्खलि गोशाल जो कि नियतिवाद को मानते थे, उनका समर्थन करना, संदेह खडा करता है और पूर्वाग्रहग्रस्‍त मानसिकता को दर्शाता है। यदि अम्‍बेडकर किन्‍हीं बिंदुओं पर अवैज्ञानिक हैं तो मक्खलि गोशाल के विचार वैज्ञानिक कैसे हो गए। आप गड्ढे से बचकर दूसरे गड्ढे में क्‍यों गिरना चाहते हैं।


बौद्ध धर्म को इसलिए अस्‍वीकार किया जा रहा है कि बुद्ध क्षत्रिय थे। इसतर्क को आगे ले जाने पर  भविष्‍य में प्रेमचंद, हंस और राजेंद्र यादव के दलितस्‍त्री विमर्श को खारिज कर दिया जाएगा क्‍योंकि वे न तो दलित हैं, न ही स्‍त्री।

February 08, 2013

दिल्‍ली यात्रा व संजय ग्रोवर से एक मुलाकात


पिछले महीने की अंतिम तारीख को एक शादी में दिल्‍ली पधारना हुआ. कुछ और भी मित्र साथ थे. बाद में वापस आकर सोचे कि अच्‍छा हुआ फरवरी की बाढ़ आने से पहले कार्यक्रम निपट गया. वरना वहॉं स्‍वच्‍छंद विचरण न कर पाते. दिल्‍ली जाने का फायदा उठाते हुए साथी पार्टी को चकमा देकर हम, तब तक एक वर्चुअल शख्सियत संजय ग्रोवर से मुलाकात करने चले गए. अब सोचते हैं कि इंटरनेट से पहले लोग बिना भौतिक रुप से मिले पत्रादि के द्वारा संपर्क में रहते थे. वह भी तो वर्चुअल ही था, कि नहीं था ?

January 30, 2013

जनवरी गमन

नए साल के पहले महीने का अंत करीब आ चुका है. बस अंतिम सांसे गिन रहा है. साल 2013 का एक महीना खर्चा हो गया. समय एक ऐसी पूँजी है जो अपने आप खर्च होती रहती है. हम उसके खर्च करने में कंजूसी नहीं कर सकते न ही ज्‍यादा खर्च कर सकते. इसे किस तरह खर्च करना है यह काफी कुछ हमारे ऊपर निर्भर करता है. लेकिन ठीक मुद्रा की तरह ही हम इसे पूरी स्‍वतंत्रता से इस्‍तेमाल नहीं कर सकते.

सर्दी भी अपना पूरा जोर दिखाकर हॉंफने सी लगी है. धीरे-धीरे थम रही है. अभी एक-दो बार अचानक ब्रेक लगाकर फिर थोड़ी दूर चलेगी फिर धम्‍म से थम जाएगी.