April 15, 2010

अपने विचारों के कंफेसन चेंबर में खड़े होकर अपना मुल्यांकन करिए ...

मित्रों ! प्रस्‍तुत है भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव रामजी अम्‍बेडकर की जयंती पर फेसबुक पर हुआ एक वार्तालाप ।

बातचीत की शुरुआत हुई फेसबुक पर लवली जी के इस स्‍टेटस से :
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यह पोस्ट पढ़िए

उसने भिखारी से आठ आने का आटा खरीदा था | पास पड़ोस

http://sharadakokas.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html

फिर अपने विचारों के कंफेसन चेंबर में खड़े होकर अपना मुल्यांकन करिए -

मैंने किया,
मुझे अपेक्षित परिणाम नही मिले...शायद कहीं कोर - कसर बाकि है ।

फेसबुकिया मित्रों की टिप्‍पणियॉं :

You and Prashant Priyadarshi like this.
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Aradhana Chaturvedi :
पढ़ा और टिप्पणी भी की. देख लेना मेरी टिप्पणी.
Yesterday at 11:40am
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Lovely Goswami :
मैंने देखा है आराधना ..ऐसा नही की मैंने कभी यह सब माना है या दलित मित्रों को अलग समझती हूँ ..छुवाछुत मानती हूँ ..पर कहीं कुछ बात तो है ..जो मुझे अब भी अधूरी लगती है ..पता नही कहाँ
Yesterday at 11:46am
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Aradhana Chaturvedi :
मैं भी ये मानती हूँ और मैंने अभी दो दिन पहले अपनी दोस्त के सामने स्वीकार किया है कि लाख हमारे पालन-पोषण में सावधानी बरती गई हो, लाख हमने कभी भी अपने मित्रों से समानता का व्यवहार किया हो, पर कोई बात है जो खटकती है. इसमें दोष हमारी सामाजिक व्यवस्था का है, जो न हमें भूलने देता है कि हम सवर्ण हैं और न उन्हें कि वे दलित हैं और हम समाज में ही तो रहते हैं.
Yesterday at 11:53am
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Lovely Goswami :
हाँ मुझे खेद है हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए ...जो दोषी न होते हुए भी अपराध बोध कम नही होने देती
Yesterday at 11:58am
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Aradhana Chaturvedi :
यही बात है. हम अपने पूर्वजों के द्वारा किये गये अपराधों के तले खुद को दबा हुआ सा महसूस करते हैं.
Yesterday at 12:01pm
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Anjule Maurya :
क्या कहूँ बहुत गहरे तक चोट करने वाली पोस्ट है ये...हकीकत यही है की हम अपनी सामाजिक मानसिकता से अभी भी नहीं उबार पाए हैं...इस पोस्ट का लिंक देने के लिए आपको शुक्रिया....
Yesterday at 3:00pm
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Arkjesh Kumar :
हॉं अपना पूरा नाम न बताना असभ्यता है । बचपन में या बाद में भी जब मैं किसी को अपना नाम बताता था तो पूरा नाम बताने के लिए कहा जाता था । या पूछा जाता है "आगे " । न बताने का, जिद की हद तक आग्रह नहीं था , लेकिन जानने वाले की व्याकुलता देखने के लिए मैं यह करता था ।

कोर कसर तो महसूस होगी ही , जब तक नामों के साथ प्राचीन ऋष्रि मुनियों या वीर योद्धाओं की गौरव गाथाऍं सरनेम के रूप में टंकी रहेंगी । अच्छा तो लगता ही है जब हमारी जाति एक बुद्धिमान या वीर या धनिक वर्ग के रूप में पहचानी जाती है । लेकिन जिनके पास यह नहीं है लगाने के लिए वे क्या करें । इसलिए लाख निष्पक्ष वैचारिकता या मार्र्कसवादी चिंतन के बावजूद यह नामों के साथ जुडे हुए महान आभासी पश्चलग्न, कोर कसर बाकी ही रखते हैं । और यदि इस कडीशनिंग से बाहर आने के लिए हम वास्तव में प्रयत्नशील हैं तो इसकी शुरुआत हम इस बात से क्यों नहीं कर सकते कि जहॉं , कुछ जरूरी दस्तावेजों को छोडकर , वैधानिक बाध्यता न हो वहॉं सरनेम न लगायें ।

कौन है जो ईमानदारी से कहेगा तो यह नहीं कहेगा कि अपने नाम के साथ लगा 1 ,2 ,3 , 4 ..वेदी या इसी तरह के सरनेम उसे फीलगुड नहीं कराते ।

हम मुफ्त की महानता भी ओढे रहना चाहते हैं और दलित मित्र को गले भी लगाना चाहते हैं । लेकिन दोनो बातें एकसाथ सम्भव नहीं है ।

अम्बेडकर उन कुछ नेताओं में से एक हैं , जिनके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है । जीवन भर उन्होंने जिस सामाजिक प्रताडना को सहा है और सवर्णों नेताओं के तिरस्कार और साजिशों का शिकार हुए हैं , वैसा कोई और नहीं हुआ ।

यह भी सही है कि भारतीय समाज विज्ञान की और स्त्रियों और दलितों के उत्थान की जो समझ और उसे लागू करवाने की ईमानदारी अम्बेडकर के पास थी वैसी किसी और भारतीय नेता में नहीं थी । दुर्भाग्यवश वे राजनीति का शिकार हुए ।

शरद जी का संस्मरण पढा । एक गरीब दलित भिखारी से आटा खरीद सकता है , लेकिन गरीब ब्राह्मण को इसकी जरूरत नहीं है , उसे गॉवों में अब भी आराम से भीख मिल जाती है । अस्तु ।
Yesterday at 11:37pm ·
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Aradhana Chaturvedi :
अर्कजेश, मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. मेरे पिताजी ने अपने नाम के साथ इसीलिये कभी सरनेम नहीं लगाया और मैं भी न लगाती. मैं बचपन में जिस स्कूल में पढ़ी हूँ, उसमें सबके नाम के साथ भारतीय जोड़ा जाता था, ताकि बच्चों की जाति धर्म का पता न चले. पर जब मैं दूसरे स्कूल में गई तो मुझे सरनेम लगाना पड़ा...मैंने ब्लॉगजगत् में भी अपना नाम बदलने की कोशिश की थी, पर पहचान का संकट आ गया. अब मैं सरनेम इस कारण लगाती हूँ कि ये मेरे माँ-बाप की निशानी है, जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं. मेरा नाम मेरे व्यक्तित्व के साथ जुड़ गया है, मेरी पहचान है. इसलिये सरनेम लगाना पड़ता है. मुझे अच्छा नहीं लगता...पर ऐसी ही मज़बूरी बहुत लोगों के साथ है...मैंने पहले से ही तय कर लिया है कि मैं अपने बच्चों के नाम के आगे जातिबोधक सरनेम नहीं लगाने दूँगी...चाहे इसके लिये मुझे होने वाले पति से लड़ाई करनी पड़े.
21 hours ago
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Prashant Priyadarshi :
पिताजी ने बिहार में होनेवाले जातिवाद को पहचानकर खुद ही हम बच्चों के नाम में सरनेम नहीं लगाये.. अब नाम बताने पर कोई पूछता है आगे? हम पलट कर बोलते हैं "आगे क्या, बस इतना ही.."
सोचता हूँ कि ऐसे वर्ग से आता हूँ जो सम्माननीय माना गया है, सो उनका 'आगे' पूछना बुरा नहीं लगता है.. अगर किसी और वर्ग से होता तो भी क्या इतने आराम से ही पलट कर जवाब दे पाता?
21 hours ago
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Aradhana Chaturvedi :
हाँ, मैंने देखा है कि बिहार के कुछ इन्टेलेक्चुअल लोग सरनेम नहीं लगाते...मुझे अच्छा लगता है. लेकिन प्रशान्त, ब्राह्मण वहाँ पर भी सरनेम ज़रूर लगाते हैं खासकर मैथिल ब्राह्मण...और बड़े गर्व से अपने पूर्वजों के बारे में बताते हैं. उन्हें अपने सो काल्ड "मैथिल ब्राह्मण कल्चर" पर बड़ा अहंकार होता है. हालांकि मिथिला संस्कृति के मामले में बहुत आगे है, पर ये सब ब्राह्मणों की देन थोड़े ही है. मधुबनी पेंटिंग क्या ब्राह्मण बनाते हैं...?
मेरा एक दोस्त है मैथिल ब्राह्मण...पूरी तरह सामन्तवादी, सम्भ्रान्तवादी मानसिकता है उसकी...
और ये भी सही है कि हम जाति पूछे जाने पर उतना अपमानित नहीं महसूस करते जितना कि वे जिनके लिये जाति पूछी जाती है...कुछ दिन पहले मेरी दोस्त ने अपनी छोटी चचेरी बहन के बारे में बताया था कि एक दिन स्कूल से आकर वो चुप-चुप थी. बहुत देर बाद उसने अपने बड़े भाई से पूछा "भैया, क्या हमलोग चमार हैं" मेरी दोस्त ने ये बात हँसकर बताई थी, पर मेरी आँखों में आँसू आ गये थे...मैं सुन नहीं पा रही थी , तो उस छोटी सी बच्ची ने कैसे झेली होगी ये बात...मेरे मन ये बात कील जैसी गड़ गई है...
21 hours ago
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Prashant Priyadarshi :
आपसे सहमत हूँ.. एक करीब के मित्र का उदाहरण मेरे ठीक सामने है.. मैथिल ब्राह्मण होते हुए भी उसे नाम में कोई सरनेम नहीं है.. मगर कहीं भी उसे अपना नाम बताने को कहा जाता है तो अंत में 'झा' जोड़ना नहीं भूलता है..
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Lovely Goswami:
मैं तो नही लगाती हूँ सरनेम ..यहाँ फेसबुक में मेरे नाम पर सर्च करने पर किसी और की लिस्टिंग दिखा रहा था ..वह भी जैसे वह खाता जाली हो ..इसलिए यहाँ लगाया ...वरना "कुमारी " सहज सा लगता है |
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Sanjay Grover :
पोस्ट तो अभी नहीं पढ़ी पर अर्कजेश ने हमेशा की तरह खुलकर और तार्किक विचार रखे हैं। प्रशांत ने भी बहुत विवेकपूर्ण बातें कहीं। नीयत आराधनाजी और लवली जी की भी द्वेषपूर्ण बिलकुल नहीं लगती। मगर हमें यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी दलितों और हमारी सामाजिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। क्या हम खैरलांजी जैसा एक भी उदाहरण बता सकते हैं जो सवर्ण स्त्री के साथ हुआ हो। जबकि दलित स्त्रियों के साथ ऐसा होने की महीनें में एक-दो खबरें आज भीं पढ़ने को मिल जाती हैं।
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आप क्‍या सोचते हैं इस विषय में ?

April 03, 2010

काली मलाई - एक अप्रायोगिक निष्‍कर्ष

ब्‍लॉगर बगलूचंद आराम की मुद्रा में बैठकर , नहीं, बल्कि पसरकर इंटरनेट लोक में घुसे ही थे , ऐसे जैसे कोई दिनभर के कामों से फुरसत पाकर शाम को अपने दोस्‍तों की महफिल - अड्डे में निठल्‍ले मूड में बैठा हो । महफिल जमने ही वाली थी । जाल के कुछ पन्‍ने खुल गए थे और कुछ खुल रहे थे । बगलूचंद आज कई दिनों बाद ब्‍लागों पर इधर उधर अगंभीर नजर मारने की कोशिश कर रहे थे । तभी उन्‍हें कहीं आस पडोस में हवन से उठने वाली गंध जैसी गंध महसूस हुई । पहले तो उन्‍हें अच्‍छा लगा लेकिन जब गंध तेज होती गई , तब उन्‍होंने अपने पास एक अदद सोचने वाला दिमाग होने का फायदा उठाया और सोचा कि हो न हो आज कोई व्रत उपवास का दिन होगा, पडोस में पूजा या कथा वगैरह हुई होगी । इसीलिए हवन किया जा रहा है । ऐसा सोच ही रहे थे कि उनके दरवाजे पर दस्‍तक हुई । उन्‍होंने फिर सोचा कि लो कोई प्रसाद लेकर भी आ गया । लेकिन दरवाजा पूरा खुलने से पहले ही नीचे के फ्लोर पर रहने वाली पडोसन भाभी जी का चेहरा बाद में दिखा और आवाज पहले सुनाई दी कि आपकी किचेन की खिडकी से धुँआ निकल रहा है - लगता है कुछ जल रहा है ..

इतना सुनते ही बगलूचंद को नैनो सेकंड से भी कम समय में घटना के उस रहस्‍य का बोध हो गया - जिसे वे हवन से उत्‍पनन समझ रहे थे ।

"जल ही रहा है" नामक पंक्तियॉं उनके मानस पटल पर बिजली की कौंध की तरह दिखाई पडीं , जो उन्‍हें आधे सेकंड के लिए निर्विचार अवस्‍था में पहुँचाने के लिए काफी था । प्रकृतिस्‍थ होते ही रसोईघर की तरफ भागने की निरर्थक और अनिवार्य जल्‍दी दिखाई गई । निरर्थक इसलिए क्‍योंकि उन्‍हें पूर्व के अनुभव से ज्ञात था कि अब जो होना था हो चुका । जो खोना था खो चुका । और अनिवार्य इसलिए कि सामग्री भस्स्‍मीभूत होने के बाद भी अग्नि जल ही रही होगी । रसोईघर में धुँए की वजह से दृश्‍यता केवल एक हाथ तक की रह गई थी । लेकिन स्‍थान से परिचित होने की वजह से वे जल्‍द ही घटनास्‍थल पर पहुँचने में कामयाब हो गए ।

करीब जाकर देखने पर सिर्फ पतीली की पेंदी हवन की लकडी की तरह सुलगती हुई लाल पाई गई । शेष कक्ष केवल गर्म और तीखे गंध युक्‍त कोहरे से आच्‍छादित भर था । कोहरा भी नियमों की मर्यादा का ख्‍याल रखते हुए कमरे से बाहर जाने का रास्‍ता खोज रहा था । पतीली के ऊपर कोयेले की पतली काली मलाई की फटी हुई पर्त हिल रही थी । और पतीली के नीचे करोडों वर्षों की प्राकृतिक एवं हाल ही की मानवीय प्रक्रिया के बाद बना निर्धूम्र जीवाश्‍म ईंधन निर्विकार भाव से जले ही चला जा रहा था , इस बात की चिंता किए बिना कि इस पृथ्‍वी के गर्भ में उसकी सीमित मात्रा ही उपलब्‍ध है ।

अप्रायोगिक निष्‍कर्ष यह पाया गया कि दूध में दो रंगों की मलाई पडती है । सफेद और काली । अंतर सिर्फ इतना है कि सफेद वाली मलाई के नीचे दूध भी होता है । काली मलाई के नीचे दूध की जगह सिर्फ दूध का धूम्र पाया जाता है ।

खेल तो समय का ही है .... इन अर्थों में कि पतीली अग्नि के ऊपर कितनी देर तक अवस्थित रहती है ।

बाकी, कहने को चाहे कोई कुछ भी कहता रहे है ।

April 01, 2010

मूर्ख बनने से बचने के १०१ तरीके




एक मूर्ख को भी, मूर्ख बने रहने के लिए सतत अपनी मूर्खता साबित करनी होती है
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Continuing to remain a silly, fool has to prove his stupidity


यह १०२ वाँ तरीका था