July 23, 2010

घुमड घुमड कर आए बादल ( कविता छोटे बच्‍चों के लिए )

कविता लिखी बच्‍चों के लिए (बडे बच्‍चे भी आजमा सकते )


घुमड घुमड कर आए बादल
रिमझिम ब‍ारिश लाए बादल

गर्मी ने खुब की शैतानी
ठंडी बूँद गिराए बादल

July 13, 2010

अले -2 . फुटबाल में कबड्डी भी होती है, अराजकता की भी अपनी व्‍यवस्‍था होती है

कल यह सोचकर फीफा विश्‍व कप का फाइनल देख लिए कि चलो आज भर की तो बात है, कौन सा रोज दुनिया के सार्वाधिक लोकप्रिय खेल के विश्‍व कप का फाइनल होना है। वरना तीन बजे तक बेफालतू में तभी जागा जा सकता है जब नींद न आ रही हो। वैसे भी फीफा में भारतीयों की हालत बेगानी शादी में अब्‍दुल्‍ला दीवाना की तरह होती है। मैच लंबा खिंच गया। अतिरिक्‍त समय में किसी तरह एक गोल होकर मामला क्लियर हुआ। हमें तो लग रहा था कि द्वंद्व युद्ध से फैसले की नौबत न आ जाए नहीं तो आधे घंटे और जागने पडेंगे। आक्‍टोपस की बैठकी सही निकली। पोपट गलत साबित हुआ।

June 30, 2010

अराजक लेखन -1 उमस से उदभूत

उमस का मौसम है। तेज गर्मी और नाम भर की बारिश के बाद ऐसा होता है। बारिश के बाद तेज धूप निकलने पर भी। जब हवा न बह रही हो तब उमस का प्रभाव सार्वाधिक होता है। चिपचिपा पसीना निकलता रहता है। उमस में एक बेचैनी होती है। ओशो की एक कविता पढी थी कभी केवल शीर्षक याद है 'उमस बहुत है, चलो आँधियॉं लाऍं'। कविता अच्‍छी थी। कविता के निहितार्थ व्‍यापक थे। वहॉं उमस यथास्थिति और ऑंधियॉं परिवर्तन की प्रतीक थीं।

जब बात करने के लिए कुछ नहीं होता तो लोग मौसम की चर्चा करने लगते हैं। तब ऋतु चाहे जैसी हो उनके बीच उमस का मौसम होता है। ऐसे में यह कहना मुश्किल हो जाता है कि हम उमस होने की वजह से मौसम की चर्चा कर रहे हैं या बात करने के लिए कुछ न होने की वजह से उमस की चर्चा कर रहे हैं।

June 16, 2010

बीते कुछ दिनों से लिए गए नोट्स

बादल हैं। धूप-छॉंह चल रही है। सुबह ज्‍यादा थे अब सघनता कम हो गई है । धूप निकल रही है । चार-पॉंच दिन की उमस भरी तेज गर्मी के बाद कल सुबह बारिश हो गई थी । तब से बादल छाए हुए हैं । शायद वे आसमान, चिलमिलाती धूप को सौंपकर फिर कुछ दिनों के लिए चले जाऍं ।

शीर्षक का नाम यही रखा। पाठकों को आकर्षित करने के लिए उत्‍सुकता जगाने वाला शीर्षक मुझे ठीक नहीं लगा। यह धोखा है। जैसे आम का लालच देकर कच्‍ची इमली थमा देना या प्रीति भोज का निमंत्रण देकर सिर्फ चाय पिलाकर विदा कर देना। बढिया पैकिंग में घटिया माल की तरह या लोकल माल में ब्रांडेड चिट की तरह। इस पोस्‍ट को शुरू करते-करते एक और पोस्‍ट कुलबुलाने लगी । सराहना या प्रशंसा के बारे में लिखने को। उसको अभी दिमाग में सेव कर लिए हैं। जो वाइरसों से बच गई तो रूप लेगी।

May 28, 2010

लिखते-लिखते हमें कुत्‍ते की पूँछ क्‍यों याद आ जाया करती है

यह जो आप पढ रहे हैं यह लाइन सबसे अंत में लिखी गई है पहले हमें लगा इसे कोई श्रृंखला जैसा कोई नाम दे दें । फिर उसी चीज के एक दो तीन पढते पढते होने वाली ऊब के याद आने की वजह से एक शीर्षक दे दिया ।

शीर्षक पर न जाऍं क्‍योंकि आपको पता ही है कि शीर्षक और पोस्‍ट का संबंध होना ब्‍लॉगिंग के फैशन के खिलाफ है
________________________________
अब वह पढें जो हमने शुरु में लिखा :

सुबह-सुबह कोयल इसलिए नहीं कूक रही थी कि वह मुझे या आपको देखकर प्रसन्‍न हो रही थी। इसलिए भी नहीं कि वह पीछे के ब्‍लॉक में शराबी पति के ऊपर चीख-चीख कर चीखने, बर्तन फेंकने और चीख कर ही गाने वाली महिला को चिढा रही थी । किसी को कोयल का कूकना अच्‍छा लगे या खराब यह कोयल की समस्‍या नहीं है । कोयल आलसी नहीं है कि उसे तभी कोई काम करने की सूझे जब उस काम को करने की समय और सुविधा न हो । और ज‍ब समय और सुविधा हो तब वह आराम करे । कोयला का कूकना सुनना और उस पर सोचना किसी के लिए एक बकवास काम भी हो सकता है । क्‍योंकि इससे जीवन की कोई समस्‍या हल नहीं होती । फिर भी बकवास करने वालों, बकवास को बकवास समझने वालों या सौंदर्यबोध नाम की किसी चीज के होने का हवाला देने वालों को कोयल यह भी नहीं कहेगी कि वह इन्‍हें कौओं के घोंसले का तिनका भी नहीं समझती ।

May 12, 2010

हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग सबसे ज्‍यादा पढी जाने वाली पोस्‍टों के प्रकार

हम ब्‍लॉगिंगनामा टैग के अंतर्गत ब्‍लॉगिंग से संबंधित पोस्‍टें जैसे -

ब्लॉगिन्ग के कमेन्ट किलर या टिप्पणी हन्ता ! ( यह ब्‍लागिंग के शुरुआती दिनों की पोस्‍ट है )

हिन्दी ब्लॉग्गिंग में टिप्पणी का महत्व , जॉनी....ब्लॉगिंग की भावना को समझो ! !

हिन्दी ब्लॉगिंग में चर्चा चकल्लस - प्रस्तावित चर्चाएँ


ब्‍लॉगिंग माहात्‍म्‍य - कुंडलियां , भाग- 1



इत्‍यादि लिख चुके हैं । इसी क्रम में सबसे ज्‍यादा पढी जाने वाली पोस्‍टों के प्रकार हम प्रस्‍तुत कर रहे हैं ।
ऊपर की विजेट में आप अपनी पसंद के हिसाब से राय व्‍यक्‍त कर सकते हैं । जाहिर और भी कई प्रकार की पोस्‍टें होंगी जो मेरे ध्‍यान में नहीं आ सकी हैं । मेरा मतलब वर्गीकरण से है ।

इसके लिए आपके सहयोग की आवश्‍यकता है कि किस तरह की पोस्‍टें सबसे ज्‍यादा लो‍कप्रिय होती हैं । इससे हम सभी को हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की मुख्‍य प्रवृत्ति को समझने में सहायता मिलेगी ।

***********************

वोटिंग विजेट अस्‍थाई होता है । इसलिए वही सारे विकल्‍प यहॉं लिख रहा हूँ ।


तमाशाई

टांग खिंचाई वाली

मनोरंजक

सनसनीखेज

आलोचनात्‍मक

कविता , गजल

ब्‍लॉगर द्वंद्व युद्ध

धर्म सम्‍प्रदाय ले दे वाली

तकनीकी विज्ञान

चर्चा

हास्‍यव्‍यंगात्‍मक

क्षेत्रीय लटकों झटकों से युक्‍त

भावुकतापूर्ण

शांत सौम्‍य मासूम पोस्‍टें

नारी विमर्श

चचर्ति राष्‍ट्रीय खबरें

टिप्‍पणी में मिले सुझावो से बाद में शामिल किए हुए :

ब्‍लॉगर मिलन से संबंधित पोस्‍टें

ब्‍लॉगिंग से संबंधित तटस्‍थ व वस्‍तुपरक विश्‍लेषण वाली पोस्‍टें

"बढ़िया लेखन, जो विवादों से दूर हो" (via PD)

**********

धन्‍यवाद ।
++++++++++++
वोटिंग का परिणाम
स्‍पष्‍ट देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें



May 09, 2010

'मदर्स डे' का हल्‍ला

आज 'मदर्स डे' का हल्‍ला है । यह हल्‍ला हमें तब दिखाई पडा जब हम अपनी आदत के मुताबिक सुबह देर से सोकर जगे । अखबार में, एफएम रेडियो में, फिर जब इंटरनेट पर बैठे तो फेसबुक में ब्‍लॉग्‍स में, हर तरफ मदर्स डे से संबंधित बातें दिखाई पडीं । इससे हमें पक्‍का यकीन हो गया कि आज 'मदर्स डे' अर्थात अपनी अपनी मम्‍मी के प्रति भावुक होने , स्‍मरण करने और सबसे ऊपर इन बातों को प्रद‍िर्शित करने का दिन है । तो हमने सोचा कि क्‍यों न इसका फायदा उठाते हुए ब्‍लॉग पर एक ब्‍लॉग पोस्‍ट का इजाफा किया जाए । साथ ही अपने अमूल्‍य विचारों से हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत को लाभान्वित किया जाए । यदि कोई मित्र लाभान्वित महसूस न करें तो एक टिप्‍पणी छोड दें । हम प्रतिटिप्‍पणी करके लाभानिवत करके ही मानेंगे ।

मदर्स डे के बारे में और अधिक जानकारी के लिए हमने गूगल जी से अनुरोध किया तो उन्‍होंने
सर्वप्रथम विकीपीडिया कोष में जाने की सलाह दी । वहॉं पर बताया गया है कि "

The modern Mother's Day is celebrated on various days in many parts of the world, most commonly in May, though also celebrated in March in some countries, as a day to honour mothers and motherhood. In the UK and Ireland it follows the old traditions of Mothering Sunday, celebrated in March.
Father's Day is a corresponding day honoring fathers. It was thought up in 1910 by Sonora Smart Dodd, after listening to a Mother's Day sermon.[1] "

इन्‍होंने फादर्स डे के बारे में भी जानकारी दी है । हर डे का एक दिन होता है । लेकिन आज मदर्स डे इसलिए उसी की बात की जायेगी ।

हालॉंकि हमें प्रायाजित डे वगैरह मनाये जाने में कोई रुचि नहीं है । खासकर जब यह डे रिश्‍तों से संब‍ंधित हों । पर्यावरण दिवस , जनसंख्‍या दिवस या मद्य‍ निषेध दिवस वगैरह वगैरह से इन विषयों से संबंधित जागरुकता फैलायी जाती है । उसी तरह रिश्‍तों के महत्‍व को बताने के लिए अलग अलग डे निकाले गए हैं । तो हालात यहॉं तक आ पहुँचे हैं कि मदर्स डे भी मनाना पड रहा है । जिससे लोग मॉं के महत्‍व और उसके द्वारा परिवार और समाज के प्रति योगदानों से परिचित हों । सही हो या गलत लेकिन मुझे व्‍यक्तिगत रूप से यह सब बहुत औपचारिक और बनावटी लगता है । या शायद यह सोच मेरी गॉंव , कस्‍बों वाली पृष्‍ठभूमि और वहॉं पायी जाने वाली हिन्‍दी माध्‍यम सरकारी स्‍कूलों के प्रोडक्‍ट होने की वजह से हो । मॉं बाप भाई बहन को आप जितना भी प्‍यार करो लेकिन सीधे सीधे प्रेम प्रदर्शित करने वाले वाक्‍य नहीं बोले जा सकते भले ही कोई
अमेरिका में ही दस साल बिताकर आ रहा हो । आने वाली पीढी बोलेगी। अपनी अपनी सोच है । और हमारी सोच यह है कि इन सब रिश्‍तों की भावुकताओं को बाजारवादी ताकतें कैश कर रही हैं । एक एसएमएस पैक । कहने का मन करता है कि सब पैसों की चोचलेबाजी है । विडबंना यह है कि जो लोग स्त्रियों को औकात में रहने की नसीहत देते रहते हैं , वे भी मां का बहुत महिमामंडन करते रहते हैं । आधुनिक समय में एक और प्रवृत्ति पश्चिमी देशों में धीरे धीरे फैल रही है । इसके तहत औरतों को मॉं बनने में कोई फायदा नजर नहीं आता सिवाय झंझट के । इसलिए अब उधर की महिलाऍं बच्‍चे पैदा करने में ज्‍यादा उत्‍सुकता नहीं दिखा रही हैं । जापान की जनसंख्‍या कम होती जा रही है , इसलिए वहॉं की सरकार ने बच्‍चे पैदा करने के लिए प्रोत्‍साहन योजना शुरू की है ।


मुझे तो मदर्स डे मनाना मॉं के प्रति औपचारिक होने जैसा लगता है । वैसे भी यह अवधारणा पश्चिम की है , क्‍योंकि वहॉं के लोगों को मदर्स डे के मार्फत मदर्स को याद करना पडता है । खैर जो भी हो भारतीय लोगों में अभी भी मॉं के प्रति बेहद भावुकता दिखती है । व्‍यवहारिक धरातल पर सच्‍चा प्रेम करने वाली औलादें मॉं की परवाह और देखभाल के लिए एक दूसरे का मुँह नहीं ताकतीं ।

हमने मॉं के प्रेम से संबंधित जो सबसे प्रभावित करने वाली कहानी पढी थी , उसका सारांश हमें आज भी याद है । लेखक का नाम याद नहीं है और यह भी याद नहीं कि कब और कहॉं पढी थी ।

कहानी यूं थी कि एक मॉं का लाडला बेटा अपनी माशूका से बहु‍त ज्‍यादा प्‍यार करता था , जब उसने अपनी माशूका के सामने शादी का प्रस्‍ताव रखा तो उसकी माशूका ने एक शर्त रखी कि वह उससे शादी तभी कर सकती है जब उसका प्रेमी अपनी मॉं का दिल निकालकर लाए और उसके सामने प्रस्‍तुत करे । लडका प्रेम में इतना पागल था कि वह अपनी प्रे़मिका के लिए कुछ भी कर सकता था । वह भागा अपने घर की तरफ पहुचते ही मॉं की हत्‍या की और उसका दिल निकाल कर हाथ में लेकर दौडता हुआ अपनी प्रेमिका को भेंट देने के लिए उल्‍टे पॉव लौट पडा । हटबडाहट मे रास्‍ते में एक पत्‍थर से पैर टकरा जाने की वजह से वह लडखडाकर गिर पडा । तभी मॉं के दिल से आवाज आई - "बेटा तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी" ! यह होता है मॉं का दिल इसीलिए कहा
गया है कि Mothers are all slightly insane. - J. D. Salinger

दुनिया में 'प्रेम' के बाद 'मॉं' ही ऐसा शब्‍द है , जो सबसे ज्‍यादा लोकप्रिय है । ऐसा हमने कहीं पढा था ।

May 04, 2010

यह कोई कविता नहीं है - 1 (आज भी )

आज भी,
खबरें बनती हैं
कुछ 'निरुपमा', 'आरुषी', 'सायमा'
और पता नहीं कितनी गुमनाम
जो नहीं बन पातीं 'खबर'

आज भी,
कहीं मार दिया जाता है या
आत्‍महत्‍या कर लेता है
कोई नौजवान, कभी
प्‍यार नाम की गलती करने पर

आज भी,
पढा - लिखा अधकचरा वर्ग
साधे हुए है, अपने दोगलेपन को
महानता का मुलम्‍मा चढाकर
धर्म , जाति , संस्‍कृति के बदले,
मानवता को सहजता से जिबह करने को तैयार

आज भी,
सभ्‍य सुसंस्‍कृत लोग बचते हैं
कुछ शब्‍दों से, जैसे नारीवादी बहस,
जात‍ि , धर्म, कट्टरता की अप्रासंगिकता ,
देखते हैं उपेक्षित मुस्‍कान से,
डरते हैं बच्‍चों के बहक जाने
और अपनी असलियत खुल जाने से ।

आज भी,
निरुपमा , आरुषी सोचती हैं कि
मां - बाप द्वारा 'सब कुछ तुम्‍हारी खुशी के लिए ही है'
जैसे वाक्‍यों के कहे जाने की
शर्तें क्‍या होती हैं

आज भी,
नौजवान ढोते , पीटते और बीनते दिखते हैं
पॉंच हजार साल पहले से अब तक के
बौद्धिक कचरे , कभी कभी
जिनसे निकलते हैं, भयानक रेडियेशन
गला देते हैं , मांस और हड्डी
उत्‍पन्‍न कर देते हैं विकृति
जेनेटिक कोड में भी

आज भी,
उनका उपयोग कर लेती है
एक बेईमान पीढी
जिसने 60 वर्षों में उन्‍हें बेरोजगारी ,
भूख और लाचारी दी - वह न बन सकने
की मजबूरी के साथ जो वह बनना चाहता था

आज भी,
एक युवक सफल होता है
इस एहसास के साथ जैसे
कि 'एक उम्र जी ली हो' तीस तक
पहुँचते पहुँचते

आज भी ,
नैतिकता को लालच तय करता है
कभी धर्म का तो कभी पैसे का

इस दुनिया में,
आज भी , अपने ही
धर्म , जाति , सम्‍प्रदाय की
खामियों का मुखर विरोध करने वाले
बहुत कम हैं

'आने वाली नवेली पीढियों ! '
हम आत्‍मघाती खतरनाक लोग हैं
हमसे बचो ।

April 15, 2010

अपने विचारों के कंफेसन चेंबर में खड़े होकर अपना मुल्यांकन करिए ...

मित्रों ! प्रस्‍तुत है भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव रामजी अम्‍बेडकर की जयंती पर फेसबुक पर हुआ एक वार्तालाप ।

बातचीत की शुरुआत हुई फेसबुक पर लवली जी के इस स्‍टेटस से :
-------
यह पोस्ट पढ़िए

उसने भिखारी से आठ आने का आटा खरीदा था | पास पड़ोस

http://sharadakokas.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html

फिर अपने विचारों के कंफेसन चेंबर में खड़े होकर अपना मुल्यांकन करिए -

मैंने किया,
मुझे अपेक्षित परिणाम नही मिले...शायद कहीं कोर - कसर बाकि है ।

फेसबुकिया मित्रों की टिप्‍पणियॉं :

You and Prashant Priyadarshi like this.
----------------------------

Aradhana Chaturvedi :
पढ़ा और टिप्पणी भी की. देख लेना मेरी टिप्पणी.
Yesterday at 11:40am
-----------------------------

Lovely Goswami :
मैंने देखा है आराधना ..ऐसा नही की मैंने कभी यह सब माना है या दलित मित्रों को अलग समझती हूँ ..छुवाछुत मानती हूँ ..पर कहीं कुछ बात तो है ..जो मुझे अब भी अधूरी लगती है ..पता नही कहाँ
Yesterday at 11:46am
------------------------------

Aradhana Chaturvedi :
मैं भी ये मानती हूँ और मैंने अभी दो दिन पहले अपनी दोस्त के सामने स्वीकार किया है कि लाख हमारे पालन-पोषण में सावधानी बरती गई हो, लाख हमने कभी भी अपने मित्रों से समानता का व्यवहार किया हो, पर कोई बात है जो खटकती है. इसमें दोष हमारी सामाजिक व्यवस्था का है, जो न हमें भूलने देता है कि हम सवर्ण हैं और न उन्हें कि वे दलित हैं और हम समाज में ही तो रहते हैं.
Yesterday at 11:53am
--------------------------

Lovely Goswami :
हाँ मुझे खेद है हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए ...जो दोषी न होते हुए भी अपराध बोध कम नही होने देती
Yesterday at 11:58am
---------------------------

Aradhana Chaturvedi :
यही बात है. हम अपने पूर्वजों के द्वारा किये गये अपराधों के तले खुद को दबा हुआ सा महसूस करते हैं.
Yesterday at 12:01pm
------------------------------------

Anjule Maurya :
क्या कहूँ बहुत गहरे तक चोट करने वाली पोस्ट है ये...हकीकत यही है की हम अपनी सामाजिक मानसिकता से अभी भी नहीं उबार पाए हैं...इस पोस्ट का लिंक देने के लिए आपको शुक्रिया....
Yesterday at 3:00pm
--------------------------------

Arkjesh Kumar :
हॉं अपना पूरा नाम न बताना असभ्यता है । बचपन में या बाद में भी जब मैं किसी को अपना नाम बताता था तो पूरा नाम बताने के लिए कहा जाता था । या पूछा जाता है "आगे " । न बताने का, जिद की हद तक आग्रह नहीं था , लेकिन जानने वाले की व्याकुलता देखने के लिए मैं यह करता था ।

कोर कसर तो महसूस होगी ही , जब तक नामों के साथ प्राचीन ऋष्रि मुनियों या वीर योद्धाओं की गौरव गाथाऍं सरनेम के रूप में टंकी रहेंगी । अच्छा तो लगता ही है जब हमारी जाति एक बुद्धिमान या वीर या धनिक वर्ग के रूप में पहचानी जाती है । लेकिन जिनके पास यह नहीं है लगाने के लिए वे क्या करें । इसलिए लाख निष्पक्ष वैचारिकता या मार्र्कसवादी चिंतन के बावजूद यह नामों के साथ जुडे हुए महान आभासी पश्चलग्न, कोर कसर बाकी ही रखते हैं । और यदि इस कडीशनिंग से बाहर आने के लिए हम वास्तव में प्रयत्नशील हैं तो इसकी शुरुआत हम इस बात से क्यों नहीं कर सकते कि जहॉं , कुछ जरूरी दस्तावेजों को छोडकर , वैधानिक बाध्यता न हो वहॉं सरनेम न लगायें ।

कौन है जो ईमानदारी से कहेगा तो यह नहीं कहेगा कि अपने नाम के साथ लगा 1 ,2 ,3 , 4 ..वेदी या इसी तरह के सरनेम उसे फीलगुड नहीं कराते ।

हम मुफ्त की महानता भी ओढे रहना चाहते हैं और दलित मित्र को गले भी लगाना चाहते हैं । लेकिन दोनो बातें एकसाथ सम्भव नहीं है ।

अम्बेडकर उन कुछ नेताओं में से एक हैं , जिनके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है । जीवन भर उन्होंने जिस सामाजिक प्रताडना को सहा है और सवर्णों नेताओं के तिरस्कार और साजिशों का शिकार हुए हैं , वैसा कोई और नहीं हुआ ।

यह भी सही है कि भारतीय समाज विज्ञान की और स्त्रियों और दलितों के उत्थान की जो समझ और उसे लागू करवाने की ईमानदारी अम्बेडकर के पास थी वैसी किसी और भारतीय नेता में नहीं थी । दुर्भाग्यवश वे राजनीति का शिकार हुए ।

शरद जी का संस्मरण पढा । एक गरीब दलित भिखारी से आटा खरीद सकता है , लेकिन गरीब ब्राह्मण को इसकी जरूरत नहीं है , उसे गॉवों में अब भी आराम से भीख मिल जाती है । अस्तु ।
Yesterday at 11:37pm ·
--------------------------------

Aradhana Chaturvedi :
अर्कजेश, मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. मेरे पिताजी ने अपने नाम के साथ इसीलिये कभी सरनेम नहीं लगाया और मैं भी न लगाती. मैं बचपन में जिस स्कूल में पढ़ी हूँ, उसमें सबके नाम के साथ भारतीय जोड़ा जाता था, ताकि बच्चों की जाति धर्म का पता न चले. पर जब मैं दूसरे स्कूल में गई तो मुझे सरनेम लगाना पड़ा...मैंने ब्लॉगजगत् में भी अपना नाम बदलने की कोशिश की थी, पर पहचान का संकट आ गया. अब मैं सरनेम इस कारण लगाती हूँ कि ये मेरे माँ-बाप की निशानी है, जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं. मेरा नाम मेरे व्यक्तित्व के साथ जुड़ गया है, मेरी पहचान है. इसलिये सरनेम लगाना पड़ता है. मुझे अच्छा नहीं लगता...पर ऐसी ही मज़बूरी बहुत लोगों के साथ है...मैंने पहले से ही तय कर लिया है कि मैं अपने बच्चों के नाम के आगे जातिबोधक सरनेम नहीं लगाने दूँगी...चाहे इसके लिये मुझे होने वाले पति से लड़ाई करनी पड़े.
21 hours ago
-----------------------

Prashant Priyadarshi :
पिताजी ने बिहार में होनेवाले जातिवाद को पहचानकर खुद ही हम बच्चों के नाम में सरनेम नहीं लगाये.. अब नाम बताने पर कोई पूछता है आगे? हम पलट कर बोलते हैं "आगे क्या, बस इतना ही.."
सोचता हूँ कि ऐसे वर्ग से आता हूँ जो सम्माननीय माना गया है, सो उनका 'आगे' पूछना बुरा नहीं लगता है.. अगर किसी और वर्ग से होता तो भी क्या इतने आराम से ही पलट कर जवाब दे पाता?
21 hours ago
---------------------------------------

Aradhana Chaturvedi :
हाँ, मैंने देखा है कि बिहार के कुछ इन्टेलेक्चुअल लोग सरनेम नहीं लगाते...मुझे अच्छा लगता है. लेकिन प्रशान्त, ब्राह्मण वहाँ पर भी सरनेम ज़रूर लगाते हैं खासकर मैथिल ब्राह्मण...और बड़े गर्व से अपने पूर्वजों के बारे में बताते हैं. उन्हें अपने सो काल्ड "मैथिल ब्राह्मण कल्चर" पर बड़ा अहंकार होता है. हालांकि मिथिला संस्कृति के मामले में बहुत आगे है, पर ये सब ब्राह्मणों की देन थोड़े ही है. मधुबनी पेंटिंग क्या ब्राह्मण बनाते हैं...?
मेरा एक दोस्त है मैथिल ब्राह्मण...पूरी तरह सामन्तवादी, सम्भ्रान्तवादी मानसिकता है उसकी...
और ये भी सही है कि हम जाति पूछे जाने पर उतना अपमानित नहीं महसूस करते जितना कि वे जिनके लिये जाति पूछी जाती है...कुछ दिन पहले मेरी दोस्त ने अपनी छोटी चचेरी बहन के बारे में बताया था कि एक दिन स्कूल से आकर वो चुप-चुप थी. बहुत देर बाद उसने अपने बड़े भाई से पूछा "भैया, क्या हमलोग चमार हैं" मेरी दोस्त ने ये बात हँसकर बताई थी, पर मेरी आँखों में आँसू आ गये थे...मैं सुन नहीं पा रही थी , तो उस छोटी सी बच्ची ने कैसे झेली होगी ये बात...मेरे मन ये बात कील जैसी गड़ गई है...
21 hours ago
--------------------------------

Prashant Priyadarshi :
आपसे सहमत हूँ.. एक करीब के मित्र का उदाहरण मेरे ठीक सामने है.. मैथिल ब्राह्मण होते हुए भी उसे नाम में कोई सरनेम नहीं है.. मगर कहीं भी उसे अपना नाम बताने को कहा जाता है तो अंत में 'झा' जोड़ना नहीं भूलता है..
----------------------

Lovely Goswami:
मैं तो नही लगाती हूँ सरनेम ..यहाँ फेसबुक में मेरे नाम पर सर्च करने पर किसी और की लिस्टिंग दिखा रहा था ..वह भी जैसे वह खाता जाली हो ..इसलिए यहाँ लगाया ...वरना "कुमारी " सहज सा लगता है |
=============================================

Sanjay Grover :
पोस्ट तो अभी नहीं पढ़ी पर अर्कजेश ने हमेशा की तरह खुलकर और तार्किक विचार रखे हैं। प्रशांत ने भी बहुत विवेकपूर्ण बातें कहीं। नीयत आराधनाजी और लवली जी की भी द्वेषपूर्ण बिलकुल नहीं लगती। मगर हमें यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी दलितों और हमारी सामाजिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। क्या हम खैरलांजी जैसा एक भी उदाहरण बता सकते हैं जो सवर्ण स्त्री के साथ हुआ हो। जबकि दलित स्त्रियों के साथ ऐसा होने की महीनें में एक-दो खबरें आज भीं पढ़ने को मिल जाती हैं।
====================================================

आप क्‍या सोचते हैं इस विषय में ?

April 03, 2010

काली मलाई - एक अप्रायोगिक निष्‍कर्ष

ब्‍लॉगर बगलूचंद आराम की मुद्रा में बैठकर , नहीं, बल्कि पसरकर इंटरनेट लोक में घुसे ही थे , ऐसे जैसे कोई दिनभर के कामों से फुरसत पाकर शाम को अपने दोस्‍तों की महफिल - अड्डे में निठल्‍ले मूड में बैठा हो । महफिल जमने ही वाली थी । जाल के कुछ पन्‍ने खुल गए थे और कुछ खुल रहे थे । बगलूचंद आज कई दिनों बाद ब्‍लागों पर इधर उधर अगंभीर नजर मारने की कोशिश कर रहे थे । तभी उन्‍हें कहीं आस पडोस में हवन से उठने वाली गंध जैसी गंध महसूस हुई । पहले तो उन्‍हें अच्‍छा लगा लेकिन जब गंध तेज होती गई , तब उन्‍होंने अपने पास एक अदद सोचने वाला दिमाग होने का फायदा उठाया और सोचा कि हो न हो आज कोई व्रत उपवास का दिन होगा, पडोस में पूजा या कथा वगैरह हुई होगी । इसीलिए हवन किया जा रहा है । ऐसा सोच ही रहे थे कि उनके दरवाजे पर दस्‍तक हुई । उन्‍होंने फिर सोचा कि लो कोई प्रसाद लेकर भी आ गया । लेकिन दरवाजा पूरा खुलने से पहले ही नीचे के फ्लोर पर रहने वाली पडोसन भाभी जी का चेहरा बाद में दिखा और आवाज पहले सुनाई दी कि आपकी किचेन की खिडकी से धुँआ निकल रहा है - लगता है कुछ जल रहा है ..

इतना सुनते ही बगलूचंद को नैनो सेकंड से भी कम समय में घटना के उस रहस्‍य का बोध हो गया - जिसे वे हवन से उत्‍पनन समझ रहे थे ।

"जल ही रहा है" नामक पंक्तियॉं उनके मानस पटल पर बिजली की कौंध की तरह दिखाई पडीं , जो उन्‍हें आधे सेकंड के लिए निर्विचार अवस्‍था में पहुँचाने के लिए काफी था । प्रकृतिस्‍थ होते ही रसोईघर की तरफ भागने की निरर्थक और अनिवार्य जल्‍दी दिखाई गई । निरर्थक इसलिए क्‍योंकि उन्‍हें पूर्व के अनुभव से ज्ञात था कि अब जो होना था हो चुका । जो खोना था खो चुका । और अनिवार्य इसलिए कि सामग्री भस्स्‍मीभूत होने के बाद भी अग्नि जल ही रही होगी । रसोईघर में धुँए की वजह से दृश्‍यता केवल एक हाथ तक की रह गई थी । लेकिन स्‍थान से परिचित होने की वजह से वे जल्‍द ही घटनास्‍थल पर पहुँचने में कामयाब हो गए ।

करीब जाकर देखने पर सिर्फ पतीली की पेंदी हवन की लकडी की तरह सुलगती हुई लाल पाई गई । शेष कक्ष केवल गर्म और तीखे गंध युक्‍त कोहरे से आच्‍छादित भर था । कोहरा भी नियमों की मर्यादा का ख्‍याल रखते हुए कमरे से बाहर जाने का रास्‍ता खोज रहा था । पतीली के ऊपर कोयेले की पतली काली मलाई की फटी हुई पर्त हिल रही थी । और पतीली के नीचे करोडों वर्षों की प्राकृतिक एवं हाल ही की मानवीय प्रक्रिया के बाद बना निर्धूम्र जीवाश्‍म ईंधन निर्विकार भाव से जले ही चला जा रहा था , इस बात की चिंता किए बिना कि इस पृथ्‍वी के गर्भ में उसकी सीमित मात्रा ही उपलब्‍ध है ।

अप्रायोगिक निष्‍कर्ष यह पाया गया कि दूध में दो रंगों की मलाई पडती है । सफेद और काली । अंतर सिर्फ इतना है कि सफेद वाली मलाई के नीचे दूध भी होता है । काली मलाई के नीचे दूध की जगह सिर्फ दूध का धूम्र पाया जाता है ।

खेल तो समय का ही है .... इन अर्थों में कि पतीली अग्नि के ऊपर कितनी देर तक अवस्थित रहती है ।

बाकी, कहने को चाहे कोई कुछ भी कहता रहे है ।

April 01, 2010

मूर्ख बनने से बचने के १०१ तरीके




एक मूर्ख को भी, मूर्ख बने रहने के लिए सतत अपनी मूर्खता साबित करनी होती है
-

-


--

----


--------


==========

Continuing to remain a silly, fool has to prove his stupidity


यह १०२ वाँ तरीका था

March 31, 2010

'विवाह' पर ओशो के विचार - देखिए सुनिए सरल अँग्रेजी में

फेसबुक से मिला यह मुझे । संवादघर के मालिक संजय ग्रोवर जी के स्‍टेटस पर । आप भी आनंद लीजिए, धैर्य के साथ औ' कौनौ गलत कहें होंय तौ बताओ .....

March 06, 2010

बाघ बचाओ अभियान का समर्थन आप इस तरह भी कर सक‍ते हैं



अब बाघों की संख्‍या केवल 1411 रह गई है ।

इसलिए अपने किसी भी प्रयास को छोटा मत समझिये ।

ट्विटर और फेसबुक के लिंक पर जाकर और वहॉं फालो करके आप इस काम की शुरुआत
कर सकते हैं ।

ट्विटर पर ,


SaveOurTigers



सेव अवर टाइगर

का अनुसरण (Follow) करके अब तक इसके 5096 अनुसरणकर्ता हैं । इससे आपको बचाओ अभियान की नवीनतम प्रयासों और गतिवधियों की जानकारी मिलती रहेगी ।


और फेसबुक पर,


यहॉं सेव अवर टाइगर के फैन बनकर सभी तरह की गतिविधियों में भाग ले सकते हैं, कमेंट कर सकते हैं और अपना पक्ष रख सकते हैं । अब तक इसके 196,877 लोग फेसबुक
की प्रशंसक सूची में दर्ज हैं ।


Save Our Tigers सेव अवर टाइगर



यहॉं पर भारत के सभी बाघ संरक्षण वन स्‍थलों ( Project Tiger Reserves) की विस्‍तार से जानकारी और उनमें बाघों की संख्‍या की जानकारी आपको मिलेगी ।


अगली पोस्‍ट में हम भारत के सभी बाघ संरक्षण वन स्‍थलों की संक्षिप्‍त जानकारी देंगे क्‍योंकि एक स्‍थान पर यह जानकारी हमें हिन्‍दी में कहीं उपलब्‍ध नहीं मिली ।

February 28, 2010

बुरा न मानो होली है - सब मोनालिसाऍं भोली हैं

बुरा न मानो होली है - मेरी बातें भोली हैं - स अपने हमजोली हैं !
पहचान कौन ?
20202020202020202020202020202020202020202020202020202

1919191919191919191919191919191919191919191919191919191919


1818181818181818181818181818181818181818181818181818181818

17171717171717171717171717171717171717171717171717171717171717

16161616161616161616161616161616161616161616161616161616

151515151515151515151515151515

141414141414141414141414141414141414141414141414141414

13131313131313131313131313131313131313131313131313131313

1212121221212121212121212121212121212212121212121212121212

1111111111111111111111111111111111111111111111111111111111111

10101010101010101010101010110101010101010101010101010

999999999999999999999999999999999999999999999999999999

888888888888888888888888888888888888888888888888888888

7777777777777777777777777777777777777777777777777777777777777

666666666666666666666666666666666666666666666666666666

555555555555555555555555555555555555555555555555555555

444444444444444444444444444444444444444444444444444444

333333333333333333333333333333333333333333333333333333

222222222222222222222222222222222222222222222222222222

1111111111111111111111111111111111111111111111111111111111111

************************************************************


बुरा न मानो होली है - मेरी बातें भोली हैं - स अपने हमजोली हैं

मित्रों ! होली पर हमारी तरफ से आप सभी को अबीर का टीका और शुभिच्‍छाओं के बहुत सारे रंगों से सिर से पॉंव तक भिगोते हुए बोले रहे हैं - होली मुबारक ।

हमारे ध्‍यान में अपने सभी ब्‍लॉगर मित्र हैं जिनकी पोस्‍ट हम पढते टिपियाते है या सिर्फ पढते हैं ऐसे ही हमारे ब्‍लाग को पढने वाले टिपियाने वाले या सिर्फ पढने या सिर्फ टिपियाने वाले सभी मित्र हमारे ध्‍यान में हैं

मुद्दे की बात जो हम कहना चाह रहे हैं वह यह है कि हमें खेंद है कि सभी मित्रों के मोन‍ालिसा संस्‍करण हम नहीं लगा पा रहे हैं । इसलिए बुरा न मानें । फिर भी यदि किसी मित्र ने विशेष इच्‍छा जाहिर की तो जरूर लगा देंगे ।

यह खुराफात हमारी नहीं http://www.photofunia.com
की है ।

होली की शुभकामनाऍं इन शब्‍दों में व्‍यक्‍त करते हुए :

होली खेलने कोई 'दीवाली' / 'दीवाला' आए
कोई भी आए गोरी-काली /गोरा- काला आए

February 14, 2010

कृष्‍ण की धरती पर वेलेंटाइन आए

कृष्‍ण कन्‍हैया अपनी भारत भूमि पर प्रेम के इजहार के इस वेलेंटाइन दिन को देखकर मुस्‍कुरा रहे थे । कृष्‍ण की आदत है मुस्‍कुराने की मुस्‍कुराते ही रहते हैं । रुक्‍मणी ने सोचा कि लगता है इन्‍हें अपने पुराने दिन याद आ रहे हैं । कुहनी मारते हुए बोलीं कि क्‍या बात है जी, बहुत मुस्‍कुरा रहे हो ? लगता है तुम्‍हें अपनी राधा और गोपियों के साथ बिताए हुए पुराने दिन याद आ रहे हैं । ये बेचारे तो साल में एक दिन का इंतजार करते हैं । प्रेम का बाकायदा इजहार और अपनी हैसियत के अनुसार मैनेज करने के लिए । तुमने तो हद कर रखी थी रोज ही रास रचाते रहते थे और वो भी कोई एक नहीं पूरी गॉव की गोपियों के साथ । कुछ काम धाम तो था नहीं तुम्‍हारे पास । निठल्‍ले घूमते थे । यशोदा मैया ने खासा बिगाड रखा था तुम्‍हें । और मैंने सुन रखा है राधा नाम की तुम्‍हारी कोई खास थी ।

रुक्‍मणी की बात सुनकर कृष्‍ण इस बार ठहाका मारकर हँस पडे । बोले रुक्‍मे ! मैं चाहे वेलेंटाइन के रूप में आऊं या कृष्‍ण के रूप में या राधा या मीरा के रूप में मैं किसी भी रूप में आ सकता हूँ प्रेम की हवा फैलाने । आज जब साजिश करके मेरे प्रेम के संदेश को बिल्‍कुल हवाई और अलौकिक कर दिया था, इस देश में तो मैं वेलेंटाइन जी के बहाने घुस आया हूँ , अधिक सांसारिक होकर । वैसे भी इस भारत देश की आदत हो गई है सेकंड हैंड चीजें इस्‍तेमाल करने की । यहॉं लाख दहाड मारकर चिल्‍लाते रहो कोई सुनेगा नहीं एक बार विदेशी समर्थन कर दें तो समझ लो कि हो गया काम । विवेकानंद से लेकर गॉधी से होते हुए ओशो तक यह बात बार बार दोहरायी जाती रही ।

रुक्‍मणी ने कहा - "मुझे लगता है कि आप ठीक कह रहे हैं । क्‍योंकि इन आशिकों के रंग ढंग भी कुछ आप जैसे ही
लगते हैं ।"

इस बार कृष्‍ण चौंक गए बोले कि मैं समझा नहीं तुम क्‍या कहना चाहती हो । रुक्‍मणी बोलीं कि "जैसे आपने प्रेम तो राधा से किया था ले‍किन उसे प्रेम तक ही रहने दिया । शादी तक आते आते आपके प्रेम का भूत उतर गया और यह नेक काम आप राधा जैसी ग्‍वालिन से न करके पूरी दुनियादारी का परिचय देते हुए हम जैसी राजे-महाराजे की लडकियों से किया । "

"मैं मजबूर था रुक्‍में ..." कृष्‍ण ने बेबसी जाहिर करते हुए कहा ।

"और आपकी यह बेबसी आज भी कायम है इस समाज में । हर वर्ष वेलेंटाइन डे चकाचौध की तरह आता है । महानगरों बडे शहरों और टीवी चैनलों मे कौंध की तरह छाता है । रात में पी हुई मदिरा की तरह सुबह हल्‍के सिरदर्द के साथ उतर जाता है । दूसरी तरफ प्रेम करने वालों युवाओं को पंचायतों द्वारा सरेआम फांसी , आगजनी या पीटपीटकर मौत के घाट उतार दिया जाता है।"

यह सुनकर कृष्‍ण को इस तरह की कई घटनाएँ याद आ गईं । मन में यह सोचकर उन्‍हें राहत महसूस हुई कि अच्‍छा हुआ कि मैं पहले ही यह सब करके फुर्सत हो लिया हूँ । नहीं तो आज के समय में ब्रज में वह सब करता तो पता नहीं क्‍या-क्‍या भुगतना पडता ।

रुक्‍मणी ने आगे कहा कि "फकीरचंद से लेकर अमीरचंद तक के घरों में शादियां बाकायदा प्रायोजित होती हैं । प्रेम अपनी जगह शादी अपनी जगह । प्रेम टाइम पास के लिए ठीक है । ज्‍यादा सेंटी होने का जमाना अब नहीं रहा ।
इस तरह हम पूरे व्‍यवहारिक लोग हैं । हमारे यहॉं शादियॉं कुंडलियॉं तय करती हैं । कुंडली पंडित तय करते हैं और मंगली लडकी की शादी के लिए मंगला लडका ढूँढना पडता है । लडके लडकी विदेश में पढते या नौकरी करते हैं और देश में आकर बाकायदा कुंडली मिलान करके शादी करते हैं ।"

"तब तो बडी मुश्किल हो जायेगी या तो प्रेम भी कुंडली मिलाकर करो नहीं तो प्रेम विवाह तो असंभव हो जायेगा ।
क्‍योंकि प्रेम तो लोग बिना आगा पीछा देखे ही करने लगते हैं ।"

यही एक समानता है वेलेंटाइन डे मनाने वालों और इसका विराध करने वालों में कि शादी के मुद्दे पर दोनों एक हो जाते हैं ।

"गालिब के अंदाज में आप इसे ऐसा कह सकते हैं कि दिल के बहलाने को वेलेंटाइन मियॉं ये ख्‍याल अच्‍छा है
लेकिन जो वेलेंटाइन डे मना रहा है वह अभी बच्‍चा है । इसलिए चिंता नहीं है क्‍योंकि बच्‍चा है तो बडा होगा ही और
बडा होगा तो जरुरी समझ भी आ ही जायेगी । फिर वह कुंडली मिलाकर शादी करेगा और वेलेंटाइन की जरूरत ही नहीं पडेगी ।"

"रुक्‍मणी ! एक मिनट ! अभी तुमने कहा कि कुछ लोग इसका विरोध भी करते हैं । वेरी इंट्रेस्टिंग ! वे कौन लोग हैं ? क्‍या वे शकुनी मामा या जरासंध की पार्टी के लोग हैं । जरा मुझे इसका खुलासा करके बताओ । तुम्‍हें इन सब चीजों के बारे में काफी अद्यतन जानकारी रहती है । मुझे तो आजकल राजकाज से ही फुर्सत नहीं मिलती ।" कृष्‍ण ने जम्‍हाई लेते हुए कहा ।

नहीं मधुसूदन ! वे आपकी जानकारी की किसी भी पार्टी के नहीं हैं बल्कि शिव जी और बजरंगबली जी के नाम
बनाए गए नए दल और भारतीय संस्‍कृति के पहरुए होने का दावा करने वाले वाले दलों के लोग हैं ।

"क्‍या इन लोगों को भोले शंकर और हनुमान जी का समर्थन प्राप्‍त है ?"

इस बात पर रुक्‍मणी को हँसी आ गई । समझाते हुए बोलीं कि यह तो सिर्फ उनके दलों के नाम है । आशीर्वाद या समर्थन प्राप्‍त होने से इसका कोई संबंध नहीं । जैसे कल कोई आपके नाम से या श्रीराम के नाम से दल बना सकता है । लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं कि इन सबके पीछे आपका हाथ है या समर्थन प्राप्‍त है ।

"अच्‍छा" तो इन लोगों का एजेंडा क्‍या है । कहीं ऐसा तो नहीं कि ये मेरे समर्थकों को शिव और हनुमान और उनके स्‍वामी राम के समर्थकों के खिलाफ भडका रहे हों ।

"प्रत्‍यक्षत: तो ऐसा नहीं लगता । लेकिन ऐसा है भी क्‍योंकि इन लोगों को शांतिप्रिय और प्रेम करने वाले लोग पसंद नहीं हैं । इन्‍हें ये कायर कहकर संबोधित करते हैं । इनका यह भी कहना है कि वेलेंटाइन डे मनाने वाले लडके-लडकियॉं कायर होते क्‍योंकि वे लोग अपना संगठन बनाकर इनके खिलाफ नहीं खडे होते । वेलेंटाइन डे मनाना भारतीय संस्‍कृति के खिलाफ है इसलिए ये लोग वेलेंटाइन डे के दिन प्रेमरत जोडों को बरामद करके उनकी आपस में राखी बँधवाकर , लगे हाथ उठक बैठक्‍ लगवाकर भारतीय संस्‍कृति की रक्षा का महत कार्य पूरा करते हैं । लोकतंत्र को ये पसंद नहीं करते क्‍योंकि लोकतंत्र में कोई भी ऐरा-गैरा कुछ भी अनाप-शनाप बकता रहता है । इस तरह ये अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता को पसंद नहीं करते । इससे इन्‍हें अपने अस्त्तिव पर संकट नजर आने लगता है । क्‍योंकि इनके पास विकास की कोई योजना या दृष्टि नहीं होती ।"

"इनका अस्त्तित्‍व केवल नकार पर टिका हुआ होता है । शांति काल में ये अप्रासंगिक हो जाते हैं इसलिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए कोई न कोई शिगूफा छोडते रहते हैं ।"

"दूसरे धर्मों के समान सोच रखने वाले भाई लोग इस काम में इनकी मदद करते रहते हैं । इस तरह भाईचारे से भाई बेचारों तक का धंधा चलता रहता है ।"

"तो क्‍या मेरे नाम से अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया गया । "
कृष्‍ण ने उत्‍सुकतावश पूछा ।

"नहीं मुरलीधर । आपके नाम से प्रेम का भाव इतना चिपका हुआ है कि लोगों को मारपीट के लिए उत्‍तेजित नहीं कर पाता इसलिए आपके नाम से अभी कोई दल नहीं बनाया गया है । आज की भाषा में कहूँ तो आपका नाम अपील नहीं करता ऐसे कामों के लिए । बल्कि ऐसे कार्यों को चौपट करने वाला है । यद्यपि आपने पार्थ को युद्ध करने के लिए उकसाया था । लेकिन आपका वह काम भी आपको लवर ब्‍वाय के इमेज से बाहर नहीं निकाल सका ।"

इस पर कृष्‍ण प्रसन्‍न होते हुए बोले कि "चलो अच्‍छा हुआ कि मेरा नाम लेकर कोई वेलेंटाइन जी का विरोध नहीं कर सकता नहीं तो मुझे काफी अफसोस होता क्‍योंकि किसी भी प्रेम का संदेश देने वाले में मैं ही मौजूद होता हूँ ।"

तत्‍पश्‍चात चर्चा का समापने करते हुए श्रीकृष्‍ण ने निम्‍नलिखित पंक्तियॉं कहीं :

ब्रजवासियों ने ऐसे ऐसे गुल खिलाए
कृष्‍ण की धरती पर वेलेंटाइन आए

यह कहकर विश्‍व-मोहन ने ऑंख मूंद ली और वर-वंशिका पर एक सम्‍मोहक राग छेड दिया जो कि रात के सन्‍नाटे में अखिल ब्रहमांड में गुंजायमान होता हुआ जड-चेतन को मदमस्‍त करने लगा । रुक्‍मणी भी राधारमण की गोद में सिर रखकर इस मधुर मुरली की तान से अवश होती हुई वेलेंटाइन डे का आनंद उठाने लगीं । अस्‍तु ।

सुनिए और देखिए यह गीत । " नीरज" ने यदि सिर्फ गीत भी लिखा हो तो भी वे ..........

शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब
उसमें फिर मिलाए जाए थोडी सी शराब
हो नशा जो तैयार, वो प्‍यार है .....

February 09, 2010

देखिए एक जादू .......खुद की रिस्‍क पर



विश्रांत हो जाइए और इस चित्र के बीच में बने हुए चार बिंदुओं को एकाग्रता से 30-40 सेकंड तक दे‍खते रहिए ।

2 अब अपनी पास की की दीवाल या किसी चिकनी सतह (जो कि एक ही रंग की हो ) पर देखिए ।

3 आपको प्रकाश का एक गोला बनता हुआ दिखाई पडेगा ।

4 अब आप अपनी ऑंखें झपकाइये फिर सतह पर देखिए । आप एक तस्‍वीर को उभरती हुई पायेंगे ।

कोई दिख रहा है ? कौन दिख रहा है ?


अगली पोस्‍ट में इस तरह कुछ और भ्रम प्रस्‍तुत करुंगा ।

February 03, 2010

चलो, चुप हो जाऍं

चलो,
चुप हो जाऍं, कुछ दिनों के लिए

जैसे,
चुप हो जाते हैं दो अनन्‍य मित्र
सहनशीलता की आखिरी सीमा
आने से पहले ,
बिना एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए
करते रहते हैं, अपना काम
साझे मिशन के लिए
सदाशयता से ,
कभी मिल जाने के लिए

जैसे,
मॉं-बाप पूरे करते रहते हैं अपना कर्त्‍तव्‍य
औलादों को झगडते हुए या
बहकते हुए, देखकर भी
लगे रहते हैं घर की भलाई में
क्‍योंकि , शक्तिप्रदर्शन में तबाही घर की ही है
चाहे जीते कोई भी

जैसे,
चुप रह जाती है समझदार जनता
नेताओं के, मरने मारने के उकसावे पर भी
जलाये रखती है इंसानियत का चिराग
अपने दिलों में

जैसे,
असली देशप्रेमी कोशिश करता है
कि उसका गौरव उसके दूसरे भाई/बहन को
शर्मसार न कर सके

जैसे,
माली सींचता रहता है अपने पौधों को
खिलाता है नये-नये फूल
खूबसूरत बनाने के लिए बाग को,
बगैर दूसरे का बाग उजाडे

चलो,
मनोरंजन और काबिलियत दिखाने के,
कुछ और तरीके खोजें
स्‍थगित करें, तलवारबाजी , मुर्गेबाजी और मुक्‍केबाजी से
अपने ही दोस्‍तों को लहूलुहान करके
विजेता बनने की हिंसक चमक को

चलो,
ऐसी बातें न शुरू करें
जिसका अंत न कर सकें
और जो अगले संवाद की
संभावना को समाप्‍त कर दे

चलो,
थोडा कम होशियार बनना
स्‍वीकार कर लें
क्‍योंकि अगला भी
बुद्धिमान ही है, हमेशा !

चलो,
कुछ नेताओं की कुश्‍ती को
राष्‍ट्रीय टूर्नामेंट और
कुछ बाहुबलियों के झगडे को
गृहयु्द्ध मानने से इंकार कर दें

चलो,
फसादियों को निराश कर दें
और 'मनुष्‍य' के आगे-पीछे बिना कोई
शब्‍द लगाये उसे बचाये रखें

चलो,
जब कुछ नहीं कर सकते तो
तमाशबीनी बंद करें !
और अपना-अपना काम करें

हाँ ! मजे लेने वाले उतने ही
भागीदार हैं,
जितने की मजमा लगानेवाले

कम से कम इतने से मजे का
त्‍याग तो कर ही सकते हो मेरे दोस्‍त ।

यदि नहीं , तो फिर चुप रहने का कोई मूल्‍य नहीं ।

January 27, 2010

अ‍ाखिरी कश की बकवास

जब मैं वहॉं पहुँचा तो चेन स्‍मोकर की उँगलियों में सुलगती हुई आखिरी सिगरेट बुझ चुकी थी । मुझे देखते ही उसने दो उँगलियों में फंसे हुए सिगरेट के समाप्‍त प्राय छोटे से टुकडे को मुँह में लगाते हुए एक अ‍ाखिरी कश लेने की कोशिश की , इस बात से बेखबर कि वहॉं अब खींचने के लिए कुछ नहीं बचा है

उसे अफसोस हुआ कि वह आखिरी कश नहीं खींच सका । एक उलाहना भरी मुस्‍कराहट से उसने मेरी ओर देखते हुए सिगरेट फेंक दी । फिर उसने सोचा कि अच्‍छा हुआ कि यहॉं उसके कमरे में भूकम्‍प नहीं आया वरना वह हैती के दो लाख लोगों की तरह लाशों की ढेर में से एक होता । इससे उसे पहले कुछ राहत फिर बेचैनी महसूस हुई । बेचैनी उन अनुमानों को याद करके जिसमें कहा गया था कि हैती का भूकम्‍प मानव जनित है । खैर ।

उसने मुझसे पूछा कि ज्‍यादा अफसोस जनक क्‍या है । भूकम्‍प में लाखों लोगों का मारा जाना , भूकम्‍प आना या सिगरेट का आखिरी कश न खींच पाना या बच्‍चों का आत्‍महत्‍या करना या चुनावों में लोकतंत्र का हश्र देखना या आमरण अनशन करना या तुम्‍हारा लम्‍बे समय तक कोई ब्‍लॉग पोस्‍ट न लिख पाना .... या कुछ और .... वह कई अफसोसनाक चीजें गिनाना चाहता था , लेकिन उसकी याददाश्‍त ने उसका साथ छोड दिया मैंने कोई जवाब न देते हुए उसे बोलने दिया ।

फिर उसने कहा कि अभी चंद दिनों तक उसके चैट बॉक्‍स में कभी कभार अचानक थोडी देर के प्रकट हो जाने वाले उस 21-22 वर्ष के लडके ने आत्‍महत्‍या क्‍यों कर की । क्‍या वह लडका बेचैन था । लेकिन वह तो हमेशा हँसमुख रहता था । फिर उसने कहा कि अखबारों में पढना और अपनी जिंदगी में देखने में काफी फर्क होता है । उतना ही जितना तुम नहीं समझ सकते कि मुझे सिर्फ एक आखिरी कश न खींच पाने का कितना अफसोस हो सकता है ।

मैं उसकी बातों को संजीदगी से सुनता रहा । बल्कि वह ऐसे बोल रहा था जैसे इन सारी अफसोनाक घटनाओं में मेरा भी कुछ हाथ है

उसका वक्‍तव्‍य जारी था "वह लडका खुश दिखता था । दुखी होना अच्‍छी बात नहीं है । बेचैन होना अच्‍छा नहीं माना जाता इसीलिए शायद वह दुखी और बेचैन नहीं बल्कि मुस्‍कुराता हुआ दिखता था । इससे आत्‍महत्‍या करने में मदद मिलती है । बेचारा कविता भी नहीं लिख सका । किसी ने कहा था कि कायर होते हैं आत्‍महत्‍या करने वाले । "

यह कहते हुए उसे गुस्‍सा आया ।

"जब उसकी बॉडी पडी हुई थी । कई लोग बातचीत और काम धंधे की बात कर रहे थे । तब उसे लगा कि मरना कोई इतनी महत्‍वपूर्ण बात नहीं है, इन लोगों के लिए । कई लोग कह रहे थे कि खुद मर गया लेकिन परिवार को जीते जी मार गया । फाइनली तो अपनी ही चिंता होती है । तब उसे खयाल आया कि आखिरी कश से पहले सिगरेट बुझ जाना उतनी बुरी बात नहीं है जितनी कि मरकर दूसरों को दुख देना । "

"लोग ऐसा सोचते होंगे या वैसा सोचते होंगे । लेकिन उसे संदेह है , कि लोग सोचते हैं । वह भी लोगों में ही आता है । क्‍योंकि वह बुझी हुई सिगरेट से कश लेने की कोशिश करता है । लेकिन उसे पता है कि वही लोग उसके कातिल हैं, जो जार-जार रो रहे हैं क्‍योंकि वे उसी समाज के हिस्‍से हैं , जिसने मजबूर किया उसे विदा होने के लिए ।"

"दुखी होना बुरी बात है । अंधेरे को प्रकट करना भी अच्‍छी बात नहीं है । आदमी को हमेशा प्रसन्‍न रहना चाहिए । क्‍योंकि एक तो अफसोस उससे भी अफसोसनाक एक बुरी बात होने का अफसोस । आखिर मेकअप किसलिए बनाया गया है । इसे सम्‍हालकर चलना चाहिए । इससे आत्‍महत्‍या करने में सहायता मिलती है । एक व्‍यक्ति और समाज को । अलग-अलग तरह से । सब कुछ अच्‍छा है । आल इज वेल । आल इज वेल । लगता है वह फिल्‍म नहीं देख पाया था ।"

उसे ब्‍लॉग लिखना चाहिए था । आखिर ब्‍लॉग होता किसलिए है

"गणतंत्र दिवस में खुश होने के लिए बच्‍चा होना या स्‍कूली विद्यार्थी होना जरूरी है क्‍या । यदि नहीं तो मुझे आज खुशी क्‍यों नहीं हो रही । क्‍या इसलिए कि कोहरे का असर दिल्‍ली की परेड पर पडा ।" या वह असंतुष्‍ट था किसी झांकी से । मैंने उसे याद दिलाया कि अपने यहॉं की परेड पाकिस्‍तान से बहुत अच्‍छी होती है । ओर वहॉं लोकतंत्र की फजीहत भी बहुत है । हम पाकिस्‍तान से हर मामले में आगे हैं ।

उसने कहा कि तुम सिर्फ तब
तक ही बोल सकते हो जब तक मैं चीन का नाम नहीं लेता । मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था । इसलिए चुप रहा । फिर वह महाराष्‍ट्र का राग अलापना चाहता था । मुझे देर हो रही थी मैने उसे टोकते हुए कहा कि ऐसे तो कोई अंत ही नहीं है ।

तुम अपने आखिरी कश न ले पाने की खीज को कहॉं तक लपेटोगे । चलो उठो बाहर घूम कर आते हैं ।

उसने कहा, "लेकिन तुमने बताया नहीं कि ज्‍यादा अफसोसनाक क्‍या है , आखिरी कश न ले पाना या कुछ और ।"

मैनें कहा कि तुम गलती पर हो मेरे दोस्‍त ! आखिरी कश हमेशा लिया जा चुका होता है जिंदगी का , जब तुम पहला ले रहे होते हो । इसीलिए कहता हूँ कि जिंदगी की सिगरेट का हर एक कश ऐसे लो जैसे वह आखिरी हो ।

यह तुम्‍हारी खाम्‍हख्‍याली ही है कि तुम आखिरी कश को तय करोगे । और इससे पहले कि कभी तुम्‍हारे ऊपर दौ सौ रुपये या उससे ज्‍यादा का जुर्माना हो तुम्‍हे यह आदत छोड देनी चाहिए । इससे तुम्‍हे अफसोस भी नहीं होगा ।

उसने मुस्‍कुरा कर उठते हुए कहा कि चलो तुम्‍हारे एक ब्‍लॉग पोस्‍ट का जुगाड तो हो ही गया । बहरहाल मुझे अफसोस तो सिर्फ इस बात का है कि मैं तुम्‍हे बहका नहीं सका अपनी चूक पर सहानुभूति जताने के लिए और अंतत: मुझे तुम्‍हारे उपदेश का शिकार बनना पडा ।

January 13, 2010

पंक्तियों के समूह को कह देता हूँ, कविता

मुझे,
पता नहीं है
कैसे, लिख देता हूँ
चंद पंक्तियां, कभी
अचानक ही,
उन पंक्तियों के समूह को
कह देता हूँ, कविता
ब्‍लॉग पोस्‍ट के लेबल पर
चिप्पियॉं या टैग में

जबकि,
मुझे पता है,
मैं नहीं लिख सकता
कोशिश करके भी,
वह सब
जो मैंने लिखी हैं,
अनायास ही किसी पल में,
किसी भाव दशा में

शायद,
इसीलिए, कह देता हूँ उसे
कविता,
क्‍योंकि वह,
आती है अपनी मर्जी से
मेरी कोशिशों से मुक्‍त, सर्वदा


जैसे,
प्रेम आता है किन्‍ही पलों में
अपनी स्‍वतंत्रता में,
मेरी गैर मौजूदगी में
फिर भी मैं श्रेय देता हूँ ,
खुद को
उस चीज के लिए ,
सिर्फ प्रतीकात्‍मक है यह .

यद्यपि,
मैं जानता हूँ, हर बार
कुछ पंक्तियॉं लिखने के संतोष
और
प्रेम के आनंदपूर्ण क्षणों के
पश्‍चात भी, कि मैं
नहीं पहुंच सका हूँ
अब भी ,
कविता और प्रेम तक

January 11, 2010

संबंध - खुशियों की चाबी खुद की जेब में रखें

"मुझे याद आता है कि जब मैं एक छोटी सी लडकी थी , मेरी मॉं हमारे लिए नाश्ता और रात का खाना बनाया करती थी एक दिन की घटना मुझे खासतौर पर याद आती है जब मॉं ने एक पहाड जैसे दिन में कठोर थकाने वाला श्रम करने के बाद घर आकर हमारे लिए रात का खाना बनाया था कई वर्षों पहले की उस शाम को मेरी मॉं ने मेरे पिता के सामने खाने के लिए सब्जी , सलाद और जली हुई रोटियां परोसी थीं मैं इंतजार कर रही थी कि इस बात पर क्या कोई ध्यान दे रहा है, कि रोटियॉं जली हुई हैं लेकिन मेरे पिताजी अपने भोजन के लिए थाली के सामने बैठकर, खाने के लिए रोटी उठाते हुए मॉं को देखकर मुस्कुराये और मुझसे पूछने लगे कि आज मैंने स्कूल में क्या किया मुझे याद नहीं कि मैंने उस रात पापा से क्या कहा लेकिन पापा का जली हुई रोटी पर चटनी फैलाकर रोटी के कौर खाना मुझे अभी तक याद है

उस शाम खाना खाकर उठने के बाद मैंने मॉं को जली हुई रोटियों के लिए पापा से क्षमा मॉंगते हुए सुना । इस पर उन्‍होंने जो कहा वह मैं कभी नहीं भूल सकती - "प्रिय मुझे जली हुई रोटियॉं पसंद हैं "

दूसरे दिन मैंने जब पापा को रात में गुड नाइट बोलने गई और मैंने उनसे प्रश्‍न किया कि क्‍या आपको जली हुई रोटियाँ खाना सचमुच अच्‍छा लगता है ?

उन्‍होंने मुझे बाहों में भर लिया और कहने लगे "मेरी लाडली ! तुम्‍हारी मॉं आज पूरा दिन कडी मेहनत करने के बाद यकीनन काफी थकी हुई थीं । और एक जली हुई रोटी की ओर ध्‍यान देने की अपेक्षा किसी का दिल न दुखाना अधिक महत्‍वपूर्ण है । तुमको पता है बेटी ! यह दुनिया अपूर्ण वस्‍तुओं और अपूर्ण मनुष्‍यों से भरी पडी है । बल्कि यह अपूर्णताओं से ही बनी है ।"

मैं कोई बहुत अच्‍छी गृहिणी नही हूँ लेकिन वर्षों के अनुभव से मैंने सीखा है कि एक दूसरे के दोषों को स्‍वीकार करना और भिन्‍नताओं का आनंद लेना ही एक स्‍वस्‍थ और टिकाऊ संबंध का आधार है । जिससे कि एक जली हुई रोटी संबंधों के टूटने की वजह न बने । इस बात को हम किसी भी संबंध पति-प‍त्‍नी, माता-पिता दोस्‍त या रिश्‍तेदार पर लागू कर सकते हैं , क्‍योंकि एक दूसरे को समझना ही रिश्‍तों का मूल आधार होता है ।"

"कृपया अपनी खुशियों की चाबी , दूसरों की नहीं खुद की जेब में रखें । peace

यह एक दोस्‍त के द्वारा अग्रेषित की गई ईमेल का अँग्रेजी से हिन्‍दी अनुवाद है । मुझे अच्‍छी लगी इसलिए साझा किया ।

यह पोस्‍ट आपको उपदेशात्‍मक लगी या अच्‍छी लगी ?tepuktangan

January 03, 2010

3 ईडियट्स बनाम फाइव प्‍वाइंट समवन

कल मैंने फिल् 3 ईडियटस देखी इसके पहले हाल ही में चेतन भगत का उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन पढा था

यह उपन्यास एक फुल टाइम पास है, वैसी ही फिल् भी है आप कहीं भी बोर नहीं होंगे फर्क इतना है कि किताब सच्चाई के ज्यादा करीब है चेतन भगत अद्भुत किस्सा गो हैं रेलवे स्टेशन पर प्रतीक्षा करते यात्रियों की तीन घंटे की समयावधि पर भी पूरा उपन्यास लिख सकते हैं

इसमें प्रेरणा देने की जो कोशिश की गई है, बहुत अच्छी है , कि हमारे यहॉ की शिक्षा पद्धति रट्टा आधारित है यह बात पहले भी अनंत बार कही जा चुकी है वैसे ही जैसे भ्रष्टाचार , जातिवाद , धार्मिक उन्माद इत्यादि खत् होने ही चाहिए , लेकिन होता नहीं है ऐसा लगता है कि इनके बिना हमारा काम नहीं चलेगा या अपनी पहचान लुप् हो जायेगी हर साल नए घोटाले पिछले साल के घोटालों के रिकार्ड तोडते जाते हैं इस क्षेत्र में क्रिकेट के खेल की तरह धडाधड कीर्तिमान बनते रहते हैं

फिल् रिलीज होने के बाद विवाद भी हो लिया लेकिन हम विवाद में काहे पडें हमने तो जो पढा और देखा वही बता रहे हैं वैसे भी विवाद से दोनों पक्षों को लाभ ही होने वाला है आज समाचार में था कि दिल्ली, अहमादाबाद , सूरत , वडोदरा इत्यादि में किताब की बिक्री पचास प्रतिशत तक बढ गई है फाइव प्वाइंट समवन बेस् सेलर पुस्तक रही है

चेतन भगत को फिल् के क्रेडिट हिस्से में वाजिब श्रेय मिला या नहीं यह तो फाइव प्वाइंट समवन देखने वाला और किताब पढने वाला मनुष् समझ ही जायेगा इसमें कोई आईआईटी बुद्धि या पटकथा लेखन के कौशल की कतई आवश्यकता नहीं है और यह भी कि सबको पहले से ही पता था कि यह फिल् चेतन भगत के उपन्यास पर बन रही है जिनको पता नहीं था अब पता हो गया है

यह बहस करना कि कितने प्रतिशत चेतन की कहानी है और कितने प्रतिशत शरमन जोशी, आर माधवन की जोड-तोड है , ज्यादा महत् नहीं रखता इसे इस तरह कहा जा सकता है कि कहानी का पूरा विचार दर्शन चेतन का है , भवन की नींव , पूरा ढॉंचा बाकी फिल् वालों ने उसमें अपने ढंग से डेकोरेशन किया है कहानी की कुछ घटनाओं को दूसरे ढंग से होते दिखाने भर से कोई कहानी का लेखक नहीं हो जाता उदाहरण के लिए डीन के कार्यालय से प्रश्नपत्र चुराने के लिए फिल् में प्रोफेसर की लडकी खुद लडकों को चाबी देती है जबकि किताब में हरि यह चाबी प्रोफेसर की लडकी , जिससे उसकी दोस्ती हो गई है , के यहॉं से चुराता है

फिल् और उपन्यास पर तुलनात्मक रूप से कुछ भी कहने से पहले मै यह बता दूँ कि मैंने किसी उपन्यास या कहानी पर बनी ऐसी कोई भी फिल् या टीवी धारावाहिक नहीं देखा जो मूल कृति से बेहतर हो शायद यह विधाओं में अंतर की वजहसे होता है पढते समय हम कल्पना करने के लिए स्वतंत्र होते हैं और हमारे मन में अपनी सुविधानुसार पात्रों की छवियॉं बन जाती हैं हमारे अनुभवों से मस्तिष् में काल्पनिक परिवेश बन जाता है फिर हम एक बेहतर कृति में डूबकर पढते जाते हैं लेखक जो विचार रख्ाता है, जो संदेश देना चाहता है उसे ग्रहण करते जाते हैं एक बेहतर रचना किसी काई लगी हुई ढलान की तरह होती है पैर रखते ही आप फिसलना शुरू हो जाते हैं और फिर फिसलते ही जाते हैं जब तक कि ढलान खत् नहीं हो जाती उसी तरह एक बेहतरीन रचना की एक लाइन पढने के बाद आप पूरी किताब पढने से खुद को नहीं रोक सकते यही उस पुस्तक के लोकप्रियता की वजह भी होती है क्‍योंकि साहित्‍य या कला कुछ भी होने से पहले मनोरंजन है चाहे वह किसी भी ढंग से हो दुखद या सुखद मन: स्थिति के अनुरूप

तो किसी पुस्तक को पढने के बाद उसके पिक्चराइज रूप को देखते समय स्वभावत: मन तुलना करने लगता है
तुलना इसलिए करता है क्योंकि कि हम अपने मन में पहले ही उस कहानी को पिक्चराइज कर चुके हैं कला फिल्में इस तरह के पिक्चराइजेशन में ज्यादा सफल होती हैं

जहॉं तक 3 इडियटस की बात है, इस कहानी का स्रोत चेतन भगत का उपन्यास फाइव प्‍वाइंट समवन ही है किताब पढकर और फिल् देखकर यह बात कोई भी आसानी से कह सकता है उपन्यास जो संदेश देना चाहता है फिल् भी वही कहती है , कि अपनी रुचि का काम करने से आदमी सफल होता है नौकरी के लिए पढाई और उच् शिक्षण संस्थान भी छात्रों में शोधपरक मनोवृत्ति विकसित करने की अपेक्षा उन्हें अच्छे अंक प्राप् करने की चूहा दौड में झोंक देते हैं शिक्षा का मकसद छात्र को यह समझने में मदद करना होना चाहिए कि वह क्या बनना चाहता है यह भी एक बडी उपलब्धि है कि स्टूडेंट समझ सकें कि उनकी रुचि क्या है और किस क्षेत्र का चुनाव उनके लिए सही रहेगा बच्चे अभिभावकों की महत्वाकांक्षा का शिकार हों और अपनी दिल की आवाज का अनुसरण कर सकें तभी एक खुशहाल समाज बन सकता है इसके लिए जरुरी है कि हर आदमी को वह करने का मौका मिल सके जिसके लिए वह पैदा हुआ है अन्यथा एक समाज में जहॉं लोग गलत जगहों पर बैठे हुए हैं कभी अमन चैन कायम नहीं हो सकता और ना ही वहॉं किसी सृजन की कोई सम्भावना है बस एक के बाद एक भारवाहक पीढियॉं पैदा होती रहेंगी यही भारत की समस्या है मेरे विचार से यह समस्या इसलिए है क्योंकि भारत जनसंख्या के बोझ से दबा हुआ एक गरीब देश है जिसके विकास में भारी असमानताऍं हैं ।

यह संदेश उपन्यास और फिल् दोनों में एकरूप है इसमें छात्रों पर पाठ्यक्रम के बोझ , सिस्टम या तंत्र के प्रति उनका असंतोष और उससे निपटने का 3 ईडियट्स का तरीका किताब और फिल् में एक ही है उपन्यास की तुलना में फिल् में कुछ घटनाओं को बदल दिया गया है जैसे किसी मकान में जाने से पहले आप उसमें अपनी सुविधानुसार फेरबदल करें उसी तरह फिल् में घटनाओं में फेरबदल किया गया है

3 ईडियट्स और फाइव प्वाइंट समवन की कहानी में तुलना :

- यह इंजीनियरिंग की मैकेनिकल शाखा से स्नातक करने वाले तीन छात्रों की कहानी है उपन्यास और फिल् दोनों की शुरुआत रैगिंग से होती है दोनों में छात्रो की रैगिंग होती है फिर रैंचो या रेहान उन्हें बचा लेता है जो कि दोनों में अलग-अलग ढंग से दिखाई गई हैं

- कालेज के पहले दिन कक्षा में मशीन के बारे में प्रश् किया जाना यह दिखाना कि किस तरह शिक्षा तंत्र में बदलाव की आवश्यकता है

- कालेज का प्रोफेसर डीन(बोमन ईरानी) बेहद सख् है , उसकी एक खूबसूरत लडकी है (करीना कपूर ) प्रोफेसर एक लडका भी था जोकि आत्महत्या कर चुका होता है, लेकिन सब समझते हैं कि वह ट्रेन दुर्घटना में मरा है यह बात केवल उसकी बहन को मालूम होती है , जिसे वह मरने से पहले एक पत्र लिखकर जाता है प्रोफेसर को पत्र और आत्महत्या के बारे में बाद में पता चलता है
उसकी बेटी अपने भाई की मृत्यु का जिम्मेवार प्रोफेसर को ठहराती है क्योंकि उसके भाई के बारबार आईआईटी प्रवेश परीक्षा में असफल होने के बाद भी प्रोफेसर उसे इंजीनयिरिंग करवाने का ही दबाव बढाता जाता है जबकि वह कला विषय लेकर पढना चाहता है प्रोफेसर की बेटी बहस के दौरान अंत में कहती है कि उसने आत्महत्या नहीं की बल्कि उसका मर्डर हुआ है

- तीन में से एक ईडियट आलोक (राजू रस्तोगी) के परिवार का वर्णन फिल् और किताब में एक समान है आलोक का परिवार मुसीबतों से घिरा हुआ है धनाभाव के कारण परिवार त्रस् है बहन की शादी करनी है , जिसके दहेज में लडके वाले मारुति 800 की मॉंग करते हैं बाप को लकवा मार गया है जिसकी वजह से वह हमेशा बिस्तर पर ही पडे रहते हैं आलोक किसी भी तरह एक जॉब चाहता है उसका इंजीनियरिंग करने का एकमात्र यही मकसद है यह घटना भी फिल् और किताब में समान है कि तीनों दोस् आलोक के घर खाना खाने जाते हैं और मटर पनीर की सब्जी खाते हैं अंत में खीर भी आलोक की मॉं खाने के दौरना अपनी समस्याओं का रोना रोती रहती है वस्तुओं के दाम बताती रहती है

- रट्टू छात्र वेंकट (किताब में) ( फिल् में ) की भूमिका ज्यादा अहम है किताब की अपेक्षा जिसके साथ आलोक , मित्रों से झगडा होने पर एक साल तक रहता है

आलोक के माता पिता फिल् में ज्यादा गरीब और दीन हीन दिखाए गए हैं उपन्यास में हरि के माता पिता का जिक्र नहीं है फिल् में हरि के माता पिता और उसका शौक फोटोग्राफी है यह बात उपन्यास की कहानी से अलग जोडी गई है इसी तरह करीना कपूर का रेहान से प्यार होता है जबकि उपन्यास में वह हरि से प्यार करती है उपन्यास में तीनों दोस्तो का ग्रेड फाइव प्वाइंट समथिंग होता है जबकि फिल् में रेहान (रैंचो) को प्रथम और बाकी दो दोस्तों आलोक और हरि को अंतिम स्थान में दिखाया गया है

इस तरह घटनाऍं ज्यादातर वही घटती हैं, जो उपन्यास में वर्णित हैं जैसे आलोक छत से कूदकर आत्महत्या करने की कोशिश करता है , लडके डीन के कार्यालय से प्रश् पत्र चोरी करते हैं , तीनों लडकों का डीन के घर में उसकी लडकी के कमरे में खिडकी के रास्ते चुपके से रात में जाना, कक्षा में प्रोफेसर को मशीन की परिभाषा पूछना आदि लेकिन फिल् में इन घटनाओं के घटित होने की वजह अलग है और इन्हें अलग ढंग से पेश किया गया है

फिल् की कहानी में उपन्यास की अपेक्षा जो एक बडा परिवर्तन किया गया है वह यह कि फिल् में दिखाया गया है कि कालेज से निकलने के बाद रणछोडदास (रेन्चो ) गायब हो जाता है और बाकी दोनों दोस् को उसका पता नहीं चलता पॉंच साल के बाद उन्हीं के कालेज के एक पढाकू छात्र साइलेन्सर(चतुर) का उन्हें फोन आता है जो कि अब किसी बढी कम्पनी में उच् पद पर है कि रैन्चों का पता मिल गया है इसके बाद फ्लैश बैक में होती हुई कहानी आगे बढती है जबकि उपन्यास की कहानी कालेज खत् होने और आलोक और हरि को नौकरी मिलने तथा रेहान (रेंचो) को उसी कालेज में सहायक शोधछात्र की छात्रवृत्ति मिलने के बाद खत् हो जाती है रेहान के पिता उसके रिसर्च से बनाए गए उत्पाद पर पैसा लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं और रेहान उसके व्यावसायिक उत्पादन संबंधी उद्योग की स्थापना में लग जाता है जोकि उसी शहर से लगे किसी गॉंव में लगाया जा रहा है

अंतत: 3 इडियटस एक बॉलीवुड मनोरंजक फिल् है जिसे देखकर पैसा डूबने का पछतावा नहीं होता आमिर खान का अभिनय अच्छा है, जैसा कि हमेशा होता है फिर भी फिल् उपन्यास की अपेक्षा यथार्थ के कम करीब लगती है

रही बात चेतन भगत को क्रेडिट्स की तो यह कहानी चेतन भगत की है मूल ढांचा तो उपन्यास का ही है फिर उसमें मनचाहे फेरबदल करना फिल् विधा के हिसाब से कोई बडी बात नहीं है जैसे रैगिंग करने के ढंग बहुत हैं तो उसमें आपने बदलाव कर दिया थोडा सा इससे यह साबित नहीं हो जाता कि यह आपकी मूल कहानी है

ठीक है अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी ने इस पर मेहनत की है लेकिन किसी भी मूलकृति पर कोई भी आसानी से अपनी इच्छानुसार छेडछाड कर सकता है, इससे आप यह नहीं कह सकते कि यह कृति उसकी हो गई मोनालिसा की प्रतिकृति बनाने से कोई लियो नार्दो विंसी नहीं हो जाता

फिर कांट्रैक् में क्या था या उनके बीच क्या डील हुई थी यह सब अभी पूरी तरह स्पष् नहीं है

अंत में यदि पूछा जाय कि फिल् देखने और उपन्यास पढने में ज्यादा मजेदार क्या है तो बेहिचक मैं यह कहूंगा कि फाइव प्वाइंट समवन के मुकाबले 3 इडियट्स बहुत कमजोर है वजह : फिल् हमें सिर्फ मनोरंजन देती है जबकि उपन्यामनोरंजन से आगे भी कुछ देता है उपन्यास का हिन्दी संस्करण भी उपलब् है प्रभात पेपर बैक् प्रकाशन, नई दिल्ली से , मूल् 95/-

चित्र : गूगल