July 13, 2010

अले -2 . फुटबाल में कबड्डी भी होती है, अराजकता की भी अपनी व्‍यवस्‍था होती है

कल यह सोचकर फीफा विश्‍व कप का फाइनल देख लिए कि चलो आज भर की तो बात है, कौन सा रोज दुनिया के सार्वाधिक लोकप्रिय खेल के विश्‍व कप का फाइनल होना है। वरना तीन बजे तक बेफालतू में तभी जागा जा सकता है जब नींद न आ रही हो। वैसे भी फीफा में भारतीयों की हालत बेगानी शादी में अब्‍दुल्‍ला दीवाना की तरह होती है। मैच लंबा खिंच गया। अतिरिक्‍त समय में किसी तरह एक गोल होकर मामला क्लियर हुआ। हमें तो लग रहा था कि द्वंद्व युद्ध से फैसले की नौबत न आ जाए नहीं तो आधे घंटे और जागने पडेंगे। आक्‍टोपस की बैठकी सही निकली। पोपट गलत साबित हुआ।



फुटबाल के खेल में कबड्डी का पुट तो होता ही है लेकिन कल कुछ ज्‍यादा ही दिखा। डेढ दर्जन से कम पीले और एक लाल कार्ड का प्रयोग किया गया। साथ ही ऐसा लगा कि गोल पोस्‍ट की जगह बास्‍केट बाल की डलिया रखी हुई है। गेंद अंदर ही नहीं जा रही थी।

हमारी अराजक लेखन शीर्षक वाली पिछली पोस्‍ट में मित्र पंकज उपाध्‍याय को अराजकता का तत्‍व गायब मिला। दुबारा पढने पर भी उन्‍हें इस तत्‍व के मौजूद होने के कोई लक्षण नहीं मिले। यह जानकर हमें संतोष हुआ कि हम आज के अपने समाज के चलन के अनुसार काम कर रहे हैं। जैसे न देशभक्ति जनसेवा देखकर कोई धोखे में आता और ना ही "सेवा" पेशे वाले व्‍यक्तियों से कोई सेवा की उम्‍मीद रखता।

पंकज की टिप्‍पणी देखकर हमें सोचने पर मजबूर होना पडा कि यह शीर्षक आखिर हमने रखा क्‍यों। बहुत याद करने पर याद आया कि हमने यह शीर्षक इसलिए रखा था कि जब लिखने बैठे तो हमें खुद ही नहीं पता था कि हम क्‍या? लिखेंगे। हम लिखने के लिए ही लिख रहे थे। लिखने के बाद ही पता चलना था कि हमने क्‍या लिखा है।

इसलिए हमें उसे अराजक कहा। कुछ लोग कहते हैं कि वे लिखने के लिए नहीं लिखते। शायद पढने के लिए लिखते होंगे। इस बात को अच्‍छा नहीं माना जाता कि लिखने के लिए लिखा जाए। लेकिन हम तो लिखने के ही लिखते हैं और इस बात का बुरा भी नहीं मानते। किसी को अच्‍छा वगैरह लग जाता है तो लगता है कि फोकट में पैसे मिल रहे हैं। हॉंलांकि हमारा विचार है कि फोकटिया लेखन तभी कोई करता है, जब बिना वह किए उससे रहा नहीं जाता।

जैसे वनस्‍पतियॉं मिट्टी की उपज हैं वैसे ही जीव जगत और मनुष्‍य भी। देखिए पहाडी और मैदानी, ठंडे और गर्म क्षेत्रों के लोगों में भिन्‍नता। रेगिस्‍तान के लोग अलग तरह के होते हैं। जंगल में रहने वाले आदिवासियों में जंगल के स्‍वभाव का पूरा प्रभाव रहता है। मासूमियत, प्राकृतिकता, अपने में खुश इत्‍या‍दि। मैदानी लोगों ने सभ्‍यता के सारे उपद्रव किए हैं। मैं यह इसलिए लिख्‍ा रहा हूँ कि मिट्टी का मनुष्‍य प्रजाति पर भी वैसा ही असर होता है जैसे वनस्‍पतियों पर होता है। सारे संसार के मनुष्‍यों के संदर्भ में यह बात सत्‍य है। यह सोचकर बडा आश्‍चर्य होता है।

क्‍या कोई पोस्‍ट लिखते-लिखते सो भी सकता है। तो मेरा उत्‍तर है कि ऐसा हो सकता है । थोडी देर बाद नींद खुलने पर जितना लिख गया था उतने को ही पोस्‍ट करके वह फिर सो जाएगा। यह सोचते हुए कि लिख्‍ाना जरा जल्‍दी शुरू किया होता तो कुछ और ज्‍यादा लिखता। कुछ और बेहतर भी। हॉलांकि उम्‍मीद कम ही है कि अगली बार वह इस बात को याद रखेगा।

5 comments:

  1. आप अपने ब्लॉग का नाम 'अनौपचारिक' से बदल कर 'अराजकता' भी रख सकते हैं! हम बुरा नहीं मानेंगे!

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  2. अर्कजेश जी, अराजकता की भी अपनी व्यवस्था होती है, मर्यादा भी :) फ़ीफ़ा मैच के दौरान कुछ अराजक खिउलाड़ियों को आपने भी देखा होगा, जो गोल हो जाने के बाद रेफ़री से लड़ रहे थे, लेकिन कितने व्यवस्थित, और मर्यादित तरीके से :) और हां फ़ुटबॉल देखते हुए हमें भी कई बार कबड्डी की याद आई.

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  3. अराजकता मिली कि नहीं भैया? :)

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  4. आजकल तो अराजकता बड़ी ही औपचारिक हो गयी है। तब तो आपका नाम भला है।

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  5. @Giribala, विचार कर रहे हैं :))

    @ वन्दना अवस्थी दुबे, अच्‍छा है ।

    @ PD, जो ढूंढ रहे थे उनसे पूछो न लल्‍ला, हमारे पास तो हमेशा रहती है ;)

    @ प्रवीण पाण्डेय, सपोर्ट के लिए धन्‍यवाद । अब हमें नाम नहीं बदलना पडेगा =))

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नेकी कर दरिया में डाल