यह जो आप पढ रहे हैं यह लाइन सबसे अंत में लिखी गई है पहले हमें लगा इसे कोई श्रृंखला जैसा कोई नाम दे दें । फिर उसी चीज के एक दो तीन पढते पढते होने वाली ऊब के याद आने की वजह से एक शीर्षक दे दिया ।
शीर्षक पर न जाऍं क्योंकि आपको पता ही है कि शीर्षक और पोस्ट का संबंध होना ब्लॉगिंग के फैशन के खिलाफ है
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अब वह पढें जो हमने शुरु में लिखा :
सुबह-सुबह कोयल इसलिए नहीं कूक रही थी कि वह मुझे या आपको देखकर प्रसन्न हो रही थी। इसलिए भी नहीं कि वह पीछे के ब्लॉक में शराबी पति के ऊपर चीख-चीख कर चीखने, बर्तन फेंकने और चीख कर ही गाने वाली महिला को चिढा रही थी । किसी को कोयल का कूकना अच्छा लगे या खराब यह कोयल की समस्या नहीं है । कोयल आलसी नहीं है कि उसे तभी कोई काम करने की सूझे जब उस काम को करने की समय और सुविधा न हो । और जब समय और सुविधा हो तब वह आराम करे । कोयला का कूकना सुनना और उस पर सोचना किसी के लिए एक बकवास काम भी हो सकता है । क्योंकि इससे जीवन की कोई समस्या हल नहीं होती । फिर भी बकवास करने वालों, बकवास को बकवास समझने वालों या सौंदर्यबोध नाम की किसी चीज के होने का हवाला देने वालों को कोयल यह भी नहीं कहेगी कि वह इन्हें कौओं के घोंसले का तिनका भी नहीं समझती ।
गर्मी पड रही है । ऐसा भी कहना बेमतलब है कि गर्मी जानलेवा है । क्योंकि यह कोई नई बात नहीं है । फिर जहॉ गर्मी है ही, बहुत ज्यादा वहॉ तो लोग जान ही रहे हैं कि है । जहॉं कुछ राहत हो गई है , वहॉं के लोग इस हाय हाय पर ध्यान देकर अपने ठंडक को काहे गर्मायें । यदि है भी और आप कहते भी हैं, बौखलाकर, तो बात सिर्फ इतनी होगी कि हो सकता है कि कुछ लोगों के मन में उत्सुकता जागे कि सच में बाहर जाकर देखा जाय कि गर्मी कितनी है । और ऐसे बहुतायत लोगों कि तो बात ही मत उठाइये जिन्हें गर्मी से ज्यादा भूख सताती है ।
ठीक है, गर्म लहू सबकी नसों में बहता है । लेकिन वह गर्मी के हिसाब से गर्म या ठंडा नहीं होता । जब तक नसों में सिर्फ गर्म लहू बहता है, तब तक चैन की सॉंस लीजिए । क्योंकि नसों में हवा बहती नहीं रुकती है, बदन के चौराहों पर । रुकी हुई हवा जमे हुए लहू से भी ज्यादा खतरनाक होती है । तब और भी , जब बात नसों और धमनियों की हो रही हो । जमा हुआ लहू एक बार में ही निपटा देता है और रुकी हुई हवा घुटन पैदा करती है । जब तक कोई तूफान आकर उस स्थान विशेष को उसकी हवा समेत उखाड न डाले ।
लिखते-लिखते हमें कुत्ते की पूँछ क्यों याद आ जाया करती है, यह सिर्फ हमीं जानते हैं या फिर आप भी जान जायें शायद । यदि आपका दिमागी अनुकूलन कुत्ते की पूँछ को 'टेढे' शब्द से जोडता है तो यह भी जान लीजिए कि हमने सुना है कि पागल होने के बाद कुत्ते की पूँछ सीधी हो जाया करती है । लेकिन यह बात कोई भी दिमाग मजाक में भी मानना पसंद नहीं करेगा कि उसकी कोई भी समानता कुत्ते की पूँछ से की जाय ।
तो ऐसी बात जिसे कोई भी सुनना पसंद नहीं करेगा क्यों कही जाय , सिवाय इसके कि हम ऐसी बात सिर्फ सोच रहें है , कह नहीं रहे । सोचने की बात से याद आया कि कन्हई काकू अपने ब्लॉग में क्या लिखेगा । मुझे नहीं लगता कि वह कभी अपना ब्लॉग बना सकता है, क्योंकि खाली समय में गॉव की गली या चौराहे में नीली जॉघिया पहने बैठे रहने या अपनी पॉच छोटी-छोटी लडकियों में से दो को पछिबाए रहने के अलावा वह कुछ नहीं करता । इसलिए भी कि वह हमेशा उससे भी कम बोलता है, जितने में बात समझ आ जाए और उससे भी कम काम करता है जितने में काम चल जाए ।
यह बात जो मैंने काफी समय पहले बल्कि साफ-साफ कहो तो काफी सालों पहले ही महसूस और विचार दोनों ही कर ली थी कि दिल से निकलने पर भी बात का असर नहीं होता । कोई भी बात किस मेड इन की है मतलब दिल की या दिमाग की यह भी समझ में नहीं आता । बाद में हमने दिलीप कुमार की फिल्म राम और श्याम की मदद से खोज निकाला कि अभिनेता एक ही है, बस पात्र अलग हैं । दिल की गोली जब दिमाग की बंदूक से निकले तो बात का ज्यादा असर होता है । फिर भी इस सिद्धांत के याद आने की वजह एक बात है , जो हम अभी कह रहे हैं कि यह भी तो हो सकता है बात जब तक पूरे शरीर से निकलकर चलने न लगती हो असर न करती हो ।
इन सब सोची हुई बातों को भूल जाने की वजह से ही यह समझ नहीं आ रहा था कि घोर क्रांतिकारी, संवेदनात्मक और जमीन से फेविकोल के मजबूत जोड की तरह जुडी हुई रचनाऍं भी मनोरंजन भर क्यों कर रही हैं । नहीं मानते तो शेर छाप बीडी , फला ब्रांड सिगरेट या मधुशाला, जो कि निहायत ही बेहूदा नॉस्टैल्जिया है और हउली का आभिजात्य वर्गीय अपमान है, से मिलने वाली थोडी देर की राहत पकड लो । शराब को भी बडे-बडे आदर्शों , उदात्त भावों और सामाजिक समरसता और नैतिकता जैसे गुणों से जोडकर कविता करने वाले लोग गरीब को चैन से दारु भी नहीं पीने देंगे । या फिर दूसरे आदमी को इन्ही के सहारे पियक्कड बनने में मदद करेंगे ।
इन सब मनोरंजनों , मानसिक राहत देने वाली सामग्रियों और इनका बेशर्मी से प्रयोग करने वाले लोगों और सिर्फ इसी तरह का प्रभाव छोडने वाली कुछ हवाई बातों की तुलना मैं क्यों कर करुं । फिर भी कवि, लेखक या आभासी क्रांतिकारी क्रास प्रश्न कर ही सकता है कि एक शराबी को शराब पिलाकर बोलने की आजादी न देना उसके मूल अधिकारों के खिलाफ है , ठीक उसी तरह जैसे की प्रशंसा की शराब पिलाकर किसी को प्रसन्न होने से रोकना ।
बात चलती ही जाती है जब खिडकी से चॉंद दिखता हो और बाहर ठंडी हवा चल रही हो । आधी रात के बाद अर्धनिद्रा में बस हमें ऐसा ही लिखना अच्छा लगता है । लिखने लगती हैं तो उँगलियॉ रुकना नहीं चाहती फिर भी यह समस्या दिखावटी है , इनके चलना शुरू करने की समस्या के सामने । यदि चल भर दें तो एक पोस्ट रोज ही उतार देना कौन सी अजब बात है । पर सबको पता है ऐसा नहीं होता । जडत्व का नियम हमेशा काम करता है । और कुत्ते की पूँछ हमेशा टेढी ही रहती है , कम कम से कम कहावत और नियम तो ऐसा ही कहते हैं ।
शीर्षक पर न जाऍं क्योंकि आपको पता ही है कि शीर्षक और पोस्ट का संबंध होना ब्लॉगिंग के फैशन के खिलाफ है
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अब वह पढें जो हमने शुरु में लिखा :
सुबह-सुबह कोयल इसलिए नहीं कूक रही थी कि वह मुझे या आपको देखकर प्रसन्न हो रही थी। इसलिए भी नहीं कि वह पीछे के ब्लॉक में शराबी पति के ऊपर चीख-चीख कर चीखने, बर्तन फेंकने और चीख कर ही गाने वाली महिला को चिढा रही थी । किसी को कोयल का कूकना अच्छा लगे या खराब यह कोयल की समस्या नहीं है । कोयल आलसी नहीं है कि उसे तभी कोई काम करने की सूझे जब उस काम को करने की समय और सुविधा न हो । और जब समय और सुविधा हो तब वह आराम करे । कोयला का कूकना सुनना और उस पर सोचना किसी के लिए एक बकवास काम भी हो सकता है । क्योंकि इससे जीवन की कोई समस्या हल नहीं होती । फिर भी बकवास करने वालों, बकवास को बकवास समझने वालों या सौंदर्यबोध नाम की किसी चीज के होने का हवाला देने वालों को कोयल यह भी नहीं कहेगी कि वह इन्हें कौओं के घोंसले का तिनका भी नहीं समझती ।
गर्मी पड रही है । ऐसा भी कहना बेमतलब है कि गर्मी जानलेवा है । क्योंकि यह कोई नई बात नहीं है । फिर जहॉ गर्मी है ही, बहुत ज्यादा वहॉ तो लोग जान ही रहे हैं कि है । जहॉं कुछ राहत हो गई है , वहॉं के लोग इस हाय हाय पर ध्यान देकर अपने ठंडक को काहे गर्मायें । यदि है भी और आप कहते भी हैं, बौखलाकर, तो बात सिर्फ इतनी होगी कि हो सकता है कि कुछ लोगों के मन में उत्सुकता जागे कि सच में बाहर जाकर देखा जाय कि गर्मी कितनी है । और ऐसे बहुतायत लोगों कि तो बात ही मत उठाइये जिन्हें गर्मी से ज्यादा भूख सताती है ।
ठीक है, गर्म लहू सबकी नसों में बहता है । लेकिन वह गर्मी के हिसाब से गर्म या ठंडा नहीं होता । जब तक नसों में सिर्फ गर्म लहू बहता है, तब तक चैन की सॉंस लीजिए । क्योंकि नसों में हवा बहती नहीं रुकती है, बदन के चौराहों पर । रुकी हुई हवा जमे हुए लहू से भी ज्यादा खतरनाक होती है । तब और भी , जब बात नसों और धमनियों की हो रही हो । जमा हुआ लहू एक बार में ही निपटा देता है और रुकी हुई हवा घुटन पैदा करती है । जब तक कोई तूफान आकर उस स्थान विशेष को उसकी हवा समेत उखाड न डाले ।
लिखते-लिखते हमें कुत्ते की पूँछ क्यों याद आ जाया करती है, यह सिर्फ हमीं जानते हैं या फिर आप भी जान जायें शायद । यदि आपका दिमागी अनुकूलन कुत्ते की पूँछ को 'टेढे' शब्द से जोडता है तो यह भी जान लीजिए कि हमने सुना है कि पागल होने के बाद कुत्ते की पूँछ सीधी हो जाया करती है । लेकिन यह बात कोई भी दिमाग मजाक में भी मानना पसंद नहीं करेगा कि उसकी कोई भी समानता कुत्ते की पूँछ से की जाय ।
तो ऐसी बात जिसे कोई भी सुनना पसंद नहीं करेगा क्यों कही जाय , सिवाय इसके कि हम ऐसी बात सिर्फ सोच रहें है , कह नहीं रहे । सोचने की बात से याद आया कि कन्हई काकू अपने ब्लॉग में क्या लिखेगा । मुझे नहीं लगता कि वह कभी अपना ब्लॉग बना सकता है, क्योंकि खाली समय में गॉव की गली या चौराहे में नीली जॉघिया पहने बैठे रहने या अपनी पॉच छोटी-छोटी लडकियों में से दो को पछिबाए रहने के अलावा वह कुछ नहीं करता । इसलिए भी कि वह हमेशा उससे भी कम बोलता है, जितने में बात समझ आ जाए और उससे भी कम काम करता है जितने में काम चल जाए ।
यह बात जो मैंने काफी समय पहले बल्कि साफ-साफ कहो तो काफी सालों पहले ही महसूस और विचार दोनों ही कर ली थी कि दिल से निकलने पर भी बात का असर नहीं होता । कोई भी बात किस मेड इन की है मतलब दिल की या दिमाग की यह भी समझ में नहीं आता । बाद में हमने दिलीप कुमार की फिल्म राम और श्याम की मदद से खोज निकाला कि अभिनेता एक ही है, बस पात्र अलग हैं । दिल की गोली जब दिमाग की बंदूक से निकले तो बात का ज्यादा असर होता है । फिर भी इस सिद्धांत के याद आने की वजह एक बात है , जो हम अभी कह रहे हैं कि यह भी तो हो सकता है बात जब तक पूरे शरीर से निकलकर चलने न लगती हो असर न करती हो ।
इन सब सोची हुई बातों को भूल जाने की वजह से ही यह समझ नहीं आ रहा था कि घोर क्रांतिकारी, संवेदनात्मक और जमीन से फेविकोल के मजबूत जोड की तरह जुडी हुई रचनाऍं भी मनोरंजन भर क्यों कर रही हैं । नहीं मानते तो शेर छाप बीडी , फला ब्रांड सिगरेट या मधुशाला, जो कि निहायत ही बेहूदा नॉस्टैल्जिया है और हउली का आभिजात्य वर्गीय अपमान है, से मिलने वाली थोडी देर की राहत पकड लो । शराब को भी बडे-बडे आदर्शों , उदात्त भावों और सामाजिक समरसता और नैतिकता जैसे गुणों से जोडकर कविता करने वाले लोग गरीब को चैन से दारु भी नहीं पीने देंगे । या फिर दूसरे आदमी को इन्ही के सहारे पियक्कड बनने में मदद करेंगे ।
इन सब मनोरंजनों , मानसिक राहत देने वाली सामग्रियों और इनका बेशर्मी से प्रयोग करने वाले लोगों और सिर्फ इसी तरह का प्रभाव छोडने वाली कुछ हवाई बातों की तुलना मैं क्यों कर करुं । फिर भी कवि, लेखक या आभासी क्रांतिकारी क्रास प्रश्न कर ही सकता है कि एक शराबी को शराब पिलाकर बोलने की आजादी न देना उसके मूल अधिकारों के खिलाफ है , ठीक उसी तरह जैसे की प्रशंसा की शराब पिलाकर किसी को प्रसन्न होने से रोकना ।
बात चलती ही जाती है जब खिडकी से चॉंद दिखता हो और बाहर ठंडी हवा चल रही हो । आधी रात के बाद अर्धनिद्रा में बस हमें ऐसा ही लिखना अच्छा लगता है । लिखने लगती हैं तो उँगलियॉ रुकना नहीं चाहती फिर भी यह समस्या दिखावटी है , इनके चलना शुरू करने की समस्या के सामने । यदि चल भर दें तो एक पोस्ट रोज ही उतार देना कौन सी अजब बात है । पर सबको पता है ऐसा नहीं होता । जडत्व का नियम हमेशा काम करता है । और कुत्ते की पूँछ हमेशा टेढी ही रहती है , कम कम से कम कहावत और नियम तो ऐसा ही कहते हैं ।
वर्गीकरण और व्याख्या दोनों ही मनोरंजक !
ReplyDeleteEk shabd yaad aa gaya aapki post padhte samay..'Anant yaatra'!:)
ReplyDeleteमुद्दा और मुद्दई दोनों खुद ही....बहुत बढिया आत्मचिन्तन है.
ReplyDeleteवाह!क्या बात है !
ReplyDeleteजब भी अनौपचारिक पर आती हूं एक नया अनुभव प्राप्त होता है,
सदैव लेखन का एक नया अंदाज़ देखने को मिलता है
;;)
ReplyDeleteYou seem to roam in a whirlpool of emptiness or vacuum because you have got enough time to direct your sixth, seventh and even the eight sense towards nothing and many things. A literary piece of multi-directional and uneven flow.
ReplyDeleteSorry, you just forced me to comment.
झन्नाटेदार पोस्ट..पढ़ने मे मेहनत करनी पड़ी..और दिमाग चकरा गया...कई परिभाषाएं आपस मे गड़मड़ हो गयी..शराब मे बर्फ़ की तरह..सो इस उलझन की बर्फ़ पिघलने तक इंतजार करना पड़ेगा..तब कर इसे दोबारा पढ़ता हूँ..शायद नसों मे रुकी हवा को कोई बहाव मिले..
ReplyDeleteआपकी इस रचना को पढ़कर 'वसंत की एक दोपहरी' याद आ गई; वर्षो पहले पढ़ी थी और सोचता रह गया था कि इसे साहित्य कि किस विधा का समझूं ? इतना तय है, और ये पहले भी लिख चूका हूँ, कि आपके इस गद्य में 'चीड़ों पर चांदनी' और 'इल्लियाँ' दोनों हैं !
ReplyDeleteअपूर्वाजी कि टिपण्णी प्रभावित करती है !! लिखते रहिये कि रूह को सुकून मिले और नसों में रक्त बहे, हवा न भरे !!
सप्रीत--आ.