June 16, 2010

बीते कुछ दिनों से लिए गए नोट्स

बादल हैं। धूप-छॉंह चल रही है। सुबह ज्‍यादा थे अब सघनता कम हो गई है । धूप निकल रही है । चार-पॉंच दिन की उमस भरी तेज गर्मी के बाद कल सुबह बारिश हो गई थी । तब से बादल छाए हुए हैं । शायद वे आसमान, चिलमिलाती धूप को सौंपकर फिर कुछ दिनों के लिए चले जाऍं ।

शीर्षक का नाम यही रखा। पाठकों को आकर्षित करने के लिए उत्‍सुकता जगाने वाला शीर्षक मुझे ठीक नहीं लगा। यह धोखा है। जैसे आम का लालच देकर कच्‍ची इमली थमा देना या प्रीति भोज का निमंत्रण देकर सिर्फ चाय पिलाकर विदा कर देना। बढिया पैकिंग में घटिया माल की तरह या लोकल माल में ब्रांडेड चिट की तरह। इस पोस्‍ट को शुरू करते-करते एक और पोस्‍ट कुलबुलाने लगी । सराहना या प्रशंसा के बारे में लिखने को। उसको अभी दिमाग में सेव कर लिए हैं। जो वाइरसों से बच गई तो रूप लेगी।



पिछले दिनों भोपाल गैस कांड पर फैसला आने के बाद यह मामला काफी चर्चित हुआ । मीडिया ने इसे अच्‍छा कवरेज दिया । ब्‍लाग जगत में भी काफी ब्‍लॉग पोस्‍टें लिखी गईं । बीबीसी पर सुनीता नारायण के साथ हुई यह बातचीत सुनने लायक है । इसमें दोषियों के सजा दिलाने के साथ-साथ कार्बाइड संयंत्र में मौजूद घातक रसायनों को हटाने पर भी शोधपरक चर्चा की गई है । विषैले रासायनिक तत्‍व आज भी उस फैक्‍ट्री में मौजूद है और उस क्षेत्र के मिट्टी और जल में मिलकर उन्‍हें प्रदूषित कर रहे हैं ।

इस विषय में आज टाइम्‍स में जग सुरैया का लेख पढा 'टू मेनी भोपाल्‍स"।
इस देश में पता नहीं कितने छोटे-बडे भोपाल हो चुके। रोज कितने हो रहे हैं, कुछ हिसाब नहीं है। प्रणाली, जिसके कर्णधार राजनेता और नौकरशाह हैं की असंवेदनशीलता देश की नियति जैसी हो गई है। लिखते हैं कि जब राजनीतिक महकमों में दोषारोपण का खेल खेला जा रहा था कि गैस त्रासदी के बाद एंडरसन को किसने भाग जाने दिया । उसी समय राजधानी की सडक पर किसी वाहन के ठोकर मार कर भाग जाने से एक 11 साल का लडका अपने 8 साल के भाई को ज्‍यादा खून बह जाने की वजह से मरते हुए देख रहा था । जिसे वहीं पर खडे दो कांस्‍टेबलों ने यह कर अस्‍पताल ले जाने से इंकार कर दिया कि यह तो अस्‍पताल पहँचते-पहुँचते मर ही जायेगा । जब वहीं से गुजर रहे एक मजिस्‍ट्रेट ने कांस्‍टेबलों से लडके को अस्‍पताल पहुँचाने के लिए कहा तो एक ने घायल लडके की बॉंह पकडकर हिलाते हुए बताया कि देखो यह तो मर चुका है।

बाद में मजिस्‍ट्रेट ने कांस्‍टेबल के खिलाफ दर्ज शिकायत में लिखा है कि जब उसने कांस्‍टेबल से कहा कि तुम लोग पीडित की चिकित्‍सकीय स्थिति के बारे में कुछ कह सकने के याग्‍य नहीं हो तो उन्‍होंने मुझे गाली दी । इतने समय में उसे अस्‍पताल पहुँचाया जा सकता था । बाद में पुलिस हेल्‍पलाइन को फोन करके बुलाने तक वह मर चुका था ।

जिंदगी सस्‍ती है। भयावह स्थिति यह है कि इस तरह की घटनाऍं बहुत आम हैं । कितने एंडरसन देश में ही बैठे हैं । उनका तो कुछ होता नहीं । शायद देश के बाहर भाग गया एंडरसन ही पकड में आ जाए । इस लेख में पंजाब की ऊसर होती जमीन और पानी में साइनाइ, आर्सेनिक, नाइट्रेट्स की बढती मात्रा ने रासायनिक और औद्योगिक प्रदूषण को इस कदर बढा दिया है कि एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि वहॉं पर्यावरणीय संकट पैदा हो गया है । इन सब की दोषी वे सरकारे हैं जिन्‍होंने पर्यावरण मानकों को ताक में रखकर उद्योग लगाने की अनुमति दी और जानबूझकर इन सब दुष्‍प्रभावों से ऑंखें मूँदे रहे।

इसलिए प्रश्‍न यह है कि यदि भोपाल के लिए एंडरसन को पकडा जाना जरूरी है तो पंजाब को उसकी स्थिति तक पहुँचाने के लिए दोषी लोगों को पकडना जरूरी क्‍यों नहीं है। यही स्थिति विदेशी सहायता से चलने वाली हर परियोजना की है।
सिंदूर और नंदीग्राम कैसे पैदा होते हैं। मासूम आदिवासी नक्‍सलाइट कैसे बन जाते हैं । हजारों विस्‍थापित समूह अपनी जडों से कटने और उचित जगह दूसरा ठिकाना-जीविकोपार्जन न मिलने पर अ‍ाखिरकार क्‍या करेंगे । यह सब किसी विचाराधारा ने पैदा नहीं किए हैं बल्कि विकास के नाम पर मानवीय जीवन के कमतर मूल्‍यांकन ने किए हैं ।
______________________________

पिछले दिनों फिल्‍म राजनीति देखी।
लेकिन कहीं भी ब्‍लॉग या कमेंट में इस विषय पर मुँह नहीं खोला। प्रकाश झा की गंगाजल, मृत्‍युदंड जैसी फिल्‍मों को याद करके देखने गए थे। लेकिन राजनीति सिर्फ एक मसाला फिल्‍म बनकर रह गई। केवल मनोरंजन। हॉं मनोरंजन अच्‍छा हुआ। कुछ सोचने पर मजबूर नहीं कर सकी। बिल्‍कुल अतिरंजित। सितारों का जमघट और ओवर एक्टिंग। मनोज वाजपेयी भी सहज नहीं लगे। साथ्‍ा ही सामंतवाद के प्रेत की छाया भी निर्देशक के ऊपर पडी दिखी । दलित नेता भी आखिरकार सवर्ण का खून ही निकला । वही पुराना रोग। पता नहीं कब से अचेतन को कब्‍जाए हुए। हमें लगा था कि भारत की कुछ जमीनी राजनीति को दिखायेंगे। इसलिए देखने गए थे। दर्शकों के साथ राजनीति खेल गए।

लेकिन फिल्‍म देखने के लिए जिस मित्र को जुगाडकर हम साथ ले गए। वह भी हमारी नजर में अजूबा ही निकला। उसने सनीमा हाल के बाहर शो छूटने के इंतजार में बातों के दौरान बताया कि उसने कभी टॉकीज नहीं देखी है। 27-28 साल के बीएएमए पास नौकरीग्रस्‍त युवक को ऐसी अशोभनीय बात करने की वजह से हमें उसके चेहरे को फिर से गौर से देखना पडा। साथ ही उसके इस पिछडेपन पर मजाकी लानत भेजते हुए कहना पडा कि तूने मेरा नाम पूरा मिट्टी में मिला दिया। वह सफाई देने लगा कि वह डीवीडी में देख लेता है इत्‍यादि। लेकिन हमारा अजूबा किसी भी तरह कम नहीं हुआ। और हम उसे एक नमूने के रूप में देखते रहे। बाद में वह तर्क करने लगा कि फर्क क्‍या होता है। दिखता तो वही है। इस पर हमें उसके ऊपर तरस आया। वह कल्‍पना नहीं कर सकता था कि पर्दा इतना बडा हो सकता है। और भी कई तरह के प्रश्‍न करने लगा। हमने कुछ समझाने की बजाय सिर्फ यह कहकर कि देखोगे तब समझ में आएगा अपने गुस्‍से को जज्‍ब कर लिए और उसकी घोंचू प्रवृत्ति को धिक्‍कारते हुए हाल मे सिधार गए।

अब बहुत हो गया बस्‍स । ब्‍लॉगिंग वालों को कितना भी टाइम कम पडेगा। अब तो फेसबुक भी है । बाद में भले ही अन्‍य जरुरी काम चलताऊ अंदाज में निपटाने पडें । इसलिए हम अब निकल लेते हैं, गली कैसी भी हो चलेगी।

12 comments:

  1. Yah comment hai,aalekh ke poorwaardh ko madde nazar rakh..is samvedan heen sthiti ko ham sabhi zimmedaar hain...jo beej boye,usee kee fasal hai...raste pe aur bhi log honge,kya wo nahi le ja sakte the,us ladke ko asptaal? Magistrate ke paas to car avashy hogi( jo constable ke paas nahi hoti),to wo kyon apni car me use nahi le gaye?Doosaron kee or ungli uthana asaan hai..mai swayam,apghat grast ko apnee gaadee me daal asptaal le gayi hun.
    Naukarshah aur rajneta,hamare samaj ki upaj hain..hamari hi maa bahnon ke jaye,to unpe koyi pariwarik sanskar nahi hue?
    Kshama karen,tippanee zyadahi lambi ho gayi..

    ReplyDelete
  2. sanvedansheel muddon par bahut achchha likhate ho aur bahut sahajtapoorvak bhee
    lekin
    kshama jee kee baaton se kisee had taak main bhee sahamat hoon ,ham raaste par khadee bheed ko dekh lar aage badh jaate hain ye dekhe bina ki is bheed men phansa hua vyakti kisi pareshaanee men to naheen ,ho sakta hai ki wahan koee hamara apana ho ,lekin "kaun pade pareshaanee men "ye hamaaree dhaarana hotee hai.

    ReplyDelete
  3. अच्छा लिखा है ! आजकल काफी बीजी दीखते हो अर्कजेश जी, ब्लॉग पर शायद कम ही उपस्थिति है !

    ReplyDelete
  4. वैसे एक ओर कमाल की बात है ....के विकिपीडिया पर ओर ढेरो सामग्री उपलध है .के प्लांट में क्या क्या कमिया थी..क्या क्या सावधानी बरतने को कहा गया ...क्या कहाँ उनकी सुनवाई नहीं हुई.पहले हुई दुर्घटनाओ को नज़रअंदाज किया गया .....यानी एक सिलेवार घटनाएं थी जिन्होंने अपने होने से पहले कई चेतावनिया दी थी...

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  6. बहुत बढ़िया और शानदार post.....

    ReplyDelete
  7. अब ऐसा ही चलन है कि एक पर सबका ध्यान केन्द्रित करा दो ताकि बाकी सब भूल जायें ।
    राजनीति के बहाने मित्र की चर्चा अच्छी लगी ..फिल्म के बारे मे अपनी भी यही राय है ।

    ReplyDelete
  8. सम्वेदनशील मुद्दों को झेलने की इतनी आदत हो गई है, कि अब कोई मुद्दा झकझोरता ही नहीं.
    राजनीति फ़िल्म और मित्र की चर्चा रोचक है.

    ReplyDelete
  9. shaandaar post, kya kahne.
    http://udbhavna.blogspot.com/

    ReplyDelete
  10. गलत बात है..स्टार्टर के पैसे मे पूरा डिनर खिला दिया..खैर जरूरी बातों को गैरसिलसिलेवार तरीके से रखने का अंदाज अच्छा लगा..भोपाल के बारे मे काफ़ी कुछ कहा जा चुका है..मगर फिर भी तमाम सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं..मैं मानता हूँ कि द्दुर्घटना के लिये यूनियन कार्बाइड या डाउ केमिकल्स से भी ज्यादा कुसूरवार प्रदेश और देश की सरकार थी और है...सवाल यह भी है कि क्या हम अगले भोपाल की प्रस्तावना तो नही लिख रहे..इतिहास अपने सबक न सीखने वालों को दोबारा सबक दोहराने का मौका नही देता..

    ReplyDelete
  11. आपकी बेलौस प्रस्तुति अच्छी लगती है।
    ---------
    क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
    अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

    ReplyDelete

नेकी कर दरिया में डाल