July 17, 2009

साहित्य, कला, आलोचक, आलोचना इत्यादि और लेंस |

चलिये आज आलोचक की ही आलोचना कर डालते हैंदूसरों का छिद्रान्वेषण कराने वाले के छिलके उतारना चाहिए | दिखाने वाले को ही देख लेते हैं ।

जैसे साहित्य या कला समाज को देखने के लिये सूक्ष्मदर्शी का काम करती है, वैसे ही आलोचक-समालोचक साहित्य-कला का सूक्ष्मदर्शी है | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है । बिल्कुल है लेकिन यह सभी घरों में पाया जाने वाला कोई आम दर्पण नहीं है, जिसमें आपका चेहरा ज्यों का त्यों दिखता है । यह दर्पण कैसा भी हो सकता है, रचनाकार जैसा चाहे आपके लिये दर्पण बना दे । जिसमें चीजें आडी, तिरछी, लम्बी, नाटी, मोटी, भोंडी, विकॄत कुछ भी दिख सकती हैं । यही काम भी है कलाकाओं या रचनाकारों का । यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना । चीजों को बडा करके दिखाना, जिससे हम वह भी देख सकें, जिसे हम सामान्यतः नहीं देख पाते ।

इसीलिये कला को 'लार्जर दैन लाइफ़' कहा गया है । सूक्षमदर्शी लेन्सों का संय़ोजन ही तो है । लेन्स जितने शक्तिशाली होंगे, उतना ही बरीक से बारीक चीजों को दिखा सकेंगे ।

साहित्य और कला से गुजरकर हम वह भी देख और सुन पाते हैं, जो हम अपने व्यवहारिक जीवन में ख्याल में नहीं आतीं बल्कि यहां तक कह सकते हैं कि होते हुए भी दिखाई नहीं देतीं । अर्थात साहित्य और कला हमारी अनुभूति की तीव्रता को बढ़ा देती हैं

इस तरह यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना पडता है । साहित्य-कला हमारी आंखों में उंगली डाल कर दिखा देते हैं , कि यह है ।

उदाहरण के लिये पालक और धनिया खेतों में लगी हुई हमने पहले भी कई बार देखी थीं, लेकिन जब हमने कविता "लह लह पालक, मह मह धनिया पढी" तो उसके बाद धनिया की महक और पालक की लहलाहाहट और बढ गई । ऐसा ही सभी चीजों में समझना चाहिये । कला और साहित्य हमारा ध्यान उन चीजों की ओर आकॄष्ट कराते हैं, जिन्हें हम रोज देखते हैं , फ़िर भी नहीं देख पाते । जैसे 'रूपहला धुंआ' पढने के पहले जल प्रपात सिर्फ़ चचाई का कूंडा था भर जो कि , अपने शहर के बीस-पच्चीस किलोमीटर पर है । पाठ्यपुस्तक में एक पाठ 'रुपहला धुआं' जिसमें चचाई का वर्णन है, पढने के बाद जब देखा तो और भी अद्भुत लगा ।

ये तो हुआ साहित्य । जो समाज का चरित्र दिखाता है । फ़िर साहित्य में ही साहित्य की माप तौल करने के लिये ही आलोचक होता है ।

आलोचक-समालोचक गुण-दोष की परख करता है । किसी रचना को हल्का या वजनी कर सकता है । आलोचक को तटस्थ रूप से अपनी बात रखने का प्रयास करना चाहिये । किंतु उसके भी अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसन्द-नापासन्द होती है । चाहे या अन्चाहे अच्छे या बुरे इरादे हो सकते हैं । वैसे साहित्य का मापदंड लोकप्रियता भी होती है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे रेटिंग कहते हैं ।

आलोचक-समालोचक गुण और दोष दोनों की परख करता है ।आलोचक को तटस्थ होना चाहिये । किन्तु आलोचक के अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसंद-नापसंद होती है । चाहे या अनचाहे अच्छे या दूषित इरादे हो सकते हैं ।

पाठक को सबसे ज्यादा सावधान और सजग रहने की जरूरत होती है, किसी रचना की आलोचना पढते समय । किसी की निंदा सुनते समय भी । पाठक के लिये सबसे बढकर निजी पसंद या नापसंद होती है ।

कभी-कभी थोड़ी सी बात कहने के लिए बहुत बड़ी भूमिका बांधनी पड़ती है | मैंने भी यहां पर यही किया |
किसी रचना को उसकी प्रसिद्धि या लेखक के प्रभाव में आकर नहीं पढना चाहिये । इस तरह का नजरिया रखने से अप्रसिद्ध रचनाओं को भी महत्व देते हुए, गम्भीरता से पढकर उनका आकलन कर सकते हैं ।

बडे आलोचकों द्वारा लेखन बनाए और मिटाए जाते हैं । रचनाओं को महत्व्पूर्ण और महत्वहीन बनाया जाता है । उन्हें क्रम में ऊपर और नीचे रखा जाता है | आलोचक प्रवृत्तियों का माहौल बनाते हैं | उन्हें चलन में ला सकते हैं, चलन से बाहर कर सकते हैं |

असफ़ल प्रेमी प्रेम के महाकाव्य लिखते हैं, असफ़ल खिलाडी अकसर अच्छे कोच साबित होते हैं । अब इसे आप जीवन की विडम्बना कहिये या क्षतिपूर्ति , उबाऊ या असफल लेखक अकसर बड़े आलोचक बन जाते हैं |

तो जब भी आलोचनात्मक रचनाएँ पढें तो अपनी दिमाग का पैराशूट जरूर खोले रखें |

2 comments:

  1. भाई,
    बहुत अच्छे ! आपने तो सचमुच छिलके उतार दिए. आलोचनाएँ दिमाग की खिड़कियाँ खोलकर ही पढता रहा हूँ, अब पाराशूट भी खोलकर पढूंगा. धारदार भाषा में बेलाग और बेलौस बातें लिख डालने के सहस को मेरा सलाम ! साथ में बधाई भी लें ! --आ.

    ReplyDelete

नेकी कर दरिया में डाल