प्रश्न,
दो तरह के होते हैं,
एक - सिर्फ़ प्रश्न होते हैं,
सामान्य पूछ-ताछ के,
जैसे सब्जी के भाव पूछना, हालचाल,
गणित के इबारती सवाल
या बच्चों की जिज्ञासा
जिन्हें हम टरका देते हैं
सच्ची-झूठी कहानियों से,
बहला देते हैं बचपन को,
उत्तर पाने के लिए जीवन से
दो - प्रश्न जो लिए हुए होते हैं,
एक प्रश्न चिन्ह अपने पीछे,
स्थाई भाव की तरह,
अटल होते हैं
दुर्भाग्य रेखाओं,
या ध्रुव तारे की तरह
जैसे किसी बेरोजगार से पूछना
'क्या कर रहे हो आजकल'
किसी लाइलाज रोगी से
हाल चाल पूछना 'कैसी तबियत है' ?
या शादी के तय करने के बाद
माता -पिता द्वारा
पूछना -'लड़का पसंद हैं ना' ?
ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं
जो निर्मित करते हैं,
प्रश्न चिन्ह इंसान के दामन पर
कभी-कभी इतने बेमानी होते हैं ये प्रश्न चिन्ह,
की भर देते हैं खीझ और उलझन दिलोदिमाग में
जैसे पैदा हो गए हों एकदम बेमानी,
सिर्फ़ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए
प्रश्न चिन्ह,
अस्तित्व रखते हैं, प्रश्न के हट जाने पर भी
उपहास करते हुए
उत्तर देने वाले का
प्रश्न चिन्ह,
किसी प्रश्न के पीछे लगने वाला,
संकेतक मात्र नहीं है
एक अनुत्तरित प्रश्न,
देता है एक,
अवांछित प्रश्न चिन्ह,
जो
बना देता है एक प्रश्न,
अपने सामने पड़ने वाले
व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को,
जिसे न हटा पाने की सूरत में
वह रह जाता है,
सिर्फ़ एक प्रश्न चिन्ह ?
July 31, 2009
July 23, 2009
बाल गंगाधर तिलक एवं चंद्रशेखर आजाद
जी नही, मैं इन दो महान व्यक्तितों में कोई तुलना नहीं करने जा रहा | तुलना ना की जा सकती है, ना ही करनी उचित है, क्योंकि वह असंगत होगी | बल्कि बात सिर्फ़ इतनी है कि आज 23 जुलाई है, और बाल गंगाधर तिलक (23 जुलाई, 1856 - १ अगस्त १९२०) और चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) का जन्म दिवस भी । मेरा यह ब्लॉग पोस्ट इन महान सपूतों को याद करने का एक बहाना है ।
तिलक के बारे में वेलेंटाइन शिरोल ने कहा था कि "वे भारत में अशांति के जन्मदाता थे ।" यह कथन उन पर पूर्णतः सही उतरता है क्योंकि 'तिलक' भारतीय असन्तोष के वास्तविक जनक थे । तिलक कांग्रेस के ’गरम दल’ के नेताओं में से थे और उनका मानना थ कि आजादी हमें मांगने से नहीं मिलेगी बल्कि इसे हमें लडकर हासिल करना पडेगा ।
"स्वतन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा ।"
वे राज्द्रोह के सबसे खतरनाक अग्रदूतों में से थे । 'गीता रहस्य' तथा 'आर्कटिक होम ऑफ़ वेदाज' इनकी प्रसिद्ध पुस्तके हैं, जो लोकमान्य तिलक ने जेल में लिखी थीं | वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे | और पुस्तकें उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाए गए जुर्माने की भरपाई के लिए लिखी थीं |
तिलक के बचपन का प्रसंग है कि जब उनके शिक्षक ने उनसे उन मूंगफली के छिलकों को बीनने का आदेश दिया जो कक्षा में अन्य छात्रों ने फैलाये थे तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया - "जब मैंने छिलके नहीं फैलाए तो मैं उन्हें क्यों बीनूं | " इस पर शिक्षक द्वारा दी गयी सजा भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली, लेकिन अपनी बात पर अडिग रहे | बाद में शिक्षक को असलियत का पता चला तो उन्हें अपने किए पर दुःख हुआ | इस तरह लोकमान्य तिलक में बचपन से ही अन्याय को किसी भी तरह बर्दाश्त न करने की अटल प्रवृत्ति थी |
नरमपंथी नेताओं के विपरीत तिलक का यह दृढ़ विश्वास था कि अंग्रज भारत को कभी भी अपनी स्वेच्छा से स्वतंत्र नहीं करेंगे | महाराष्ट में व्यापक स्तर पर मनाया जाने वाले गणेश उत्सव की शुरुआत तिलक ने ही जनता में राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए की थी |
चंद्रशेखर आजाद अपने क्रांतिकारी साथियों के बीच पंडित जी के संबोधन से लोकप्रिय थे | भगत सिंह हमेशा उन्हें पंडिंत जी कहकर संबोधित करते थे | क्रांतिकारियों को संगठित करने, योजनाओं को अंजाम देने में उनका महत्वपूर्ण योगदान होता था | हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपुब्लिकन आर्मी के लगभग सभी षडयंत्रों जैसे काकोरी काण्ड, सांडर्स की ह्त्या आदि में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी थी |
आजाद को बचपन से ही अपने देश की गुलामी का एहसास था और वे देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे | हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपुब्लिकन आर्मी में शामिल होने से पहले वे गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेते थे | लेकिन गांधी जी के द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने के बाद उनका अहिंसक आन्दोलन से मोहभंग हो गया और वे क्रांतिकारी तरीके से देश को आजाद कराने में जुट गए |
आजाद अपने नाम के अनुरूप हमेशा आजाद ही रहे और कभी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका |
चंद्रशेखर आजाद का उपनाम आजाद कैसे पडा इसकी भी एक कहानी है | हुआ यूँ कि असहयोग आन्दोलन के प्रदर्शन कारियों पर निर्ममता से डंडे बरसाने वाले दरोगा पर तेरह साल के दुस्साहसी बालक चंद्रशेखर ने पत्थर बरसा कर उसका सिर फोड़ दिया | इस अपराध में उन्हें अदालत में जब न्यायाधीश के सामने पेश किया गया | नाम पूछे जाने पर उन्होंने अपना नाम "आजाद", पिता का नाम "स्वतंत्र" और घर का पता जेल खाना बताया | इस पर जज ने उन्हें नंगी पीठ पर बीस कोडे मारने की सख्त सजा सुनाई | यह सजा उन्होंने वीरता पूर्वक "भारत माता की जय" बोलते हुए सहन कर ली | तब से "चंद्रशेखर" आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए |
चद्रशेखर आजाद वेश बदलने में बहुत निपुण थे | एक बार तो वे उसी दरोगा के यहाँ घर में वेश बदलकर नौकर बनाकर रह रहे थे, जो उन्हें खोज रहा था |
आजाद के क्रांतिकारी जीवन से सम्बंधित एक और प्रसंग मैंने बहुत पहले पढ़ा था | आजाद और उनके साथी किराए से एक छोटा सा कमरा लेकर रह रहे थे | उनके घर के बगल में ही एक आदमी रहता था जो रोज रात को शराब पीकर आता और बेवजह अपनी पत्नी को मोहल्ले में घसीट-घसीट कर पीटता | आस-पड़ोस का कोई भी आदमी उसे रोकने का साहस नहीं कर पाता था | आजाद और उनके साथी प्रायः बाहर रहते और कमरे में देर रात तक जागते थे, साथ ही अपनी गोपनीयत भंग होने के डर से उसे नजरअंदाज कर रहे थे |
एक दिन सबेरे सबेर आजाद कमरे से बाहर निकलकर कहीं जा रहे थे, तभी सामने उनका पड़ोसी मिल गया | उसने आजाद से कहा आप लोग क्या देर रात तक कमरे में कुछ ठोंका-पीटी करते रहते हैं | आजाद ने कहा कि हम तो किसी मशीन के साथ ठोंका पेटी कर रहे थे और तुम तो अपनी गउ जैसी पत्नी को बेरहमी से पीटते हो | तुम्हे शर्म आनी चाहिए | इतना सुनते ही वह तैश में आ गया और चिल्लाते हुए बोला - तू कौन होता है साले मेरे मामले में दखल देने वाला | आजाद ने उसे एक भारी झापड़ रसीद किया तो वह धूल-चाटने लगा | साथ ही उन्होंने उसे चेतावनी देते हुए कहा कि तुमने मुझे साला कहा है, इस तरह तेरे पत्नी मेरी बहन हुई | आज के बाद यदि तूने मेरी बहन पर हाथ उठाया तो तेरी हड्डी-पसली तोड़कर रख दूँगा | उस दिन के बाद आजाद उसे मजाक में जीजा कहने लगे और वह उस आदमी को भी अपनी गलती का एहसास हो गया | फ़िर कभी वह अपनी पत्नी पर हाथ उठाते हुए नही देखा गया |
अपने ही एक साथी के विश्वासघात की वजह से वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस द्वारा घेर लिए गए और वीरता पूर्वक लड़ते हुए, अन्तिम गोली से ख़ुद को आजाद कर लिया | पुलिस में आजाद का खौफ इस कदर था की
उनके मृत शरीर पर भी उन्होंने गोलियाँ चलाईं कि कहीं वे जिंदा न हों | इस तरह थे चन्द्रशेखर आजाद |
स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का प्रभाव और महत्व उनके द्वारा प्रत्यक्षतः पायी गयी सफलताओं से बढ़कर है | यद्यपि सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियाँ "आजाद" के बाद लगभग समाप्त हो गयी थीं, किंतु इन क्रांतिकारियों ने भारतीय युवकों के मन-मानस में साहस का जो संचार किया, उसीने आगे चलकर भारतीय ह्रदय में स्वतंत्रता की तड़प पैदा की |
व्यक्ति का आकलन हमेशा उसकी परिस्थितियों के संदर्भ में करना चाहिए |
(कृपया ध्यान दें कि नाम के ऊपर दी गयी लिन्क विकिपीडिया से हैं और यहाँ पर इनके जीवन से सम्बंधित समस्त जानकारी उपलब्ध हैं |)
तिलक के बारे में वेलेंटाइन शिरोल ने कहा था कि "वे भारत में अशांति के जन्मदाता थे ।" यह कथन उन पर पूर्णतः सही उतरता है क्योंकि 'तिलक' भारतीय असन्तोष के वास्तविक जनक थे । तिलक कांग्रेस के ’गरम दल’ के नेताओं में से थे और उनका मानना थ कि आजादी हमें मांगने से नहीं मिलेगी बल्कि इसे हमें लडकर हासिल करना पडेगा ।
"स्वतन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा ।"
वे राज्द्रोह के सबसे खतरनाक अग्रदूतों में से थे । 'गीता रहस्य' तथा 'आर्कटिक होम ऑफ़ वेदाज' इनकी प्रसिद्ध पुस्तके हैं, जो लोकमान्य तिलक ने जेल में लिखी थीं | वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे | और पुस्तकें उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाए गए जुर्माने की भरपाई के लिए लिखी थीं |
तिलक के बचपन का प्रसंग है कि जब उनके शिक्षक ने उनसे उन मूंगफली के छिलकों को बीनने का आदेश दिया जो कक्षा में अन्य छात्रों ने फैलाये थे तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया - "जब मैंने छिलके नहीं फैलाए तो मैं उन्हें क्यों बीनूं | " इस पर शिक्षक द्वारा दी गयी सजा भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली, लेकिन अपनी बात पर अडिग रहे | बाद में शिक्षक को असलियत का पता चला तो उन्हें अपने किए पर दुःख हुआ | इस तरह लोकमान्य तिलक में बचपन से ही अन्याय को किसी भी तरह बर्दाश्त न करने की अटल प्रवृत्ति थी |
नरमपंथी नेताओं के विपरीत तिलक का यह दृढ़ विश्वास था कि अंग्रज भारत को कभी भी अपनी स्वेच्छा से स्वतंत्र नहीं करेंगे | महाराष्ट में व्यापक स्तर पर मनाया जाने वाले गणेश उत्सव की शुरुआत तिलक ने ही जनता में राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए की थी |
चंद्रशेखर आजाद अपने क्रांतिकारी साथियों के बीच पंडित जी के संबोधन से लोकप्रिय थे | भगत सिंह हमेशा उन्हें पंडिंत जी कहकर संबोधित करते थे | क्रांतिकारियों को संगठित करने, योजनाओं को अंजाम देने में उनका महत्वपूर्ण योगदान होता था | हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपुब्लिकन आर्मी के लगभग सभी षडयंत्रों जैसे काकोरी काण्ड, सांडर्स की ह्त्या आदि में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी थी |
आजाद को बचपन से ही अपने देश की गुलामी का एहसास था और वे देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे | हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपुब्लिकन आर्मी में शामिल होने से पहले वे गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेते थे | लेकिन गांधी जी के द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने के बाद उनका अहिंसक आन्दोलन से मोहभंग हो गया और वे क्रांतिकारी तरीके से देश को आजाद कराने में जुट गए |
आजाद अपने नाम के अनुरूप हमेशा आजाद ही रहे और कभी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका |
चंद्रशेखर आजाद का उपनाम आजाद कैसे पडा इसकी भी एक कहानी है | हुआ यूँ कि असहयोग आन्दोलन के प्रदर्शन कारियों पर निर्ममता से डंडे बरसाने वाले दरोगा पर तेरह साल के दुस्साहसी बालक चंद्रशेखर ने पत्थर बरसा कर उसका सिर फोड़ दिया | इस अपराध में उन्हें अदालत में जब न्यायाधीश के सामने पेश किया गया | नाम पूछे जाने पर उन्होंने अपना नाम "आजाद", पिता का नाम "स्वतंत्र" और घर का पता जेल खाना बताया | इस पर जज ने उन्हें नंगी पीठ पर बीस कोडे मारने की सख्त सजा सुनाई | यह सजा उन्होंने वीरता पूर्वक "भारत माता की जय" बोलते हुए सहन कर ली | तब से "चंद्रशेखर" आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए |
चद्रशेखर आजाद वेश बदलने में बहुत निपुण थे | एक बार तो वे उसी दरोगा के यहाँ घर में वेश बदलकर नौकर बनाकर रह रहे थे, जो उन्हें खोज रहा था |
आजाद के क्रांतिकारी जीवन से सम्बंधित एक और प्रसंग मैंने बहुत पहले पढ़ा था | आजाद और उनके साथी किराए से एक छोटा सा कमरा लेकर रह रहे थे | उनके घर के बगल में ही एक आदमी रहता था जो रोज रात को शराब पीकर आता और बेवजह अपनी पत्नी को मोहल्ले में घसीट-घसीट कर पीटता | आस-पड़ोस का कोई भी आदमी उसे रोकने का साहस नहीं कर पाता था | आजाद और उनके साथी प्रायः बाहर रहते और कमरे में देर रात तक जागते थे, साथ ही अपनी गोपनीयत भंग होने के डर से उसे नजरअंदाज कर रहे थे |
एक दिन सबेरे सबेर आजाद कमरे से बाहर निकलकर कहीं जा रहे थे, तभी सामने उनका पड़ोसी मिल गया | उसने आजाद से कहा आप लोग क्या देर रात तक कमरे में कुछ ठोंका-पीटी करते रहते हैं | आजाद ने कहा कि हम तो किसी मशीन के साथ ठोंका पेटी कर रहे थे और तुम तो अपनी गउ जैसी पत्नी को बेरहमी से पीटते हो | तुम्हे शर्म आनी चाहिए | इतना सुनते ही वह तैश में आ गया और चिल्लाते हुए बोला - तू कौन होता है साले मेरे मामले में दखल देने वाला | आजाद ने उसे एक भारी झापड़ रसीद किया तो वह धूल-चाटने लगा | साथ ही उन्होंने उसे चेतावनी देते हुए कहा कि तुमने मुझे साला कहा है, इस तरह तेरे पत्नी मेरी बहन हुई | आज के बाद यदि तूने मेरी बहन पर हाथ उठाया तो तेरी हड्डी-पसली तोड़कर रख दूँगा | उस दिन के बाद आजाद उसे मजाक में जीजा कहने लगे और वह उस आदमी को भी अपनी गलती का एहसास हो गया | फ़िर कभी वह अपनी पत्नी पर हाथ उठाते हुए नही देखा गया |
अपने ही एक साथी के विश्वासघात की वजह से वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस द्वारा घेर लिए गए और वीरता पूर्वक लड़ते हुए, अन्तिम गोली से ख़ुद को आजाद कर लिया | पुलिस में आजाद का खौफ इस कदर था की
उनके मृत शरीर पर भी उन्होंने गोलियाँ चलाईं कि कहीं वे जिंदा न हों | इस तरह थे चन्द्रशेखर आजाद |
स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का प्रभाव और महत्व उनके द्वारा प्रत्यक्षतः पायी गयी सफलताओं से बढ़कर है | यद्यपि सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियाँ "आजाद" के बाद लगभग समाप्त हो गयी थीं, किंतु इन क्रांतिकारियों ने भारतीय युवकों के मन-मानस में साहस का जो संचार किया, उसीने आगे चलकर भारतीय ह्रदय में स्वतंत्रता की तड़प पैदा की |
व्यक्ति का आकलन हमेशा उसकी परिस्थितियों के संदर्भ में करना चाहिए |
(कृपया ध्यान दें कि नाम के ऊपर दी गयी लिन्क विकिपीडिया से हैं और यहाँ पर इनके जीवन से सम्बंधित समस्त जानकारी उपलब्ध हैं |)
July 22, 2009
कट्टरता
कट्टरता एक बंद कमरे की तरह होती है, जिसमें कोई दरवाजा खिड़की या रोशनदान नहीं होता स्वाभाविक है कि ऐसे कमरे में सिर्फ़ घुटन होगी और सृजन का कोई भी बीज वहां अंकुरित नही हो सकता कट्टरता का मतलब होता है कि सिर्फ़ यही विचार सही है और बाकी सब ग़लत - "तुम मेरे शत्रु हो क्योंकि तुम मुझसे भिन्न मत रखते हो"
"मैं तुम्हे बर्दास्त नही कर सकता क्योंकि तुम्हारे ढंग मुझसे भिन्न हैं" यह कट्टरता का मूल स्वर है इस तरह कट्टरता सोच विचार, संदेह और विमर्श के सभी रास्ते बंद कर देती है कट्टर दिमाग कभी सृजनात्मक नही हो सकता यह कहा जा सकता है कि कट्टर व्यक्ति कूप मंडूक के समान होता है
यह एक विरोधाभास है कि अपने सैद्धांतिक रूप में कट्टरता स्वयं की भी दुश्मन अर्थात आत्मघाती है, क्योंकि "यह दूसरे को बर्दास्त न कर सकने कि प्रवृत्ति है" |
कट्टरता के कई प्रमुख ठिकाने हैं, जिनमें धर्म सबसे महत्वपूर्ण है सबको पता है कि धार्मिक और जातीय कट्टरता के कारण मनुष्य को कितनी यातना सहनी पड़ी है वर्तमान कि घटनाओं को देखकर मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि हम आगे जा रहे हैं या पीछे जा रहें हैं |
कट्टरता एक आदिम प्रवृत्ति है आज विज्ञान के उत्तर आधुनिक काल में इसकी कोई आवश्यकता नही है |
आज के युवाओं और किशोरों का यह कर्त्तव्य है कि सहिष्णुता और भाईचारे के विचारों को अधिक से अधिक प्रचारित करें हम इस पृथ्वी पर अकेले जीवित नहीं रह सकते, हमें साथ साथ ही रहना होगा
हमें इतिहास से सबक लेना होगा और अपने तथाकथित बुद्धिमानो (जिनके प्रेम के सिद्धांत का परिणाम घृणा के अलावा और कुछ नही हुआ) के उपदेशों पर आँख खोलनी होगी
कट्टरता को रुढिवादिता भी कहते हैं, पोंगापंथ और कठमुल्लापन इससे मिलते जुलते शब्द हैं लेकिन यहाँ मैं एक विशेष बात की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ की कट्टरता पर किसी विशेष विचार का पेटेंट नहीं है मेरा मतलब धर्मं या भगवान को न मानने वाले अर्थात जो अपने को नास्तिक कहते हैं, जो अपने को अडवांस या अग्रिम मानते हैं, भी उतने ही कट्टर हो सकते हैं जितने की धर्मभीरु और पुरातनपंथी |
मेरे विचार से, किसी एक मत को सबके लिए स्थापित करने की सोच ऐसे ही है जैसे सबको एक ही नाप के कपडे या जूते पहनाने की कोशिश करना जो की हास्यास्पद और तकलीफदेह है विविधता को समस्या मानना और उसे ख़त्म करने की कोशिश करना, दुनिया को उबाऊ बनाने की कवायद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है |
लकीर के फकीर दो तरह के होते हैं - कुछ नए लोग जो सभी पुराने को कूड़ा मानते हैं, दूसरे वे पुराने जो कुछ नया (खासकर विचार) देखकर आक्रामक हो जाते हैं दोनों तरह की सोच खतरनाक है और समाज के लिए घातक है |
कट्टरता की सबसे बड़ी खराबी यह है कि इसमें समय के साथ अपडेट होते रहने की प्रवृत्ति और क्षमता का नितांत अभाव होता है | यदि युवा यह सीख सकें कि कोई भी विचार अन्तिम नहीं है, क्योंकि बेहतरी की गुंजाईश हमेशा रहती है तो हम समाज को अधिक समझदार और उदार बना सकते हैं एवं सतत विकासोन्मुख बने रह सकते हैं |
"मैं तुम्हे बर्दास्त नही कर सकता क्योंकि तुम्हारे ढंग मुझसे भिन्न हैं" यह कट्टरता का मूल स्वर है इस तरह कट्टरता सोच विचार, संदेह और विमर्श के सभी रास्ते बंद कर देती है कट्टर दिमाग कभी सृजनात्मक नही हो सकता यह कहा जा सकता है कि कट्टर व्यक्ति कूप मंडूक के समान होता है
यह एक विरोधाभास है कि अपने सैद्धांतिक रूप में कट्टरता स्वयं की भी दुश्मन अर्थात आत्मघाती है, क्योंकि "यह दूसरे को बर्दास्त न कर सकने कि प्रवृत्ति है" |
कट्टरता के कई प्रमुख ठिकाने हैं, जिनमें धर्म सबसे महत्वपूर्ण है सबको पता है कि धार्मिक और जातीय कट्टरता के कारण मनुष्य को कितनी यातना सहनी पड़ी है वर्तमान कि घटनाओं को देखकर मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि हम आगे जा रहे हैं या पीछे जा रहें हैं |
कट्टरता एक आदिम प्रवृत्ति है आज विज्ञान के उत्तर आधुनिक काल में इसकी कोई आवश्यकता नही है |
आज के युवाओं और किशोरों का यह कर्त्तव्य है कि सहिष्णुता और भाईचारे के विचारों को अधिक से अधिक प्रचारित करें हम इस पृथ्वी पर अकेले जीवित नहीं रह सकते, हमें साथ साथ ही रहना होगा
हमें इतिहास से सबक लेना होगा और अपने तथाकथित बुद्धिमानो (जिनके प्रेम के सिद्धांत का परिणाम घृणा के अलावा और कुछ नही हुआ) के उपदेशों पर आँख खोलनी होगी
कट्टरता को रुढिवादिता भी कहते हैं, पोंगापंथ और कठमुल्लापन इससे मिलते जुलते शब्द हैं लेकिन यहाँ मैं एक विशेष बात की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ की कट्टरता पर किसी विशेष विचार का पेटेंट नहीं है मेरा मतलब धर्मं या भगवान को न मानने वाले अर्थात जो अपने को नास्तिक कहते हैं, जो अपने को अडवांस या अग्रिम मानते हैं, भी उतने ही कट्टर हो सकते हैं जितने की धर्मभीरु और पुरातनपंथी |
मेरे विचार से, किसी एक मत को सबके लिए स्थापित करने की सोच ऐसे ही है जैसे सबको एक ही नाप के कपडे या जूते पहनाने की कोशिश करना जो की हास्यास्पद और तकलीफदेह है विविधता को समस्या मानना और उसे ख़त्म करने की कोशिश करना, दुनिया को उबाऊ बनाने की कवायद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है |
लकीर के फकीर दो तरह के होते हैं - कुछ नए लोग जो सभी पुराने को कूड़ा मानते हैं, दूसरे वे पुराने जो कुछ नया (खासकर विचार) देखकर आक्रामक हो जाते हैं दोनों तरह की सोच खतरनाक है और समाज के लिए घातक है |
कट्टरता की सबसे बड़ी खराबी यह है कि इसमें समय के साथ अपडेट होते रहने की प्रवृत्ति और क्षमता का नितांत अभाव होता है | यदि युवा यह सीख सकें कि कोई भी विचार अन्तिम नहीं है, क्योंकि बेहतरी की गुंजाईश हमेशा रहती है तो हम समाज को अधिक समझदार और उदार बना सकते हैं एवं सतत विकासोन्मुख बने रह सकते हैं |
July 17, 2009
साहित्य, कला, आलोचक, आलोचना इत्यादि और लेंस |
चलिये आज आलोचक की ही आलोचना कर डालते हैं । दूसरों का छिद्रान्वेषण कराने वाले के छिलके उतारना चाहिए | दिखाने वाले को ही देख लेते हैं ।
जैसे साहित्य या कला समाज को देखने के लिये सूक्ष्मदर्शी का काम करती है, वैसे ही आलोचक-समालोचक साहित्य-कला का सूक्ष्मदर्शी है | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है । बिल्कुल है लेकिन यह सभी घरों में पाया जाने वाला कोई आम दर्पण नहीं है, जिसमें आपका चेहरा ज्यों का त्यों दिखता है । यह दर्पण कैसा भी हो सकता है, रचनाकार जैसा चाहे आपके लिये दर्पण बना दे । जिसमें चीजें आडी, तिरछी, लम्बी, नाटी, मोटी, भोंडी, विकॄत कुछ भी दिख सकती हैं । यही काम भी है कलाकाओं या रचनाकारों का । यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना । चीजों को बडा करके दिखाना, जिससे हम वह भी देख सकें, जिसे हम सामान्यतः नहीं देख पाते ।
इसीलिये कला को 'लार्जर दैन लाइफ़' कहा गया है । सूक्षमदर्शी लेन्सों का संय़ोजन ही तो है । लेन्स जितने शक्तिशाली होंगे, उतना ही बरीक से बारीक चीजों को दिखा सकेंगे ।
साहित्य और कला से गुजरकर हम वह भी देख और सुन पाते हैं, जो हम अपने व्यवहारिक जीवन में ख्याल में नहीं आतीं बल्कि यहां तक कह सकते हैं कि होते हुए भी दिखाई नहीं देतीं । अर्थात साहित्य और कला हमारी अनुभूति की तीव्रता को बढ़ा देती हैं
इस तरह यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना पडता है । साहित्य-कला हमारी आंखों में उंगली डाल कर दिखा देते हैं , कि यह है ।
उदाहरण के लिये पालक और धनिया खेतों में लगी हुई हमने पहले भी कई बार देखी थीं, लेकिन जब हमने कविता "लह लह पालक, मह मह धनिया पढी" तो उसके बाद धनिया की महक और पालक की लहलाहाहट और बढ गई । ऐसा ही सभी चीजों में समझना चाहिये । कला और साहित्य हमारा ध्यान उन चीजों की ओर आकॄष्ट कराते हैं, जिन्हें हम रोज देखते हैं , फ़िर भी नहीं देख पाते । जैसे 'रूपहला धुंआ' पढने के पहले जल प्रपात सिर्फ़ चचाई का कूंडा था भर जो कि , अपने शहर के बीस-पच्चीस किलोमीटर पर है । पाठ्यपुस्तक में एक पाठ 'रुपहला धुआं' जिसमें चचाई का वर्णन है, पढने के बाद जब देखा तो और भी अद्भुत लगा ।
ये तो हुआ साहित्य । जो समाज का चरित्र दिखाता है । फ़िर साहित्य में ही साहित्य की माप तौल करने के लिये ही आलोचक होता है ।
आलोचक-समालोचक गुण-दोष की परख करता है । किसी रचना को हल्का या वजनी कर सकता है । आलोचक को तटस्थ रूप से अपनी बात रखने का प्रयास करना चाहिये । किंतु उसके भी अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसन्द-नापासन्द होती है । चाहे या अन्चाहे अच्छे या बुरे इरादे हो सकते हैं । वैसे साहित्य का मापदंड लोकप्रियता भी होती है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे रेटिंग कहते हैं ।
आलोचक-समालोचक गुण और दोष दोनों की परख करता है ।आलोचक को तटस्थ होना चाहिये । किन्तु आलोचक के अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसंद-नापसंद होती है । चाहे या अनचाहे अच्छे या दूषित इरादे हो सकते हैं ।
पाठक को सबसे ज्यादा सावधान और सजग रहने की जरूरत होती है, किसी रचना की आलोचना पढते समय । किसी की निंदा सुनते समय भी । पाठक के लिये सबसे बढकर निजी पसंद या नापसंद होती है ।
कभी-कभी थोड़ी सी बात कहने के लिए बहुत बड़ी भूमिका बांधनी पड़ती है | मैंने भी यहां पर यही किया |
किसी रचना को उसकी प्रसिद्धि या लेखक के प्रभाव में आकर नहीं पढना चाहिये । इस तरह का नजरिया रखने से अप्रसिद्ध रचनाओं को भी महत्व देते हुए, गम्भीरता से पढकर उनका आकलन कर सकते हैं ।
बडे आलोचकों द्वारा लेखन बनाए और मिटाए जाते हैं । रचनाओं को महत्व्पूर्ण और महत्वहीन बनाया जाता है । उन्हें क्रम में ऊपर और नीचे रखा जाता है | आलोचक प्रवृत्तियों का माहौल बनाते हैं | उन्हें चलन में ला सकते हैं, चलन से बाहर कर सकते हैं |
असफ़ल प्रेमी प्रेम के महाकाव्य लिखते हैं, असफ़ल खिलाडी अकसर अच्छे कोच साबित होते हैं । अब इसे आप जीवन की विडम्बना कहिये या क्षतिपूर्ति , उबाऊ या असफल लेखक अकसर बड़े आलोचक बन जाते हैं |
तो जब भी आलोचनात्मक रचनाएँ पढें तो अपनी दिमाग का पैराशूट जरूर खोले रखें |
जैसे साहित्य या कला समाज को देखने के लिये सूक्ष्मदर्शी का काम करती है, वैसे ही आलोचक-समालोचक साहित्य-कला का सूक्ष्मदर्शी है | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है । बिल्कुल है लेकिन यह सभी घरों में पाया जाने वाला कोई आम दर्पण नहीं है, जिसमें आपका चेहरा ज्यों का त्यों दिखता है । यह दर्पण कैसा भी हो सकता है, रचनाकार जैसा चाहे आपके लिये दर्पण बना दे । जिसमें चीजें आडी, तिरछी, लम्बी, नाटी, मोटी, भोंडी, विकॄत कुछ भी दिख सकती हैं । यही काम भी है कलाकाओं या रचनाकारों का । यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना । चीजों को बडा करके दिखाना, जिससे हम वह भी देख सकें, जिसे हम सामान्यतः नहीं देख पाते ।
इसीलिये कला को 'लार्जर दैन लाइफ़' कहा गया है । सूक्षमदर्शी लेन्सों का संय़ोजन ही तो है । लेन्स जितने शक्तिशाली होंगे, उतना ही बरीक से बारीक चीजों को दिखा सकेंगे ।
साहित्य और कला से गुजरकर हम वह भी देख और सुन पाते हैं, जो हम अपने व्यवहारिक जीवन में ख्याल में नहीं आतीं बल्कि यहां तक कह सकते हैं कि होते हुए भी दिखाई नहीं देतीं । अर्थात साहित्य और कला हमारी अनुभूति की तीव्रता को बढ़ा देती हैं
इस तरह यथार्थ को प्रकाशित करने के लिये कल्पना का सहारा लेना पडता है । साहित्य-कला हमारी आंखों में उंगली डाल कर दिखा देते हैं , कि यह है ।
उदाहरण के लिये पालक और धनिया खेतों में लगी हुई हमने पहले भी कई बार देखी थीं, लेकिन जब हमने कविता "लह लह पालक, मह मह धनिया पढी" तो उसके बाद धनिया की महक और पालक की लहलाहाहट और बढ गई । ऐसा ही सभी चीजों में समझना चाहिये । कला और साहित्य हमारा ध्यान उन चीजों की ओर आकॄष्ट कराते हैं, जिन्हें हम रोज देखते हैं , फ़िर भी नहीं देख पाते । जैसे 'रूपहला धुंआ' पढने के पहले जल प्रपात सिर्फ़ चचाई का कूंडा था भर जो कि , अपने शहर के बीस-पच्चीस किलोमीटर पर है । पाठ्यपुस्तक में एक पाठ 'रुपहला धुआं' जिसमें चचाई का वर्णन है, पढने के बाद जब देखा तो और भी अद्भुत लगा ।
ये तो हुआ साहित्य । जो समाज का चरित्र दिखाता है । फ़िर साहित्य में ही साहित्य की माप तौल करने के लिये ही आलोचक होता है ।
आलोचक-समालोचक गुण-दोष की परख करता है । किसी रचना को हल्का या वजनी कर सकता है । आलोचक को तटस्थ रूप से अपनी बात रखने का प्रयास करना चाहिये । किंतु उसके भी अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसन्द-नापासन्द होती है । चाहे या अन्चाहे अच्छे या बुरे इरादे हो सकते हैं । वैसे साहित्य का मापदंड लोकप्रियता भी होती है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे रेटिंग कहते हैं ।
आलोचक-समालोचक गुण और दोष दोनों की परख करता है ।आलोचक को तटस्थ होना चाहिये । किन्तु आलोचक के अपने पूर्वाग्रह और झुकाव होते हैं । पसंद-नापसंद होती है । चाहे या अनचाहे अच्छे या दूषित इरादे हो सकते हैं ।
पाठक को सबसे ज्यादा सावधान और सजग रहने की जरूरत होती है, किसी रचना की आलोचना पढते समय । किसी की निंदा सुनते समय भी । पाठक के लिये सबसे बढकर निजी पसंद या नापसंद होती है ।
कभी-कभी थोड़ी सी बात कहने के लिए बहुत बड़ी भूमिका बांधनी पड़ती है | मैंने भी यहां पर यही किया |
किसी रचना को उसकी प्रसिद्धि या लेखक के प्रभाव में आकर नहीं पढना चाहिये । इस तरह का नजरिया रखने से अप्रसिद्ध रचनाओं को भी महत्व देते हुए, गम्भीरता से पढकर उनका आकलन कर सकते हैं ।
बडे आलोचकों द्वारा लेखन बनाए और मिटाए जाते हैं । रचनाओं को महत्व्पूर्ण और महत्वहीन बनाया जाता है । उन्हें क्रम में ऊपर और नीचे रखा जाता है | आलोचक प्रवृत्तियों का माहौल बनाते हैं | उन्हें चलन में ला सकते हैं, चलन से बाहर कर सकते हैं |
असफ़ल प्रेमी प्रेम के महाकाव्य लिखते हैं, असफ़ल खिलाडी अकसर अच्छे कोच साबित होते हैं । अब इसे आप जीवन की विडम्बना कहिये या क्षतिपूर्ति , उबाऊ या असफल लेखक अकसर बड़े आलोचक बन जाते हैं |
तो जब भी आलोचनात्मक रचनाएँ पढें तो अपनी दिमाग का पैराशूट जरूर खोले रखें |
July 16, 2009
प्रकाश सिर्फ़ दस कदम और यात्रा .....
एक सीधा-सादा किसान, जीवन में पहली बार पहाडियों की यात्रा को जा रहा था | वे पहाडियां यद्यपि उसके गाँव से बहुत दूर नहीं थीं, फ़िर भी वह कभी उन तक नहीं जा सका था | उनकी हरियाली से ढंकी चोटियां उसे अपने खेतों से ही दिखाई पड़ती थीं | बहुत बार उसके मन में उन्हें निकट से जाकर देखने की आकांशा अत्यन्त बलवती भी हो जाती थी | लेकिन कभी एक, तो कभी दूसरे कारण से बात टलती चली गई थी, और वह वहाँ नहीं जा पाया था | पिछली बार तो वह इसलिए ही रुक गया था, क्योंकि उसके पास कंडील नहीं थी और पहाडियों पर जाने के लिए आधी रात के अंधेरे में ही निकल जाना आवश्यक था | सूर्य निकल आने पर तो पहाड़ की कठिन चढाई और भी कठिन हो जाती थी |
एक दिन वह कंडील भी ले आया और पहाडों पर जाने की खुशी में रात भर सो भी नहीं सका | रात्रि दो बजे ही वह ठिठककर रुक गया | उसके मन में एक चिंता और दुविधा पैदा हो गयी | उसने गाँव के बाहर आते ही देखा की अमावास की रात्रि का घुप्प अन्धकार है | निश्चय ही उसके पास कंडील थी, लेकिन उसका प्रकाश तो दस कदमों से ज्यादा नहीं पङता था और चढाई थी दस मील की ! वह सोचने लगा की जाना है दस मील और रोशनी है केवल दस कदम पड़ने वाली, तो कैसे पूरा पडेगा ? ऐसे घुप्प अन्धकार में इतनी-सी कंडील के प्रकाश को लेकर जाना क्या उचित है ? यह तो सागर में जरा-सी डोंगी लेकर उतरने जैसा ही है | वह गाँव के बाहर ही बैठा रहा और सूर्य के निकलने की बाट जोहने लगा |
तभी उसने देखा कि एक बूढा आदमी उसके पास से ही पहाडियों की तरफ़ जा रहा है और उसके हाथ में तो और भी छोटी कंडील है | उसने वृद्ध को रोककर जब अपनी दुविधा बताई तो वृद्ध खूब हंसने लगा और बोला : "पागल ! तू पहले दस कदम तो चल | जितना दीखता है, उतना तो आगे बढ़ | फ़िर इतना ही और आगे दीखने लगेगा | एक कदम दीखता हो तो उसके सहारे तो सारी भूमि की ही परिक्रमा की जा सकती है|"
वह युवक समझा, उठा और चला और सूर्य निकलने के पूर्व ही वह पहाडियों पर था |
जो सोचता, है वह नहीं ; जो चलता बस केवल वही पहुंचता है |
"इतना विवेक, इतना प्रकाश प्रत्येक के पास है कि उससे कम से कम दस कदम का फासला दिखाई पड़ सके
और उतना ही पर्याप्त है | परमात्मा तक पहुँचने के लिए भी उतनी ही पर्याप्त है |
सन्दर्भ : ओशो द्बारा कही गयी बोध कथा
एक दिन वह कंडील भी ले आया और पहाडों पर जाने की खुशी में रात भर सो भी नहीं सका | रात्रि दो बजे ही वह ठिठककर रुक गया | उसके मन में एक चिंता और दुविधा पैदा हो गयी | उसने गाँव के बाहर आते ही देखा की अमावास की रात्रि का घुप्प अन्धकार है | निश्चय ही उसके पास कंडील थी, लेकिन उसका प्रकाश तो दस कदमों से ज्यादा नहीं पङता था और चढाई थी दस मील की ! वह सोचने लगा की जाना है दस मील और रोशनी है केवल दस कदम पड़ने वाली, तो कैसे पूरा पडेगा ? ऐसे घुप्प अन्धकार में इतनी-सी कंडील के प्रकाश को लेकर जाना क्या उचित है ? यह तो सागर में जरा-सी डोंगी लेकर उतरने जैसा ही है | वह गाँव के बाहर ही बैठा रहा और सूर्य के निकलने की बाट जोहने लगा |
तभी उसने देखा कि एक बूढा आदमी उसके पास से ही पहाडियों की तरफ़ जा रहा है और उसके हाथ में तो और भी छोटी कंडील है | उसने वृद्ध को रोककर जब अपनी दुविधा बताई तो वृद्ध खूब हंसने लगा और बोला : "पागल ! तू पहले दस कदम तो चल | जितना दीखता है, उतना तो आगे बढ़ | फ़िर इतना ही और आगे दीखने लगेगा | एक कदम दीखता हो तो उसके सहारे तो सारी भूमि की ही परिक्रमा की जा सकती है|"
वह युवक समझा, उठा और चला और सूर्य निकलने के पूर्व ही वह पहाडियों पर था |
जो सोचता, है वह नहीं ; जो चलता बस केवल वही पहुंचता है |
"इतना विवेक, इतना प्रकाश प्रत्येक के पास है कि उससे कम से कम दस कदम का फासला दिखाई पड़ सके
और उतना ही पर्याप्त है | परमात्मा तक पहुँचने के लिए भी उतनी ही पर्याप्त है |
सन्दर्भ : ओशो द्बारा कही गयी बोध कथा
July 11, 2009
भारत की जनसंख्या : जनगणना 2001 पर आधारित तथ्य
आजविश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर प्रस्तुत हैं कुछ बोलते तथ्य :
* चीन, अमेरिका, इन्डोनेशिया एवम ब्राजील को छोड़कर किसी भी देश की जनसंख्या उत्तरप्रदेश की जनसंख्या(16,60,52,829 व्यक्ति) से अधिक नहीं है |
* भारत की जनसंख्या
प्रति वर्ष उतनी बढ़ जाती है, जीतनी की आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या (21,839,000) है |
* विश्व की कुल जनसंख्या 6,706,993,१५२ (छः अरब, सत्तरकरोड़, उनहत्तर लाख, तिरानवे हजार एक सौ बावन )
* वार्षिक जनसंख्या वृद्धि ___विश्व - 1.18% , भारत -1.58%, अमेरिका - 0.883%
भारत का क्षेत्रफल_____32,87,263 वर्ग किमी (विश्व में सातवाँ स्थान प्रथम स्थान - रूस)
जनसंख्या _____________ 1,02,70,15,247 (चीन के बाद दूसरा स्थान)
पुरूष _____________53,12,77,078
महिलाएं___________49,57,38,169
साक्षरता दर ________ 65.38%
महिला साक्षरता _____54.16%
लिंगानुपात ________933 महिलाएं (प्रति हजार पुरूष)
जनसंख्या घनत्व ___ 324
अधिक जनसंख्या वाले राज्य :
उत्तरप्रदेश --16,60,52,859
महाराष्ट्र ---9,67,52,247
बिहार ----8,28,78,796
न्यूनतम जनसंख्या वाले राज्य: १. सिक्किम २. मिजोरम
सर्वाधिक साक्षरता वाले राज्य :
1. केरल 90.92%
2. मिजोरम 88.49% 3. गोवा 83.32%
4. महाराष्ट्र 77.27% 5. हिमाचल प्रदेश 77.13%
दशकीय जनसंख्या वृद्धि ___________21.34%
सार्वाधिक जन घनत्व वाला राज्य ____पश्चिम बंगाल (904 प्रति वर्ग किमी)
न्यूनतम जन घनत्व वाला राज्य _____अरुणाचल प्रदेश(१३ प्रति वर्ग किमी)
सर्वाधिक जन घनत्व वाला केन्द्रशासित प्रदेश ________दिल्ली (9,294 प्रति वर्ग किमी)
न्यूनतम साक्षर राज्य _________बिहार (पुरूष 47.53%, महिलायें 33.57%)
विश्व की जनसंख्या का कुल प्रतिशत __________16.07 प्रतिशत
सार्वाधिक लिंगानुपात वाले राज्य :
केरल (1058) छत्तीसगढ़ (990) तमिलनाडु(986) आँध्रप्रदेश (978) मेघालय (975)
न्यूनतम लिंगानुपात _____________हरियाणा (861 महिलायें)
सार्वाधिक निर्धन राज्य ________उडीसा (47.15%),बिहार(42.60%), मध्य प्रदेश(37.43%)
सिक्किम(36.55%), असम (36.09%)
नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत ________27.78%
सन १९९१-२००१ के दौरान नए
बनाए गए जिलों की संख्या __________127
लिंगानुपात : 1901-2001
_______________________
जनगणना वर्ष लिंगानुपात(प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं की संख्या)
1911 ________ 964
1926________ 955
1931_________950
1941_________945
1951________ 946
1961_________ 941
1971_________ 930
1981_________ 934
1991_________ 927
2001_________ 933
* चीन, अमेरिका, इन्डोनेशिया एवम ब्राजील को छोड़कर किसी भी देश की जनसंख्या उत्तरप्रदेश की जनसंख्या(16,60,52,829 व्यक्ति) से अधिक नहीं है |
* भारत की जनसंख्या
प्रति वर्ष उतनी बढ़ जाती है, जीतनी की आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या (21,839,000) है |
* विश्व की कुल जनसंख्या 6,706,993,१५२ (छः अरब, सत्तरकरोड़, उनहत्तर लाख, तिरानवे हजार एक सौ बावन )
* वार्षिक जनसंख्या वृद्धि ___विश्व - 1.18% , भारत -1.58%, अमेरिका - 0.883%
भारत का क्षेत्रफल_____32,87,263 वर्ग किमी (विश्व में सातवाँ स्थान प्रथम स्थान - रूस)
जनसंख्या _____________ 1,02,70,15,247 (चीन के बाद दूसरा स्थान)
पुरूष _____________53,12,77,078
महिलाएं___________49,57,38,169
साक्षरता दर ________ 65.38%
महिला साक्षरता _____54.16%
लिंगानुपात ________933 महिलाएं (प्रति हजार पुरूष)
जनसंख्या घनत्व ___ 324
अधिक जनसंख्या वाले राज्य :
उत्तरप्रदेश --16,60,52,859
महाराष्ट्र ---9,67,52,247
बिहार ----8,28,78,796
न्यूनतम जनसंख्या वाले राज्य: १. सिक्किम २. मिजोरम
सर्वाधिक साक्षरता वाले राज्य :
1. केरल 90.92%
2. मिजोरम 88.49% 3. गोवा 83.32%
4. महाराष्ट्र 77.27% 5. हिमाचल प्रदेश 77.13%
दशकीय जनसंख्या वृद्धि ___________21.34%
सार्वाधिक जन घनत्व वाला राज्य ____पश्चिम बंगाल (904 प्रति वर्ग किमी)
न्यूनतम जन घनत्व वाला राज्य _____अरुणाचल प्रदेश(१३ प्रति वर्ग किमी)
सर्वाधिक जन घनत्व वाला केन्द्रशासित प्रदेश ________दिल्ली (9,294 प्रति वर्ग किमी)
न्यूनतम साक्षर राज्य _________बिहार (पुरूष 47.53%, महिलायें 33.57%)
विश्व की जनसंख्या का कुल प्रतिशत __________16.07 प्रतिशत
सार्वाधिक लिंगानुपात वाले राज्य :
केरल (1058) छत्तीसगढ़ (990) तमिलनाडु(986) आँध्रप्रदेश (978) मेघालय (975)
न्यूनतम लिंगानुपात _____________हरियाणा (861 महिलायें)
सार्वाधिक निर्धन राज्य ________उडीसा (47.15%),बिहार(42.60%), मध्य प्रदेश(37.43%)
सिक्किम(36.55%), असम (36.09%)
नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत ________27.78%
सन १९९१-२००१ के दौरान नए
बनाए गए जिलों की संख्या __________127
लिंगानुपात : 1901-2001
_______________________
जनगणना वर्ष लिंगानुपात(प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं की संख्या)
1911 ________ 964
1926________ 955
1931_________950
1941_________945
1951________ 946
1961_________ 941
1971_________ 930
1981_________ 934
1991_________ 927
2001_________ 933
July 07, 2009
हिन्दी ब्लॉग्गिंग में टिप्पणी का महत्व
ब्लॉगिंग की विधा आ जाने के बाद कमेंट या टिप्पणी शब्द अचानक बहुत हिट हो गया है । और इन्टरनेट पर, खासकर हिन्दी ब्लॉगिंग में इसका महत्व बहुत अधिक बढ गया है । कमेन्ट के विविध रूपों को देखते हुए यदि किसी के मन में यह दार्शनिक प्रश्न उत्पन्न हो जाए कि हिन्दी ब्लॉगिंग के में टिप्पणी की क्या भूमिका है तो मैं कहना चाहता हूं कि हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणी का महत्व बहुआयामी है | कृपया गौर करें :
टिप्पणी राम-राम है, नमस्कार है
कभी पैलगी तो कभी प्रणाम है
नये चिट्ठों से शिष्टाचार है
कभी परिचय और सत्कार है
'हम भी हैं' की गुहार है
कभी हेलो हाय तो कभी, बाय-बाय है
आदाब है, सत्श्री अकाल है
जिसको मिले वो बिना रुपये के मालामाल है
वरना चिट्ठा कंगाल है
यह बातों का प्रपन्च बनाती है
हिन्दी ब्लॉगिंग को टंच बनाती है
महंतों को सन्त बनाती है
माहौल को जीवंत बनाती है
यह ब्लॉगर का दर्पण भी है
टिप्पक(टिप्प्णीकार)का प्रेमार्पण भी है
कभी-कभी यह तर्पण भी है
पूरी तरह समर्पण भी है |
कभी यह गंभीर विमर्श है
कभी विनोदी परामर्श है
कभी यह नकाबपोश है
तब फैलाती आक्रोश है
यह ब्लोगर को मुद्दे देती है
कभी इक्के-दुक्के
कभी चौके-छक्के देती है
कौन नहीं इस पर फ़िदा है
यह एक लिमिटेड विधा है
इससे ज्यादा क्या कहें कि
यह ब्लोगिंग की जान है
क्योंकि बिना इसके
कोई हिन्दी चिट्ठा नहीं बन सका
महान है |
-जय चिट्ठाकर्म (हैप्पी ब्लॉग्गिंग)
कुछ लोग टिप्पणी को कमतर नजरों से देखते हैं और वे इसे सिर्फ़ ब्लॉगर की खुशामद या 'लाइन मारने' की वस्तु समझते हैं । इसमें 'जड चेतन गुण दोषमय’ की तरह सच्चाई है भी और नहीं भी क्योंकि 'लाइन मारना' निहायत ही शाकाहारी कर्म है | जब तक कि वह 'लाइन काटने' में न बदल जाए । इसका सीधा सा अर्थ होता है "प्रभावित करने की कोशिश करना" और यह मनुष्य की एक कुदरती कमजोरी है।
यदि कोई ब्लॉग्गिंग को खुशामद कहने वालों के ब्लॉग पर इस तरह की कमेन्ट करे - "एकदम बकवास", "ये सब पहले कहीं पढा हुआ लगता है", "यदि आप लिखना बन्द कर दें तो हिन्दी भाषा पर एहसान होगा" तो इसे कोई भी पसन्द नहीं करेगा और यह एक तरह से ब्लॉगर से सम्बंध बिगाडने जैसा होगा । लेकिन रास्ता भारत के आम बजट की तरह दो अतियों के बीच होता है ।
कमेन्ट ब्लॉगिंग को गति देते हैं । यह ब्लॉगर और पाठक के बीच एक संवाद है । साझा ब्लॉगों में यह एक तरह से परिचर्चा की तरह फ़ैलता है । इस मुद्दे पर अलग से एक ब्लॉग पोस्ट लिखा जाएगा |
यद्यपि ऐसे ब्लॉगरों का अस्तित्व काल्पनिक ही होगा जो टिप्पणी ना चाहते हों । बहरहाल हमारा प्रमुख उद्देश्य सिर्फ़ ब्लॉगिंग में टिप्पणी के महत्व को उभारकर सामने लाना है और कुछ नहीं । इसीलिये कोई कुछ का कुछ ना समझे | यदि कोई ऐसा समझना चाहता है तो इसके लिये वह स्वयं जिम्मेवार होगा । हमारी यह बात पूर्णतः काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति, वस्तु या घटना से कोई पास-पास का नाता भी नहीं है । यह बात अलग है कि ज्यादा टिप्पणी पाने वाले ब्लॉगर उस दुकानदार की तरह हो जाते हैं जिसकी दुकान पर भीड ज्यादा रहने के कारण वह टुटपुन्जिये ग्राहकों की तरफ़ देखकर मुस्कुराना जरूरी नहीं समझता, यह उसकी मजबूरी भी है, क्योंकि ऐसा करने पर एक परमानेंट स्माइली मुद्रा अख्तियार करनी पड़ेगी | चाहे कोई ब्लॉग पोस्ट पर सिर्फ़ 'बढिया' या 'बहुत अच्छा' या 'लगे रहो' जैसे कमेन्ट भी कर रहा है तो भी वह वहां पर अपना समय और श्रम लगा रहा है । आपको लिखने की वजह दे रहा है । यदि आप सोचते हैं कि उसकी नीयत अपना लिंक देने की थी तो भी कुछ गलत नहीं है । मैं हिन्दी के कई महत्व्पूर्ण चिट्ठों से कमेन्ट की वजह से परिचित हुआ । बडका ब्लोग्गरों के द्वारा की गई टिप्पणी से बेनामी (अनामी) ब्लोग्गर उसी तरह प्रसन्न होते हैं जैसे अप्रसिद्ध लेखक किसी बड़े साहित्यकार की प्रशंसा से गदगद होते हैं |
इन सब दलीलों से प्रतीत होता है कि हिन्दी ब्लोगिंग में टिप्पणी एक पुन्न-कम-समझदारी का काम है | कहने की जरूरत नहीं की नेक काम करने से नेकनीयती बढ़ती है |
और अंत में :
बापू बोले अगर कोई टिप्पणी न करे तो टेंशन मत लो, उसके ब्लॉग पर टिप्पणी करते रहो | बोले तो फुल विनम्रता के साथ | एक दिन उसका ह्रदय परिवर्तित होगा फ़िर वो सिर्फ़ तुम्हारा ब्लॉग ही नहीं पढेगा, बल्कि उस पर टिप्पणी भी करेगा |
टिप्पणी राम-राम है, नमस्कार है
कभी पैलगी तो कभी प्रणाम है
नये चिट्ठों से शिष्टाचार है
कभी परिचय और सत्कार है
'हम भी हैं' की गुहार है
कभी हेलो हाय तो कभी, बाय-बाय है
आदाब है, सत्श्री अकाल है
जिसको मिले वो बिना रुपये के मालामाल है
वरना चिट्ठा कंगाल है
यह बातों का प्रपन्च बनाती है
हिन्दी ब्लॉगिंग को टंच बनाती है
महंतों को सन्त बनाती है
माहौल को जीवंत बनाती है
यह ब्लॉगर का दर्पण भी है
टिप्पक(टिप्प्णीकार)का प्रेमार्पण भी है
कभी-कभी यह तर्पण भी है
पूरी तरह समर्पण भी है |
कभी यह गंभीर विमर्श है
कभी विनोदी परामर्श है
कभी यह नकाबपोश है
तब फैलाती आक्रोश है
यह ब्लोगर को मुद्दे देती है
कभी इक्के-दुक्के
कभी चौके-छक्के देती है
कौन नहीं इस पर फ़िदा है
यह एक लिमिटेड विधा है
इससे ज्यादा क्या कहें कि
यह ब्लोगिंग की जान है
क्योंकि बिना इसके
कोई हिन्दी चिट्ठा नहीं बन सका
महान है |
-जय चिट्ठाकर्म (हैप्पी ब्लॉग्गिंग)
कुछ लोग टिप्पणी को कमतर नजरों से देखते हैं और वे इसे सिर्फ़ ब्लॉगर की खुशामद या 'लाइन मारने' की वस्तु समझते हैं । इसमें 'जड चेतन गुण दोषमय’ की तरह सच्चाई है भी और नहीं भी क्योंकि 'लाइन मारना' निहायत ही शाकाहारी कर्म है | जब तक कि वह 'लाइन काटने' में न बदल जाए । इसका सीधा सा अर्थ होता है "प्रभावित करने की कोशिश करना" और यह मनुष्य की एक कुदरती कमजोरी है।
यदि कोई ब्लॉग्गिंग को खुशामद कहने वालों के ब्लॉग पर इस तरह की कमेन्ट करे - "एकदम बकवास", "ये सब पहले कहीं पढा हुआ लगता है", "यदि आप लिखना बन्द कर दें तो हिन्दी भाषा पर एहसान होगा" तो इसे कोई भी पसन्द नहीं करेगा और यह एक तरह से ब्लॉगर से सम्बंध बिगाडने जैसा होगा । लेकिन रास्ता भारत के आम बजट की तरह दो अतियों के बीच होता है ।
कमेन्ट ब्लॉगिंग को गति देते हैं । यह ब्लॉगर और पाठक के बीच एक संवाद है । साझा ब्लॉगों में यह एक तरह से परिचर्चा की तरह फ़ैलता है । इस मुद्दे पर अलग से एक ब्लॉग पोस्ट लिखा जाएगा |
यद्यपि ऐसे ब्लॉगरों का अस्तित्व काल्पनिक ही होगा जो टिप्पणी ना चाहते हों । बहरहाल हमारा प्रमुख उद्देश्य सिर्फ़ ब्लॉगिंग में टिप्पणी के महत्व को उभारकर सामने लाना है और कुछ नहीं । इसीलिये कोई कुछ का कुछ ना समझे | यदि कोई ऐसा समझना चाहता है तो इसके लिये वह स्वयं जिम्मेवार होगा । हमारी यह बात पूर्णतः काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति, वस्तु या घटना से कोई पास-पास का नाता भी नहीं है । यह बात अलग है कि ज्यादा टिप्पणी पाने वाले ब्लॉगर उस दुकानदार की तरह हो जाते हैं जिसकी दुकान पर भीड ज्यादा रहने के कारण वह टुटपुन्जिये ग्राहकों की तरफ़ देखकर मुस्कुराना जरूरी नहीं समझता, यह उसकी मजबूरी भी है, क्योंकि ऐसा करने पर एक परमानेंट स्माइली मुद्रा अख्तियार करनी पड़ेगी | चाहे कोई ब्लॉग पोस्ट पर सिर्फ़ 'बढिया' या 'बहुत अच्छा' या 'लगे रहो' जैसे कमेन्ट भी कर रहा है तो भी वह वहां पर अपना समय और श्रम लगा रहा है । आपको लिखने की वजह दे रहा है । यदि आप सोचते हैं कि उसकी नीयत अपना लिंक देने की थी तो भी कुछ गलत नहीं है । मैं हिन्दी के कई महत्व्पूर्ण चिट्ठों से कमेन्ट की वजह से परिचित हुआ । बडका ब्लोग्गरों के द्वारा की गई टिप्पणी से बेनामी (अनामी) ब्लोग्गर उसी तरह प्रसन्न होते हैं जैसे अप्रसिद्ध लेखक किसी बड़े साहित्यकार की प्रशंसा से गदगद होते हैं |
इन सब दलीलों से प्रतीत होता है कि हिन्दी ब्लोगिंग में टिप्पणी एक पुन्न-कम-समझदारी का काम है | कहने की जरूरत नहीं की नेक काम करने से नेकनीयती बढ़ती है |
और अंत में :
बापू बोले अगर कोई टिप्पणी न करे तो टेंशन मत लो, उसके ब्लॉग पर टिप्पणी करते रहो | बोले तो फुल विनम्रता के साथ | एक दिन उसका ह्रदय परिवर्तित होगा फ़िर वो सिर्फ़ तुम्हारा ब्लॉग ही नहीं पढेगा, बल्कि उस पर टिप्पणी भी करेगा |
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