April 14, 2009

आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए !

शब्द भावों से रूठ गये
कविता के छंद सब टूट गए,
लफ्ज हलक से बाहर नहीं निकले
शायद इसलिए, पता नहीं किसलिए
वो ख़ुद से और जमाने से ऊब गए |

मंजिल का पता रास्ते का
ऐसा सफर किस वास्ते का,
फ़िर भी चलते-चलते, भीड़ में
अकेले हम बहुत दूर गए |

तुम्हारी अदाओं का ओर-छोर नहीं मिलता
हमारी खताओं का कोई जोड़ नहीं मिलता,
अदा है की अदाकारी, खता है कि दुश्वारी
आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए |

नफ़रत बिल्कुल लगती असली
प्यार-व्यार है झूठा नकली,
नफ़रत बरगद की जड़ हुई
प्यार हो गया छुई-मुई ,
इस चलन से हम चकित रह गए |

तरीका नहीं बात करने का
सलीका नहीं काम करने का,
बिना प्रसंग कि बात करें
बिना अनुबंध के काम करें,
ऐसे लोग और कितने रह गए |

जनता से नेता आते हैं
नेता से सीखे सब जनता,
कोई ख़ुद को नहीं बदलता
बस ऐसे ही चलता रहता |
फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |

कविता हो या कहानी
ग़ज़ल हो या तुकबानी
जो कहना था उसमें से
हम थोड़ा कुछ कह गए |

5 comments:

  1. कविता भा गई !

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  2. बिना प्रसंग कि बात करें
    बिना अनुबंध के काम करें,
    ऐसे लोग और कितने रह गए |
    कितना सुन्दर भाव..........बधाई.....

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  3. Bahut badhiya laga dhanyvaad
    Loksanghrsha.blogspot.com

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  4. जनता से नेता आते हैं
    नेता से सीखे सब जनता,
    कोई ख़ुद को नहीं बदलता
    बस ऐसे ही चलता रहता |
    फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |

    बहोत सुंदर पंक्तियाँ ......!!

    और हाँ प्रकाश बादाल जी के ब्लॉग पे आपकी टिप्पणी काफी ससक्त लगी ....!!

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