शेक्सपिअर का कथन है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग अपने कर्म से महान होते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है ।
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।
घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है | भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है | दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए | चाहे वह किसी भी पार्टी का हो |
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।
घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है | भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है | दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए | चाहे वह किसी भी पार्टी का हो |
नेताओ का अच्छा विश्लेष्ण किया है।बहुत बढिया!!
ReplyDeleteबहुत सही. मेरा तो मानना है, कि ऐसे दलबदलुओं को भी कोई तरजीह नहीं दी जानी चाहिये जो टिकट न मिलने पर तत्काल दूसरी पार्टी ज्वाइन कर टिकट भी हासिल कर लेते हैं.
ReplyDeleteबहुत बढिया!
ReplyDeleteअनोखा विश्लेषण रहा नेताओं का.
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