शब्द भावों से रूठ गये
कविता के छंद सब टूट गए,
लफ्ज हलक से बाहर नहीं निकले
शायद इसलिए, पता नहीं किसलिए
वो ख़ुद से और जमाने से ऊब गए |
मंजिल का पता न रास्ते का
ऐसा सफर किस वास्ते का,
फ़िर भी चलते-चलते, भीड़ में
अकेले हम बहुत दूर गए |
तुम्हारी अदाओं का ओर-छोर नहीं मिलता
हमारी खताओं का कोई जोड़ नहीं मिलता,
अदा है की अदाकारी, खता है कि दुश्वारी
आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए |
नफ़रत बिल्कुल लगती असली
प्यार-व्यार है झूठा नकली,
नफ़रत बरगद की जड़ हुई
प्यार हो गया छुई-मुई ,
इस चलन से हम चकित रह गए |
तरीका नहीं बात करने का
सलीका नहीं काम करने का,
बिना प्रसंग कि बात करें
बिना अनुबंध के काम करें,
ऐसे लोग और कितने रह गए |
जनता से नेता आते हैं
नेता से सीखे सब जनता,
कोई ख़ुद को नहीं बदलता
बस ऐसे ही चलता रहता |
फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |
कविता हो या कहानी
ग़ज़ल हो या तुकबानी
जो कहना था उसमें से
हम थोड़ा कुछ कह गए |
बहुत सुंदर लिखा ...
ReplyDeleteकविता भा गई !
ReplyDeleteबिना प्रसंग कि बात करें
ReplyDeleteबिना अनुबंध के काम करें,
ऐसे लोग और कितने रह गए |
कितना सुन्दर भाव..........बधाई.....
Bahut badhiya laga dhanyvaad
ReplyDeleteLoksanghrsha.blogspot.com
जनता से नेता आते हैं
ReplyDeleteनेता से सीखे सब जनता,
कोई ख़ुद को नहीं बदलता
बस ऐसे ही चलता रहता |
फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |
बहोत सुंदर पंक्तियाँ ......!!
और हाँ प्रकाश बादाल जी के ब्लॉग पे आपकी टिप्पणी काफी ससक्त लगी ....!!