November 22, 2009

भाषा में छिपे हुए भाव

बडा कौतूहल होता है
देखकर
जब प्‍यार और नफरत
उपेक्षा और अपनत्‍व
अस्‍वीकार और सहानभूति की भाषा
बेजुबान पशु पक्षी और अबोध नवजात
भी समझ जाते हैं ,
तत्‍क्षण |
वे भी,
जिनका भाषा और सभ्‍यता से
कोई सरोकार नहीं होता |
वे भी,
जिन्‍हें इनकी आदत पड गई है
सदियों से या कुछ ही वर्षों से,
अपमान और अस्‍वीकार सहन करने की |
जिन्‍हें लोग समझते हैं,
वे स्‍वीकार कर चुके हैं
अपने अस्तित्‍व पर थोपा हुआ ओछापन ,
नहीं !
वे सब जानते हैं
समझते हैं , शब्‍दों में
सवारी करते हुए
भावों के दर्प को
और अचेतन ढूँढता रहता है
एक इंसान
जो देख सके उन्‍हें
अतीत की हीनताओं से मुक्‍त |
करते हुए आज के पुरुषार्थ का सम्‍मान
माई बाप की रट लगाने वाला
गॉंव का पुसुआ भी और
साब साब कहने वाला शहर का
चाय वाला भी |

एक प्रेमी-प्रेमिका के बीच
शब्‍द वही रहते हैं फिर भी
समय के साथ उनके मायने बदल जाते हैं
ये सब
पता नहीं कैसे
पढ लेते हैं
भाषाओं के चेहरे
बिना अक्षर ज्ञान के !
यांत्रिकता और आत्‍मीयता को
पहचानते हैं
दुधमुँहे बच्‍चे , पालतू पशु भी
शब्‍द तो जैसे शरीर होते हैं और
भाव उनकी चेतना |
कैसे संप्रेषित हो जाते हैं
तरह तरह के भाव एक ही शब्‍द से
प्रत्‍येक 'हाय' या नमस्‍कार
अलग अर्थ देता है
यहँ तक की
लिखे हुए शब्‍द भी
बता देत हैं अपना मूड
कितने गुस्‍से या प्‍यार से
ईमानदारी या बेईमानी से
लिखा गया है उन्‍हें
क्‍योंकि निकलने वाले शब्‍द
मात्र शब्‍द नहीं होते
बल्कि
पूरा ब्‍लूप्रिंट लिए होते हैं
वक्‍ता की भावनाओं का
वरना क्यों, एक ही गाली
कभी तिरस्कार की तरह और कभी
आत्‍मीयता के प्रमाण पत्र की तरह लगती |

5 comments:

  1. सुन्दर विचारों को कुरेदती कविता -बहुत कुछ तो सहज बोध होता है -नैसर्गिक !
    हित अनहित पशु पक्षी चीहना !

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  2. सरस, रोचक रचना के लिए बधाई।

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  3. वरना क्यों, एक ही गाली
    कभी तिरस्कार की तरह और कभी
    आत्‍मीयता के प्रमाण पत्र की तरह लगती |


    =बेहतरीन रचना!!

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  4. बहुत सुन्दर रचना. मुझे लगता है अर्कजेश जी, कि भावों की भाषा बच्चे या फिर पशु-पक्षी ज़्यादा बेहतर समझते हैं. हम ज्यों-ज्यों बडे ,समझदार होते जाते हैं भावों को समझने में अक्षम होते जाते हैं या फिर जानबूझ कर गलत मतलब निकाल लेते हैं. कई बार हम सही को गलत और गलत को सही भी मान बैठते हैं. लेकिन बच्चे ऐसी गलती नहीं करते.

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नेकी कर दरिया में डाल