September 05, 2009

मास्टर हों त दुई जन खांय ...से कोचिंग गुरुओं तक

मास्टर हों दुई जन खांय |
लडिका हों ननिअऊरे जांय |

कोई सरकारी आदेश नहीं है जो शिक्षक दिवस पर लागू किया जानेवाला है | ये तो हमने 20-25 साल पहले अपने बड़ों को कहते सुना था | यह दीगर है कि मतलब हमें बहुत बाद में समझ में आया | वैसे ही जैसे स्कूल में घोटी हुई कई बातें बहुत बाद में किन्हीं-किन्ही मौकों पर समझ में आती रहीं | मतलब से हमें क्या मतलब | हम तो चार बड़े आदमी को जो कहते सुन लिए, उसी को आगे बढाते रहते हैं |

पर इतना जरूर है कि इन पंक्तियों के कहे जाने से अब तक मास्टरों ने लाखों दिन में करोड़ों पीरिअड ले डाले होंगे | और उनकी आय दो जन को खिला पाने वाले वेतन से छठवें वेतन आयोग तक पहुँच गयी हैं | तो क्या ये पंक्तियाँ तिथिबाह्या (outdated) हो चुकी हैं | पता नहीं |

पर इतना तय है कि राज्य सरकारों द्वारा अनुबंध पर रखे गए संविदा शिक्षको , शिक्षा कर्मियों , निजी विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षकों और केन्द्रीय-नवोदय तथा राज्य सरकार के नियमित वेतन पाने वाले शिक्षकों की तुलना की जाय तो फर्क सीधे-सीधे इंडिया और भारत का दिखाई पङता है | एक तरफ़ मोटी पगार पाने वाले नियमित शिक्षक हैं तो उन्ही के सात तीन हजार पाने वाले उनके सहकर्मी भी | एक तरफ़ पूंजीपति निजी स्कूल के मालिकान हैं तो कभी-कभी दैनिक मजदूरी से भी कम पर काम कराने वाले उनके टीचर |

"शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है" |

अपने स्कूली दिनों में इस विषय पर सभी ने लेख लिखें होंगे और वाद-विवाद प्रतियोगिताएं में पक्ष या विपक्ष में बोला होगा | अरे बोला नहीं तो सुना तो होगा ही | हम भी कहते हैं कि निर्माता है | लेकिन भी निर्माता भी कई तरह के होते हैं | इ शिक्षक निर्माता काहे हुआ निर्देशक नहीं हो सकता था ? खैर निर्माता हो चाहे निर्देशक हमें तो फिलिम देखने से मतलब है | टिकिट लिए हैं तो पैसा तो वसूल ही करना हैं | चाहे ससुर पिक्चर कितनी ही बोरिंग क्यों न हो |

गाँव के प्राथमिक विद्यालय में एक निरीक्षक महोदय पहुंचे | उन्होंने बच्चों से प्रश्न किया -"नर्मदा नदी कहाँ से निकलती हैं ? तो बच्चों ने बताया की इलाहाबाद से | निरीक्षक गरम हो गया मास्टर के ऊपर | बोला तुम यही पढाते हो ? ये बच्चे लोगों को क्या गलत-सलत सिखाते हो | नर्मदा को इलाहबाद से निकालते हो ? मास्टर साहब बोले ऐसा है साहब की तोहरे इ पन्द्रह सौ रुपित्ती में नर्मदा अमरकंटक से न निकलिहैं | तो मतलब मास्टरी तबका में भी सामाजवाद लाने के जरूरत है | नहीं तो पता नहीं कौन निर्माता कहाँ से क्या निकलवा दे |

कहते हैं कि पहले जब पेन कापी नहीं था, तब भी भारत देश में शिक्षा का बड़ा जोर था | अब इस बड़े जोर समूह में कितने लोग पढ़ते थे | ये बात मत उठाइएगा नहीं झगडा हो जाएगा | बस ये समझ लीजिये की अपना देश पहले से ही 'गुरु' था | वो भी कोई आऊं-बाऊं नहीं विश्व गुरु | ये सब हमें अपने गुरूजी लोगों से पता चला था | हमारे गुरूजी को उनके गुरूजी से और उनके गुरूजी को उनके गुरूजी से | इस तरह चढ़ते चढ़ते हम वैदिक काल तक पहुँच जायेंगे |
बस वही आगे बढ़ा रहे हैं | इस तरह सदियों से ज्ञान रट्टा पद्धति के द्वारा हमारे देश में एक गुरु से दूसरे गुरु तक सफर करता रहा | जस का तस | स्मरण शक्ति इतनी तेज थी कि ज्यों का त्यों घोट लेते थे | जरा भी इधर उधर हुआ कि अयोग्य घोषित | एकदम से फेल हो गए | पूरक का कौनो नियम नहीं था | जो भी नतीजे या भतीजे निकालें वो सब पिछलों से मेल खाने चाहिए वरना शास्त्र द्रोही |

नुकसान ये हुआ कि पूरी शिक्षा पद्धति में रट्टा घुस गया | और सारी गुरुई के बावजूद ज्ञान माने सूचना हो गया | स्थिति को मद्देनजर रखते हुए देश के महारथियों ने मैकाले को गरियाने के साथ-साथ पचास साल में कई कमीशन बिठा डाले | लेकिन रट्टा हर जगह घुसा रहा और शिक्षाविदों के अचेतन में मैकाले भी |
नतीजा विद्यार्थियों के पीठ के ऊपर किताबों का बोझ बढ़ता रहा | सब कुछ लाद कर चलना है | पीछे का ज्ञान भी और अभी का ज्ञान भी | 8-10 किलो का बस्ता लादकर चलते हैं | इतना वजन तो हमारे समय में भी नही लादा जाता था | लगता है कि कुली गिरी की अभी से प्रैक्टिस करवाई जा रही है | अब बस्ता 10 किलो है, तो बस्ता फेंक कर सीधे टूशन के तरफ़ तो भागना ही पड़ेगा | पहले के बच्चे स्कूल के बाद खेल के मैदान में ही दिखाते थे | वो बात अलग है कि ओलुम्पिक में पदक नहीं ला पाये |

यदि आपको रट्टा प्रतिपादक विचार जरा ओवर लग रहा हो तो बताइए कि यह क्यों कहा जाता है कि "रट्टाफिकेशन इस दा बेस्ट प्रिपरेशन फॉर दा एक्सामिनेशन" |

मास्टर भी क्या करें !
विद्यावार्धिनी की कृपा के महत्व से कौन परचित नहीं है | बिना गुरु की छडी प्रसाद से विद्या लाभ नहीं होता | मास्टर जी को भी ऐसे ही हुआ था | ऐसे ही बच्चों को भी करवाएंगे | इस मुगालते में मत रहिएगा कि हम पुराणी बात कर रहे हैं | आज भी ऐसी घटनाओं से अखबार खाली नहीं हैं कि फलां मास्टर/मास्टरनी ने किसी शिष्य/शिष्या प्रसाद को इतना गुरु प्रसाद दे दिया कि वह अचेत हो गया या उसका अंग-भंग हो गया | बहुत से पुराने लोग इस कृपा प्रसाद को नबर्दाश्त कर पाने के कारण अनपढ़ रह गये थे |

कई शिक्षक इसलिए दुखी अवस्था में पाये जाते हैं कि अब विद्यार्थी शिक्षकों का उतना सम्मान नहीं करते | वजह वही कि एक परम्परापूजक शिक्षक अपने को शिक्षक नहीं गुरु समझता है | गुरुडम |
शिक्षक समझता है कि वह विद्यार्थियों को सिखाने के लिए तैनात किया गया है | उस पर श्रद्धा भाव रखा जाय |
"श्रद्धावान लभते ज्ञानं|"

जब तक शिक्षक को यह बोध नहीं होगा कि उसका काम "कुछ सिखाना नहीं बल्कि सीखने की 'प्रक्रिया' में मददगार बनना है" तब तक उसका दुःख कम होने वाला नहीं है |

जैसे सुकरात कहता था कि मेरा काम धाय(दाई) का है | जैसे दाई बच्चा पैदा होने की प्रक्रिया में सिर्फ़ मददगार होती है | वह बच्चे को उत्पन्न नहीं करती | ठीक उसी तरह शिक्षक को भी बच्चे कि प्रतिभा को उभारना होता है जो कि उसके अन्दर पहले से ही छुपी हुई होती है | कितने शिक्षक इस बात को ध्यान में रखकर शिक्षा कर्म करते हैं |
यह आज के समय की विकट मांग है कि हमारे देश की शिक्षा कि पूरी प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है | यह एक शुभ संकेत है कि इस दिशा में कुछ साहसिक कदम उठाने के प्रयास शुरू कर दिए गए हैं | और हम अपने वर्तमान मानवा संसाधन विकास मंत्री से कुछ सकारात्मक सुधारों कि आशा रखते हैं |

लिखने के लिए अभी हमारे दिमाग में बहुत चीजें कुलबुला रहीं हैं | लेकिन अभी हम स्वामी विवेकानंद की एक बात से बात ख़त्म करते हैं | विवेकानंद ने अपने किसी व्याख्यान में फटकारते हुए कहा था -

"तुम क्या समझते हो ?

पश्चिम की गरिमा उनके कपडों और फैशन में है ? उनकी गगनचुम्बी इमारतों और आलिशान जीवन शैली में है ?
नहीं
"पश्चिम (अमेरिका भी) का प्राण उसके विश्वविद्यालयों में है | अमेरिका के चंद विशवविद्यालय उसकी आत्मा हैं | उसकी शक्ति हैं | जहाँ रोज विज्ञान जन्म लेता है | रोज इस दुनिया के रहस्यों से परदा उठाने वाले शोधों के परिणाम आते हैं |" अमेरिका के चार विश्वविद्यालय नष्ट कर दो अमेरिका पंगु हो जाएगा |
ये विवेकानंद के उद्गार हैं |

लेकिन ये सब मनोरंजन के लिए हैं | इनको सिरिअसली लेकर टेंशन नहीं लेने का |

पढ़ते पढ़ते फट जाएँ बस्ते
पढ़ाई यूँ ही चलती रहे |
जीरो मिले या वन
बदलेंगे न हम
टीचर चाहे बदलते रहें |

Education in Bharat: Resuscitation is the need of the Hour

6 comments:

  1. एक तहसीलदार साहब ने स््थानीय गुरु जी से अपने बच््चे को घर पर पढ़ाने के लिए कहा। गुरु जी पढ़ाने लगे। एक दिन तहसीलदार का बच््चा रट््टा लगा रहा था। ....एस एच व््हाइटवाश, व््हाइटवाश माने गोबरी करना। सुनकर तहसीलदार साहब का माथा ठनका। बहुत जोर से बच््चे को डांट लगाई। यह क््या वाइटवाश माने सफेदी करना या गोबरी करना। बच््चे ने कहा गुरु जी तो यही पढ़ाते हैं। तहसीलदार गुरु का इन््तजार करने लगे। आते ही उन््होंने कहा कि क््या माड़साब वाइटवाश माने गोबरी करना पढ़ाते हैं? गुरु तो ठहरे गुरु तुरंत जवाब दिये कि दस रुपिल््ली में गोबरी करना नहीं तो क््या सफेदी करना पढ़ायेंगे। तहसीलदार ने तुरंत फीस बढ़ा दी, सोचे कि फीस बढ़ाओ नहीं तो माड़साब बच््चे का भविष््य गोबरी कर देंगे।

    ReplyDelete
  2. फिर भी कहे देते हैं:

    शिक्षक दिचस पर समस्त गुरुजन का नमन!!

    ReplyDelete
  3. अर्जकेश जी,
    सुंदर आलेख ! ज्ञानवर्धक भी और मनोरंजक भी ! यह महत्त्व के प्रश्न भी खड़े करता है ! आपके लिखने का स्टाइल उन व्यंग्य-रचनाकारों के पैनेपन को छूता है, जिन्होंने कीर्तिमान गढे हैं. बधाई !
    [ब्रैकेट में यह कहना चाहूँगा कि आलेख लिखने के बाद उसे एक बार पढ़कर अशुद्धियों को अवश्य दूर कर दिया करें]
    सप्रीत...आ.

    ReplyDelete
  4. बहुत सही. आज शिक्षा में भारी परिवर्तन की ज़रूरत है.बच्चों को उनका बचपन लौटाना सबसे बडी ज़रूरत है.बढिया आलेख.

    ReplyDelete
  5. Arkjesh first of all i would like to thank you for this thought provoking article on India's deteriorating educational standard and the lack of sincerity of our teachers. Gone are the days of sincerity and honesty or dedication though salary has increased manifold.

    Certainly, there are some problems that our planners or human resource ministry must look after. the weight of the satchel has been increasing day by day as if we are training our children to become weight lifter or something like that.

    Everywhere one will find a different system of education and different set of books. This does not serve any purpose. How about integrating the entire system and start a single system throughout the length and breadth of the country? Certainly, i think such a system is the need of the hour.

    Regrettably, we have not been according any importance to Education and just approaching this higher subject casually. But parents are not casual and those who are financially able have been sending their children to Private run school be it English or Vernacular medium. And our government run schools have become centers to teach the children under Education for all or Sarbasiksha. Those poor students who cannot afford paid study attend these institutions and fail to compete in the long run with children from private schools. Our aim should be to bring those children of government schools at par with the children of private school.

    Those who cannot find any job becomes teachers. Obviously, this is not good for the education of our children. Once i pointed out a mistake of a teacher and after a lot of persuasion my son changed his view. when the same was written in the diary, the teacher just chided me through my son. She said, "Ask your father to teach, if he is so knowledgeable." This is a teacher who thinks her job is to teach. But i think, teacher must learn before teaching. Learning is a continuous process and a good teacher always learns and changes accordingly. When a teacher fails or ceases to learn, he or she ceases to be a teacher.

    In this column i would like to pay my deep regard and submission to my teacher during my primary schooling. His name was Brushabhanu Barik. What i am today is but for him. His teaching was was full of examples and special care. He would not leave even a single child and would like to teach that child specially. He would ask students to come to his house for tuition in the evening and he would ask no money for that. But today Tuition has become a profitable option for teachers. Instead of teaching in class teachers are teaching in coaching classes or tuition classes. This is absurd.

    We need to change this attitude and the selection process of teachers should be tighter. And their training process should also be vast and varied.

    Time has come for a comprehensive overhauling of our Education system. If not done then a majority of Indians who cannot afford paid education will be deprived of learning and its benefit. This will again divide our society in the line of education and knowledge which is not good for our society.

    Come on we cannot afford another fragmentation of India.

    Arkjesh you have quoted my post as a reference, i feel honoured and thanks for that act.

    ReplyDelete
  6. तिथि-पर्वों पर किया गया लेखन आम तौर पर तात्‍कालिकता या फरमाइश का परिणाम होता है और कई बार उसे प्रसंग पर भी पढ़ना नहीं भाता. लेकिन आपकी यह पोस्‍ट बरसों-बरस की सोची-पची बातों का परिणाम जान पड़ती है, जिसकी पठनीयता और महत्‍व साल भर और स्‍थायी होगा. गैर-पेशेवराना ताजगी भरा पोस्‍ट, बहुत-बहुत बधाई.

    ReplyDelete

नेकी कर दरिया में डाल