एसपी ने काजू सिंह से पूछा - "क्यों ? बन्दूक किसलिये चाहिये ? बन्दूक लेके डाका डालोगे ?"
काजू ने सीधे-साफ़ कह दिया - "साहेब डाका डालना होता तो हम लाइसेंस मांगने आपके पास नहीं आते । (नहीं दोगे तो डकैती ही डालनी पड़ेगी) सिक्योरिटी गार्ड की तीन हजार की पगार में घर नहीं चलता । लाइसेंस मिल जाये तो दुनाली बन्दूक खरीदकर गनमैनी करेंगे । छह-सात हजार मिलेंगे तो कुछ बेहतर से रह पायेंगे । बच्चे भी पढने लायक हो गये हैं । रोजगार-धन्धा के लिये भी पूंजी चाहिये । वह भी इस मन्दी में न चलने की गुन्जाइश ही अधिक है । और हमसे छोटा-मोटा धन्धा होता भी नहीं ।"
इस तरह एसपी ऑफ़िस से पास होकर कलेक्टर के यहां उनका मामला पहुंचा । इस मिशन में काजू सिंह ने चपरासी से लेकर विधायक तक पहुंचने के लिये, अपने से लेकर अपने पूर्वज ठाकुर दूरबीन सिंह तक के सारे नाते-रिश्ते परिचय का इस्तेमाल कर डाला ।
कुछ शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह दी कि पीएमारवाय से लोन लेकर कुछ करो । इस पर उन्होनें कई साथियों के उदाहरण दिए । इनमें से कईयों ने कर्ज ले लिया लेकिन किश्त पूरी नहीं कर पा रहे । कुछ ने धंधा बन्द कर दिया और कुछ दूसरा काम करने लगे । बैंक वालों से बचते फ़िरते हैं ।
बन्दूक का लाइसेंस मिलने पर काजू सिंह को इतनी खुशी हुई जितनी किसी को नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिलने पर हो सकती है । लाइसेंस पाते ही काजू ने बन्दूक खरीदने के लिये रुपयों का जुगाड शुरू कर दिया । गांव में तो कोई उनका इकलौता खेत गिरवी रखकर भी रुपये देने के लिये तैयार नहीं था, यद्यपि लाइसेन्स की वजह से अपने कर्मचारियों और गनमैनों के बीच उनकी साख में रुपये कबाडने लायक बढोत्तरी हो चुकी थी । साथ ही करीबी रिश्तेदारों से (जिनसे उन्होने पहले से ले रखा है) भी कुछ मिल जाने की आशा थी । इस तरह 15 दिन के अन्दर काजू सिंह ने तीस हजार का जुगाड करके दुनाली बन्दूक खरीद ली है । बन्दूक लेकर आते ही उन्होंने दो विजयी फ़ायर करके देढ सौ रुपये फ़ूंक दिये । नुकसान की बात उन्होनें जाहिर भी की । इस अवसर पर अफ़सोस इस बात का रहा की फ़ैशन के चक्कर में उन्होनें मूंछे साफ़ करवा ली थीं, सो मूंछों पर ताव नहीं दे सके । खैर, अब उन्होंने मूंछें बढाने और गनमैनी का काम ढूंढना साथ-साथ शुरू किया है । काजू सिंह के अनुसार बन्दूकधारी के लिये गनमैनी की नौकरी उतनी ही आसान है जितनी कि एक मर्द के लिये मूंछें बढाना आसान है ।
बहरहाल, हम यह सब यहां इसलिये छाप रहे हैं क्योंकि काजू सिंह को आभासी दुनिया में कोई रुचि नहीं । बिल्कुल जमीन से जुडे हुए यथार्थवादी आबादी के प्रतिनिधि हैं । ग्लोबलाइज़ेशन वगैरह से वो परिचित नहीं हैं । पढाई 10 वीं तक की हुई है | १२वीं की परीक्षा दुर्भाग्यवश नहीं पास कर सके क्योंकि कापी लिखने वाले उनके दोस्त की नौकरी लग चुकी थी । उनके बाकी साथी इतने काबिल नहीं थे । वे सिर्फ़ नकल करवा सकते थे लिख नहीं सकते थे । हाँ, ये बात जरूर है कि वे नौकरी में भी अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने की कोशिश करते हैं, इसी सनक की वजह से पाँच साल में पचास जगह नौकरियां बदल चुके हैं |
इनकी कथा कहते रहेंगे तो बहुत लम्बी चलेगी | फिलहाल तो काजू सिंह गनमैनी ढूंढकर 12 घंटे की शिफ़्ट करने के फुल मूड में हैं | ताकि अपने ऊपर चढ़े हुए कर्जे से मुक्त हो सकें |
हाथ में गन लेकर खडा आदमी जरूरी नहीं कि वीर सैनिक या दुर्दान्त आतंकवादी ही हो । वह एक निरीह आम आदमी भी हो सकता है । जिसकी तरफ़ कोई नोटिस नहीं लेता | जिसकी बन्दूक उतनी ही मजबूर है जितना कि वह खुद ।
सन्देश आपका काफी स्पष्ट है कि एक इज्जत की रोटी खाने के लिए क्या-क्या पापड नहीं बेलने पड़ते !
ReplyDeleteलेकिन इतना जरूर कहूंगा कि इज्जत और मेहनत की एक रोटी में जो शकुन है, वह आपके गन मैंन को बखूबी मालूम था !
गोदियाल जी से सहमत!!
ReplyDeletelet my head is beheaded but my mustache remains intact. It was profligacy and nothing to live a life of dignity taking loan. Better face the ground reality and change or adapt accordingly. What is the use of gun and all the toing and froing for buying a gun when other avenues are wide open. This happens when one lives in the present and dont line to see what are going on around.
ReplyDeleteYou have given a very good example. What is the need of hour; just some amount of flexibility in thinking and adaptation like bamboo tree. If there is rigidity life banyan tree then braking is obvious. Your character Kaju lacked far sight and flexibility. Bless some to him and people of his thinking or mould.
thanks.
गोदियाल जी से सहमत!!
ReplyDeleteवाह बहुत सच्ची बात लिखी है आपने.मेहनत की रोटी तो सुख और सुकून देती ही है. काजू सिंह की कथा के माध्यम से बहुत खरी बात कही है आपने. अपनी विधा से अलग हट कर लिखा है आपने .बहुत सुन्दर. बधाई.
ReplyDeleteआपकी दो टूक बात से सहमत हूं ! हथियार किसी के लिए हिंसा का साधन हो सकता है तो किसी के लिए आजीविका का ! आजीविका के लिए शवदाह गृहों में मुर्दा फूकने वालों , फांसी देने वाले जल्लादों , कूडा और मैला ढोने वालों की स्थिति और काजू सिंह की स्थिति में कोई फर्क नहीं है !
ReplyDeleteअर्जकेशजी,
ReplyDeleteअच्छी लघु-कथाओं की श्रेणी में रखा जाने लायक राइट-अ़प ! यह विवशता बंदूकधारी गनमैन की ही नहीं, उन सबों की है जो ईमान की रोटी खाना चाहते हैं; लेकिन मजबूरi ही इमानदार इंसान गढ़ती है. धूमिल की हमेशा जिंदा पंक्तियाँ याद हैं न ?
'दुःख होता है अगर किसी की
मिली नौकरी छूट गई हो,
लेकिन उतना नहीं
कि जितना--
बार-बार सुनने पर भी फटकार
आदमी लौट काम पर
फिर आया ho
कॉलर फटी कमीज़ पहनकर....!'
ऐसा भी लिखिए और खूब लिखिए, धूमिल के शब्दों में ही कहूँगा--
^मुझे लिखो
मैं कटी हुई उंगलियाँ हूँ
जिसे भूख ने खा लिया है ...!*
साधुवाद प्रियवर.... आ.
WHO IS KAJU SINGH
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