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चित्रकार !
एकदम नन्हीं सी,
जैसे
ख़ुद कोई विचरता हुआ चित्र |
कोई तितली आ गई हो
डोलती हुई
प्रकृति के कैनवास से,
पेन लेकर |
अपने होने के
एहसास से भी अनभिज्ञ
अहंशून्य !
समग्रता से मौजूद अपनी चंचलता में |
जितना कोई
महान चित्रकार भी,
मौजूद नहीं रहा होगा
अपने मास्टर पीस में |
पूरी तरह डूबी हुई,
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बेतरतीब रेखायें, धब्बे,
छोटॆ-छोटे जाले बनाने में |
चिडिया, कीडे-मकोडॆ और
जलेबियाँ बनाने में,
व्यस्त |
लेकिन सब बेबूझ,
आधुनिक चित्रकार है नन्ही :)
लेकर हाथ में पेन
अपने पापा का
घूम रही है कमरे में और
उकेर रही है चित्र |
किताबों पर, कापियों पर
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दीवार पर,
अपने हाथ-पैर और खिलौनों पर |
अपने पहुंच की एक-एक जगह को
भर देना चाहती है
अपने अर्थहीन चिन्हों से |
चिन्ह
जो बने हैं डायरियों और किताबों में |
बदल जाते हैं
नन्हें चित्रकार में, रंगीन तितलियों में,
पन्नों के खुलते ही |
संजीदगी से घुमाकर
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रबर से कोमल नन्हें हाथ,
किलकती है, हर्षातिरेक से,
खींचती हुई अपना फ़्रॉक |
और अंकित हो जाते हैं
कुछ कालजयी चित्र
एक पिता के मन पर |
हां बच्चे इतनी ही तन्मयता से अपना लेखन-चित्रांकन करते हैं. उन्हें कोई फ़र्क नहीं पडता कि वो दीवार है या किताब.सुन्दर रचना.
ReplyDeleteइस नन्हीं चित्रकार को ढेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
एक नन्ही गुडिया के पिता के अन्तर्मन का कौतुहल समझा जा सकता है कविता में !
ReplyDeleteबंधू,
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर चित्रांकन हुआ है नन्हीं बिटिया के हाथों ! काल-फलक पर ये चित्र कब तक रहेंगे, नहीं जानता, लेकिन कवि के और पाठकों के हृदय-तल पर अवश्य अंकित रहेंगे अशेष कालावधि तक, संदेह नहीं ! सप्रीत...!