April 24, 2009
वह अदृश्य है !
वह क्या है ?
जो मुझे जोड़ता है
तुमसे,
और तुम्हे मुझसे,
बिना किसी माध्यम के
बिना किसी कारण के.
वह क्या है ?
जो मुझे दिखाता है
तुम्हारा चेहरा,
और
शायद तुम भी,
महसूस कर सकते हो मुझे,
जैसे मैं सामने ही बैठा हूँ.
वह क्या है ?
जो एहसास कराता है
मां को बच्चे की भूख का,
उतारता है उसके स्तनों में अमृत
और पोसता है आइन्स्टीन और बुद्ध को.
वह क्या है
जो मुझे खुश कर देता है,
तुम्हे देखकर, वर्षों बाद
सारे स्वार्थों
और संबंधो के ख़त्म हो जाने पर भी.
वह क्या है ?
दूरियां जिसके लिए,
अपना अर्थ खो देती हैं, और
समय विलीन हो जाता है,
क्या किसी ने अपने
प्रिय के पास बैठकर,
समय का अनुभव किया है ?
क्या वह एहसास है,
क्या मैं उसे भावना कहूं,
या उसे प्रेम कह दूं,
उसे तुम जो भी नाम दो
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
बल्कि उसे नाम की सीमा से मुक्त रखो.
वह तुम्हे विशिष्ट नहीं सामान्य बनाता है,
विशेष नहीं सरल बनाता है,
बूढा नहीं जवान बनाता है,
वह तुम्हे समझदारी के बोझ से
मुक्त करता है, और
बिना पाने की इच्छा के खोने
की इजाजत देता है.
जो मौत के सामने भी
भगत सिंह का वजन बड़ा देता है,
और उसे पुलक से भर देता है.
क्योंकि वह क्या है
यह महत्वपूर्ण ही नहीं है,
वह होना चाहिए यही महत्वपूर्ण है.
क्योंकि वह वही है,
जो हमें मनुष्य बनाता है.
उसकी कमी मनुष्यता की कमी है,
जीवन की कमी है,क्योंकि
वह जीवन को जीवंत बनाता है
मैं नहीं जानता वह क्या है ?
मैं जानना चाहता था कभी,
पर अब नहीं जानना चाहता.
पर इतना तय है कि
वह मनुष्य को मशीन
होने से शैतान होने से बचाता है।
इस कविता का बहुत ही खूबसूरती से किया गया अंग्रेजी अनुवाद What is That
यहां पढ सकते हैं |
http://thatlovedflower.blogspot.com/2009/05/this-is-summary-whats-that-that-unites.html
April 22, 2009
नेता के टाइप - रेडीमेड, मेड और थोपित
शेक्सपिअर का कथन है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग अपने कर्म से महान होते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है ।
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।
घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है | भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है | दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए | चाहे वह किसी भी पार्टी का हो |
ऐसे ही भारतीय राजनीति में नेता भी 3 तरह के होते हैं । यद्यपि मैनें सुन रखा है कि आजादी के बाद देश में कोई नेता ही नहीं पैदा हुआ । लेकिन मुझे इस बात पर जरा भी यकीन नहीं है । इतने सारे नेता क्या आसमान से टपके हैं ।
जन्म से नेता - ऐसे नेताओं की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, राजनैतिक पार्टियां अपने अन्दर राजवंशों की तरह बर्ताव करने लगी हैं । पहले युवराज या राजकुमारी शिक्षा ग्रहण कर आने के बाद उत्तराधिकारी घोषित कर दिये जाते थे । ऐसे ही अब राजनीतिक पार्टी के आकाओं के सुपुत्र-सुपुत्रियों का भी भविष्य में पार्टी की बागडोर पकडना सुनिश्चित होता है । पार्टी पर शासन करने के लिये राजशाही खून जरूरी है। जिन्दगी भर पार्टी के लिये मरने खपने वाले वरिश्ठ नेता और कार्यकर्ता उनकी सेवा में लग जाते हैं । यह सोचकर की राजा तो राजवन्श का ही होगा वफ़ादार बने रहते हैं । जन्म से नेता होने के लिये राजपुत्र होना जरूरी नहीं है, बल्कि राजवन्श से किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी पैदाइशी नेता बनने की आवश्यक योग्यतायें हैं।
दूसरे तरह के नेता वे होते हैं जो पार्टी कार्यकर्ता से शुरु होकर क्रमशः ऊपर कि तरफ़ सरकते हैं । राजनीति का वह दौर अब समाप्त हो चुका है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों में भी गरीब घर से आने वाले प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँच गये थे । अभी तो फ़िलहाल ऐसी घटना घटने की कोई सम्भावना नहीं दिखती ।
घिस-घिसकर ऊपर जाने वाले नेता अधबीचे तक पहुंचते-पहुंचते समाप्त हो जाते हैं । ऐसे नेताओं का कद हमेशा जन्मना नेताओं से दोयम रहता है। बहुत जोर मारा तो अलग पार्टी बनाकर उसकी अगुआई करते हुए पुरानी पर्टी के नेताओं के सिद्धांत को कायम रखते हैं । या कोई सस्ते हथकन्डे अपनाकर एक दिन में राष्ट्रीय पहचान बना लेते हैं ।
तीसरे तरह के नेता वे होते हैं जिन पर नेतापन थोपा जाता है । इनको कम्पनी के ब्रान्ड अम्बेसडर समझिये । जैसे कोई कार बेचनी है तो किसी मॉडल को उसकी बगल में खडा कर दो । इस तरह के व्यक्ति वे होते हैं जिन्हे "सितारे" कहा जाता है, दूर से अच्छी लगने वाली मनोरंजक वस्तुयें । फ़िल्मी सितारे, मॉडल, क्रिकेट के खिलाडी, बडे-बडे उद्योगपति होते हैं । राजनैतिक दल इनकी लोकप्रियता को भीड इकट्ठी करने के लिये इस्तेमाल करते हैं । इस तरह की नेतागिरी लोकप्रियता की जमा पूंजी को राजनीति में इन्वेस्ट करने की होशियार कोशिश है । प्रायोजित नेता राजनीति में अपने पुराने धन्धे की वजह से ही जाने जाते हैं । यदि काम से रिटायर होकर आते हैं, तो ग्लैमर की एक दुनिया से निकलकर दूसरे में प्रवेश हुआ और एकाध बार सांसद वगैरह हो गये तो पैसा वसूल । यदि अभी काम कर रहे हैं (यद्यपि उधर भी मन्दी चल रही होगी या लोग रिटायर्मेन्ट की मांग करने लगे होंगे इसीलिये इधर रुख किये हैं ) तो चुनाव के बाद फ़िर अपने सूटिंग व्गैरह में व्यस्त हो जाना है | भारतीय मानस चमत्कारों से चौंधियाना चाहता है | दिमाग से कम भावुकता से ज्यादा काम लेता है, नहीं तो ऐन चुनाव के वक्त आकर पार्टी का सदस्य बनकर चुनाव क्षेत्र में आने वालों और उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की जुर्रत कराने वालों को जनता को रगेद देना चाहिए | चाहे वह किसी भी पार्टी का हो |
April 17, 2009
विकसित होने के बगल प्रभाव(साइड इफेक्ट) : सन्दर्भ भारत देश
हर अच्छाई के साथ एक बुराई जुड़ी होती है, जैसे खाना खाने के साथ संडास जाना जुडा है | इत्यादि | इस बात को संक्षेप में कहने के लिए जो सबसे प्रचलित और उपयुक्त शब्द है, वह है "साइड इफेक्ट" अर्थात बगल प्रभाव | ज्यादातर हर्बल दवाओं में लिखा रहता है - 'कोई साइड इफेक्ट नहीं' |
इस दुनिया में हर चीज का बगल प्रभाव होता है, इस विषय में एक फ़िल्म भी बन चुकी है - 'प्यार के साइड इफेक्ट' , जो 14 फरबरी के दिन सबसे ज्यादा होते हैं | इस दिन प्यार के बगल प्रभाव कभी कभी इतने प्रबल हो जाते हैं कि अगल बगल से डंडे पड़ने के रूप में सामने आते हैं और मुख्य प्रभाव कि तरह लगते हैं, जैसे किसी किसी फ़िल्म में बगल हीरो मुख्य हीरो को दबा देता है | लेकिन यहाँ मेरा मुख्य विषय न तो 14 फरबरी है न ही प्यार मोहब्बत जो मुख्य विषय है वह आगे चलने पर मिलेगा | ये तो केवल छोटे-छोटे कुछ बगल विषय हैं |
बगल प्रभाव शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसके पहले कोई मुख्य प्रभाव होता है, जिसके लिए कोई प्रयास किया जाता है| लेकिन यह बगल प्रभाव चाय कि पत्ती के पैकेट के साथ मिलने वाले कप या सोने के सिक्के कि तरह फ्री गिफ्ट नहीं है, बल्कि यह बिना बुलाये मेहमान या उस अनचाहे गर्भ कि तरह होता है जो ब्रह्मानंद सहोदरम कि चाह में गले पड़ जाता है |
न्यूटन के अति प्रसिद्द नियम के अनुसार हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिकिया होती है, लेकिन उन्होंने किसी बगल क्रिया या प्रभाव का उल्लेख नहीं किया है , शायद वह प्रतिक्रिया दो भागों में विभाजित हो जाती होगी - मुख्य क्रिया और बगल क्रिया |
मेरा विषय भारत देश के विकसित हो जाने पर पड़ने वाले बगल प्रभाव के बारे में चर्चा करना है |
हमारे प्यारे भारत देश में एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति हुआ करते थे | उन्होंने पहले मिसाइलें वगैरह बनाई, फ़िर संयोग से राष्ट्रपति बन गए | लोग उन्हें मिसाइल मैन भी कहते हैं | पूर्व राष्ट्रपति महोदय का नाम है - ए.पी.जे. अब्दुल कलाम | राष्ट्रपति काल में उन्होंने एक अभियान सा छेड़ रखा था की भारत देश को सन फलां-फलां मतलब 2020 तक विकसित देश बना देना है | इसके लिए उन्होंने बाकायदा योजना बना रखी थी | उस समय राष्ट्रपति थे सो सबको उनके अभियान का पता चलता था | अखबार, टीवी इत्यादी में आते रहते थे | इधर सेवानिवृत्त होने के बाद दिखाई नहीं पड़ते (अखबार, टी वी आदि में)
अब कलाम साहब ठहरे वैज्ञानिक बुद्धि के आदमी उन्होंने जैसे मिसाइल वगैरह विकसित की वैसे ही सोचा की देश को भी विकसित कर देंगे,लेकिन देश कोई मिसाइल की तरह जड़ पदार्थ तो है नहीं की जैसी चाहें आप उसके साथ मनमानी कर लेंगे | देश बनता है देशवासियों से और देशवासी होते हैं - इन्सान अथवा मनुष्य नामक जीव | वह भी भारत जैसे दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र के |
तो मैं बात कर रहा था, विकसित होने के खतरों की| इसके पहले की आप मुझे कुछ का कुछ समझे और मुझे कहना पड़े "कि मेरा यह मतलब नहीं था" मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं देश के विकसित होने के खिलाफ बिल्कुल नहीं हूँ और मेरी बातों को तोड़ मरोड़ कर न पेश किया जाए | मैं तो भारतीय लोकतंत्र का एक जिम्मेवार नागरिक होने के नाते सिर्फ़ आपका ध्यान उन बगल प्रभावों (साइड इफेक्ट्स) कि और दिलाना चाहता हूँ जो विकसित हो जाने के बाद भारत देश के ऊपर तारी हो सकते हैं |
विकसित देशों के कुछ मोटे-मोटे लक्षण जो मैंने सुन रखे हैं, उनमें से कुछ यूँ हैं कि विकसित देशों में जीवन स्तर ऊंचा होता है, प्रति व्यक्ति आय बहुत ज्यादा होती हैं, स्वाथ्य और शिक्षा पर खर्च बहुत ज्यादा होता है, आधारभूत ढांचा मजबूत होता है, इत्यादि |
दुनिया में जो भी विकसित देश हैं उनमें राजनीतिक दल 3-4 से ज्यादा नहीं हैं | मुख्यतया 2 या 3 राजनीतिक दल ही हैं | हमारे यहां भी शायद 8-10 दर्जन ही होंगे एकाध दर्जन ज्यादा भी हो गए तो कौन सा गजब हो जायेगा 1अरब का देश है | सबको फलने फूलने दीजिये | देश यदि विकसित हो गया तो इन 4 दर्जन राजनीतिक दलों के 4 हजार दर्जन नेताओं का क्या होगा (डाटा में सुधार कर सकते हैं ) | इन सबको बेरोजगार कराने का इरादा है क्या ? वैसे भारत देश में बेरोज़गारी कम है ? जो आप और बेरोजगारी बढ़ाना चाहते हैं | यह बात अलग है कि बेरोज़गारी भारत देश में कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाती | मुद्दे कि बात से मुझे याद आया कि विकसित देशों के चुनावी मुद्दे भी अलग टाइप के होते हैं, जैसे शिक्षा, शोध, रोजगार, स्वास्थ्य, पर्यारण इत्यादि | देश को विकसित करके आप हमारे प्यारे (? ) नेताओं से मुद्दे भी छीन लीजियेगा | यहाँ तो ये सब नहीं चलेगा न भाई ! ये भी कोई मुद्दे हैं जी शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण | भारत देश में धर्म, जाति, आरक्षण, भाषा विवाद आदि आदि मुद्दे बनते हैं और मुद्दे कम पड़ें तो एक-दो भड़काऊ वक्तव्य दे दीजिये या इतिहास का कोई गदा मुर्दा उखाड़ लीजिये और उसे जीवित कर दीजिये या कोई काल्पनिक संकट पैदा कर दीजिये | आप छा गए अखबारों और टीवी में |
बाढ़ -सूखे वगैरह भी कोई मुद्दे हैं, वो तो यहाँ हर साल आते हैं और जाते हैं | कम से कम उसी बहाने कुछ फंड तो आ जाता है नहीं तो चुनाव कैसे लडेंगे और चुनाव नहीं लड़े तो लोकतंत्र को खतरा ! भारत देश के नेता को बद्बुक समझाते हैं का ! की आपके विकसित होने के चक्कर में अपने मुद्दे और ख़ुद को गवां दे | वैज्ञानिकों के साथ यही दिक्कत है एक सुर पकड़ लेते हैं, अरे कुछ समझिये साहब |
सिर्फ़ नेता की ही बात होती तो चलो मान भी लेते | आप क्या समझते हैं की आम आदमी क्या कम झंझट में पड़ेगा ?
अरे हमको पहले तैयार तो होने दीजिये | देखिये अभी हमको अभ्यास नहीं है | जब तक पुलिस वाला चौराहे पर डंडा लेकर नहीं खड़ा होता हमारे हाथ पैर ब्रेक ही नहीं लगाते तो इसमें हमारी क्या गलती है | लाल हरी बत्ती अपनी जगह लगी है लगी रहे | हमारे लिए तो पुलिस का डंडा ही सबसे बड़ा सिग्नल है | आप कहते हैं की विकसित देश में लोग लाल बत्ती पर रुक जाते हैं, चाहे कोई ट्रैफिक न हो और न कोई पुलिस वाला खड़ा हो | यह भी सुनाने में आया हैं की विकसित देशों में लोग इधर-उधर थूकते नहीं, रेलगाडी और सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेकते | देखिये हमें तो ये सब बातें सोचकर ही सकरेत होने लगता है | इन सब बातों पर हमे यकीन तो नहीं होता कि किसी देश में ऐसा भी होता होगा और वह भी तब जब लोग कहते हैं कि वहां गैर पढ़े-लिखे भी इन सब बातों को जानते और मानते हैं, क्योंकि यहाँ तो जो अनपढ़ हैं वो कह देते हैं कि हम क्या जाने (अपना घर साफ़ रखना बखूबी जानते हैं) हम तो बिना पढ़े लिखे अज्ञानी हैं | और पढों लिखों को यह कहते भी सुना है कि यह तो हमारे कोर्स में नहीं था |
मित्रों, हमारे भारत देश के विकसित होने के अनन्त खतरे हैं, जिनमें से मैंने सिर्फ़ कुछ का ही उल्लेख किया है | सबसे बड़ा खतरा हमारे भारत देश कि संस्कृत और सभ्यता को है, जिसे लोग इतनी छुई-मुई समझते हैं कि पहनने -ओढ़ने और उठाने-बैठने से नष्ट होने लगती है | हमारी लम्बी गुलामी का कारण भीं यही सोच थी |
हम सोचेंगे, विचारेंगे आराम से हमे विकसित होने दीजिये | होंगे तो होंगे, नहीं तो देखेंगे | ऐसा आन्दोलन जैसा चलाकर उतावलापन मत दिखलाइये | शुभ काम हम सबसे देरी से करते हैं | आप मिसाइल वगैरह विकसित कीजिये, चाँद पर घूमिये हमे कोई आपत्ति नहीं है | हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के घोर लोकतांत्रिक नागरिक हैं, आप हमें ऐसे बहला-फुसला नहीं सकते |
हम सिर्फ़ उन्ही बातों में विकसित देशों की नक़ल करते हैं जिन्हें करना आसान हो और जिन्हें करने से हम विकसित न कहाने लगे, नहीं तो हम हम कहाँ रह जायेंगे भाई, अपनी पहचान कायम रखना जरूरी हैं न |
पोस्ट कुछ ज्यादा ही विकसित होता जा रहा हैं, इससे पहले कि कोई बुरा मान जाए , मैं बंद |
सूचना : इस लेख के कोई बगल प्रभाव नहीं हैं |
इस दुनिया में हर चीज का बगल प्रभाव होता है, इस विषय में एक फ़िल्म भी बन चुकी है - 'प्यार के साइड इफेक्ट' , जो 14 फरबरी के दिन सबसे ज्यादा होते हैं | इस दिन प्यार के बगल प्रभाव कभी कभी इतने प्रबल हो जाते हैं कि अगल बगल से डंडे पड़ने के रूप में सामने आते हैं और मुख्य प्रभाव कि तरह लगते हैं, जैसे किसी किसी फ़िल्म में बगल हीरो मुख्य हीरो को दबा देता है | लेकिन यहाँ मेरा मुख्य विषय न तो 14 फरबरी है न ही प्यार मोहब्बत जो मुख्य विषय है वह आगे चलने पर मिलेगा | ये तो केवल छोटे-छोटे कुछ बगल विषय हैं |
बगल प्रभाव शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसके पहले कोई मुख्य प्रभाव होता है, जिसके लिए कोई प्रयास किया जाता है| लेकिन यह बगल प्रभाव चाय कि पत्ती के पैकेट के साथ मिलने वाले कप या सोने के सिक्के कि तरह फ्री गिफ्ट नहीं है, बल्कि यह बिना बुलाये मेहमान या उस अनचाहे गर्भ कि तरह होता है जो ब्रह्मानंद सहोदरम कि चाह में गले पड़ जाता है |
न्यूटन के अति प्रसिद्द नियम के अनुसार हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिकिया होती है, लेकिन उन्होंने किसी बगल क्रिया या प्रभाव का उल्लेख नहीं किया है , शायद वह प्रतिक्रिया दो भागों में विभाजित हो जाती होगी - मुख्य क्रिया और बगल क्रिया |
मेरा विषय भारत देश के विकसित हो जाने पर पड़ने वाले बगल प्रभाव के बारे में चर्चा करना है |
हमारे प्यारे भारत देश में एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति हुआ करते थे | उन्होंने पहले मिसाइलें वगैरह बनाई, फ़िर संयोग से राष्ट्रपति बन गए | लोग उन्हें मिसाइल मैन भी कहते हैं | पूर्व राष्ट्रपति महोदय का नाम है - ए.पी.जे. अब्दुल कलाम | राष्ट्रपति काल में उन्होंने एक अभियान सा छेड़ रखा था की भारत देश को सन फलां-फलां मतलब 2020 तक विकसित देश बना देना है | इसके लिए उन्होंने बाकायदा योजना बना रखी थी | उस समय राष्ट्रपति थे सो सबको उनके अभियान का पता चलता था | अखबार, टीवी इत्यादी में आते रहते थे | इधर सेवानिवृत्त होने के बाद दिखाई नहीं पड़ते (अखबार, टी वी आदि में)
अब कलाम साहब ठहरे वैज्ञानिक बुद्धि के आदमी उन्होंने जैसे मिसाइल वगैरह विकसित की वैसे ही सोचा की देश को भी विकसित कर देंगे,लेकिन देश कोई मिसाइल की तरह जड़ पदार्थ तो है नहीं की जैसी चाहें आप उसके साथ मनमानी कर लेंगे | देश बनता है देशवासियों से और देशवासी होते हैं - इन्सान अथवा मनुष्य नामक जीव | वह भी भारत जैसे दुनिया के सबसे महान लोकतंत्र के |
तो मैं बात कर रहा था, विकसित होने के खतरों की| इसके पहले की आप मुझे कुछ का कुछ समझे और मुझे कहना पड़े "कि मेरा यह मतलब नहीं था" मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं देश के विकसित होने के खिलाफ बिल्कुल नहीं हूँ और मेरी बातों को तोड़ मरोड़ कर न पेश किया जाए | मैं तो भारतीय लोकतंत्र का एक जिम्मेवार नागरिक होने के नाते सिर्फ़ आपका ध्यान उन बगल प्रभावों (साइड इफेक्ट्स) कि और दिलाना चाहता हूँ जो विकसित हो जाने के बाद भारत देश के ऊपर तारी हो सकते हैं |
विकसित देशों के कुछ मोटे-मोटे लक्षण जो मैंने सुन रखे हैं, उनमें से कुछ यूँ हैं कि विकसित देशों में जीवन स्तर ऊंचा होता है, प्रति व्यक्ति आय बहुत ज्यादा होती हैं, स्वाथ्य और शिक्षा पर खर्च बहुत ज्यादा होता है, आधारभूत ढांचा मजबूत होता है, इत्यादि |
दुनिया में जो भी विकसित देश हैं उनमें राजनीतिक दल 3-4 से ज्यादा नहीं हैं | मुख्यतया 2 या 3 राजनीतिक दल ही हैं | हमारे यहां भी शायद 8-10 दर्जन ही होंगे एकाध दर्जन ज्यादा भी हो गए तो कौन सा गजब हो जायेगा 1अरब का देश है | सबको फलने फूलने दीजिये | देश यदि विकसित हो गया तो इन 4 दर्जन राजनीतिक दलों के 4 हजार दर्जन नेताओं का क्या होगा (डाटा में सुधार कर सकते हैं ) | इन सबको बेरोजगार कराने का इरादा है क्या ? वैसे भारत देश में बेरोज़गारी कम है ? जो आप और बेरोजगारी बढ़ाना चाहते हैं | यह बात अलग है कि बेरोज़गारी भारत देश में कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाती | मुद्दे कि बात से मुझे याद आया कि विकसित देशों के चुनावी मुद्दे भी अलग टाइप के होते हैं, जैसे शिक्षा, शोध, रोजगार, स्वास्थ्य, पर्यारण इत्यादि | देश को विकसित करके आप हमारे प्यारे (? ) नेताओं से मुद्दे भी छीन लीजियेगा | यहाँ तो ये सब नहीं चलेगा न भाई ! ये भी कोई मुद्दे हैं जी शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण | भारत देश में धर्म, जाति, आरक्षण, भाषा विवाद आदि आदि मुद्दे बनते हैं और मुद्दे कम पड़ें तो एक-दो भड़काऊ वक्तव्य दे दीजिये या इतिहास का कोई गदा मुर्दा उखाड़ लीजिये और उसे जीवित कर दीजिये या कोई काल्पनिक संकट पैदा कर दीजिये | आप छा गए अखबारों और टीवी में |
बाढ़ -सूखे वगैरह भी कोई मुद्दे हैं, वो तो यहाँ हर साल आते हैं और जाते हैं | कम से कम उसी बहाने कुछ फंड तो आ जाता है नहीं तो चुनाव कैसे लडेंगे और चुनाव नहीं लड़े तो लोकतंत्र को खतरा ! भारत देश के नेता को बद्बुक समझाते हैं का ! की आपके विकसित होने के चक्कर में अपने मुद्दे और ख़ुद को गवां दे | वैज्ञानिकों के साथ यही दिक्कत है एक सुर पकड़ लेते हैं, अरे कुछ समझिये साहब |
सिर्फ़ नेता की ही बात होती तो चलो मान भी लेते | आप क्या समझते हैं की आम आदमी क्या कम झंझट में पड़ेगा ?
अरे हमको पहले तैयार तो होने दीजिये | देखिये अभी हमको अभ्यास नहीं है | जब तक पुलिस वाला चौराहे पर डंडा लेकर नहीं खड़ा होता हमारे हाथ पैर ब्रेक ही नहीं लगाते तो इसमें हमारी क्या गलती है | लाल हरी बत्ती अपनी जगह लगी है लगी रहे | हमारे लिए तो पुलिस का डंडा ही सबसे बड़ा सिग्नल है | आप कहते हैं की विकसित देश में लोग लाल बत्ती पर रुक जाते हैं, चाहे कोई ट्रैफिक न हो और न कोई पुलिस वाला खड़ा हो | यह भी सुनाने में आया हैं की विकसित देशों में लोग इधर-उधर थूकते नहीं, रेलगाडी और सार्वजनिक स्थानों पर कचरा नहीं फेकते | देखिये हमें तो ये सब बातें सोचकर ही सकरेत होने लगता है | इन सब बातों पर हमे यकीन तो नहीं होता कि किसी देश में ऐसा भी होता होगा और वह भी तब जब लोग कहते हैं कि वहां गैर पढ़े-लिखे भी इन सब बातों को जानते और मानते हैं, क्योंकि यहाँ तो जो अनपढ़ हैं वो कह देते हैं कि हम क्या जाने (अपना घर साफ़ रखना बखूबी जानते हैं) हम तो बिना पढ़े लिखे अज्ञानी हैं | और पढों लिखों को यह कहते भी सुना है कि यह तो हमारे कोर्स में नहीं था |
मित्रों, हमारे भारत देश के विकसित होने के अनन्त खतरे हैं, जिनमें से मैंने सिर्फ़ कुछ का ही उल्लेख किया है | सबसे बड़ा खतरा हमारे भारत देश कि संस्कृत और सभ्यता को है, जिसे लोग इतनी छुई-मुई समझते हैं कि पहनने -ओढ़ने और उठाने-बैठने से नष्ट होने लगती है | हमारी लम्बी गुलामी का कारण भीं यही सोच थी |
हम सोचेंगे, विचारेंगे आराम से हमे विकसित होने दीजिये | होंगे तो होंगे, नहीं तो देखेंगे | ऐसा आन्दोलन जैसा चलाकर उतावलापन मत दिखलाइये | शुभ काम हम सबसे देरी से करते हैं | आप मिसाइल वगैरह विकसित कीजिये, चाँद पर घूमिये हमे कोई आपत्ति नहीं है | हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के घोर लोकतांत्रिक नागरिक हैं, आप हमें ऐसे बहला-फुसला नहीं सकते |
हम सिर्फ़ उन्ही बातों में विकसित देशों की नक़ल करते हैं जिन्हें करना आसान हो और जिन्हें करने से हम विकसित न कहाने लगे, नहीं तो हम हम कहाँ रह जायेंगे भाई, अपनी पहचान कायम रखना जरूरी हैं न |
पोस्ट कुछ ज्यादा ही विकसित होता जा रहा हैं, इससे पहले कि कोई बुरा मान जाए , मैं बंद |
सूचना : इस लेख के कोई बगल प्रभाव नहीं हैं |
April 14, 2009
आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए !
शब्द भावों से रूठ गये
कविता के छंद सब टूट गए,
लफ्ज हलक से बाहर नहीं निकले
शायद इसलिए, पता नहीं किसलिए
वो ख़ुद से और जमाने से ऊब गए |
मंजिल का पता न रास्ते का
ऐसा सफर किस वास्ते का,
फ़िर भी चलते-चलते, भीड़ में
अकेले हम बहुत दूर गए |
तुम्हारी अदाओं का ओर-छोर नहीं मिलता
हमारी खताओं का कोई जोड़ नहीं मिलता,
अदा है की अदाकारी, खता है कि दुश्वारी
आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए |
नफ़रत बिल्कुल लगती असली
प्यार-व्यार है झूठा नकली,
नफ़रत बरगद की जड़ हुई
प्यार हो गया छुई-मुई ,
इस चलन से हम चकित रह गए |
तरीका नहीं बात करने का
सलीका नहीं काम करने का,
बिना प्रसंग कि बात करें
बिना अनुबंध के काम करें,
ऐसे लोग और कितने रह गए |
जनता से नेता आते हैं
नेता से सीखे सब जनता,
कोई ख़ुद को नहीं बदलता
बस ऐसे ही चलता रहता |
फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |
कविता हो या कहानी
ग़ज़ल हो या तुकबानी
जो कहना था उसमें से
हम थोड़ा कुछ कह गए |
कविता के छंद सब टूट गए,
लफ्ज हलक से बाहर नहीं निकले
शायद इसलिए, पता नहीं किसलिए
वो ख़ुद से और जमाने से ऊब गए |
मंजिल का पता न रास्ते का
ऐसा सफर किस वास्ते का,
फ़िर भी चलते-चलते, भीड़ में
अकेले हम बहुत दूर गए |
तुम्हारी अदाओं का ओर-छोर नहीं मिलता
हमारी खताओं का कोई जोड़ नहीं मिलता,
अदा है की अदाकारी, खता है कि दुश्वारी
आपने बस आदाब किया था, हम घर पहुँच गए |
नफ़रत बिल्कुल लगती असली
प्यार-व्यार है झूठा नकली,
नफ़रत बरगद की जड़ हुई
प्यार हो गया छुई-मुई ,
इस चलन से हम चकित रह गए |
तरीका नहीं बात करने का
सलीका नहीं काम करने का,
बिना प्रसंग कि बात करें
बिना अनुबंध के काम करें,
ऐसे लोग और कितने रह गए |
जनता से नेता आते हैं
नेता से सीखे सब जनता,
कोई ख़ुद को नहीं बदलता
बस ऐसे ही चलता रहता |
फर्क सिर्फ़ 'मौके' के रह गए |
कविता हो या कहानी
ग़ज़ल हो या तुकबानी
जो कहना था उसमें से
हम थोड़ा कुछ कह गए |
April 11, 2009
चौराहों पर उनके नाम क्यों नहीं लिखे जाते ?
किसी नये शहर में जाइए और अपने गंतव्य का पता पूछिए तो पते के बीच में किसी ना किसी चौराहे से दाएँ-बाएँ या सीधे गुजरने की नौबत ज़रूर आएगी |
अब जिस चौराहे से आपको गुजरना है, वह बहुत प्रसिद्ध है, क्योंकि हर चौराहा अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध होता है | लेकिन आप पहचानेगे कैसे कि यह वही प्रसिद्ध चौराहा है, जब तक आप रुककर किसी स्थानीय व्यक्ति से नहीं पूछते |
जैसे प्रसिद्ध से प्रसिद्ध आदमी या बड़े से बड़े वीआईपी के ऊपर लिखा नहीं रहता की वह 'यह' है | आप उसे सिर्फ़ देखकर उसकी महानता का अंदाज़ा नहीं लगा सकते | ठीक वैसा ही हाल चौराहे का होता है |
छोटी से छोटी दुकान पर भी साइन बोर्ड होता है, हर बिल्डिंग और मार्ग का नाम होता है, लेकिन आज तक मैने किसी चौराहे उसके नाम का साइन बोर्ड लगा हुआ नहीं देखा | इसका कारण पता करने की कोशिश की लेकिन कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला | बड़े चौराहे के सर्किलों पर भी नाम नही होता | अब यह नगर निगम वालों की क्या नीति है, पता नहीं |
यदि चौराहों पर नाम पट्ट लगाए जाएँ तो नवागंतुकों को बहुत सुविधा हो |
अब जिस चौराहे से आपको गुजरना है, वह बहुत प्रसिद्ध है, क्योंकि हर चौराहा अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध होता है | लेकिन आप पहचानेगे कैसे कि यह वही प्रसिद्ध चौराहा है, जब तक आप रुककर किसी स्थानीय व्यक्ति से नहीं पूछते |
जैसे प्रसिद्ध से प्रसिद्ध आदमी या बड़े से बड़े वीआईपी के ऊपर लिखा नहीं रहता की वह 'यह' है | आप उसे सिर्फ़ देखकर उसकी महानता का अंदाज़ा नहीं लगा सकते | ठीक वैसा ही हाल चौराहे का होता है |
छोटी से छोटी दुकान पर भी साइन बोर्ड होता है, हर बिल्डिंग और मार्ग का नाम होता है, लेकिन आज तक मैने किसी चौराहे उसके नाम का साइन बोर्ड लगा हुआ नहीं देखा | इसका कारण पता करने की कोशिश की लेकिन कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला | बड़े चौराहे के सर्किलों पर भी नाम नही होता | अब यह नगर निगम वालों की क्या नीति है, पता नहीं |
यदि चौराहों पर नाम पट्ट लगाए जाएँ तो नवागंतुकों को बहुत सुविधा हो |
April 10, 2009
बात जूते की नहीं नक़ल की है .
सत्य एक है लेकिन उसे कई तरह से कहा जा सकता है | जूते का काम
भी एक ही है - चलना (दौड़ना भी इसमे शामिल है ) , लेकिन उसके चलने के ढंग बहुतायत हैं | कभी यह सड़क पर चलता है, कभी घर पर, कभी सभा में, कभी संसद में और कभी संवाददाता सम्मेलन में |
भी एक ही है - चलना (दौड़ना भी इसमे शामिल है ) , लेकिन उसके चलने के ढंग बहुतायत हैं | कभी यह सड़क पर चलता है, कभी घर पर, कभी सभा में, कभी संसद में और कभी संवाददाता सम्मेलन में |
जैसा क़ि हाल ही में गृह मंत्री पी चिदंबरम के ऊपर चला | चलाने वाले थे पत्रकार जनरल सिंह | इस घटना से जार्ज बुश का जूता कांड फिर ताज़ाहुआ | अभी जूते के नंबर, मेड और रंग के विवरण मेरे पास नहीं हैं |
जार्ज बुश वाले कांड में लोग ज़्यादा चौंके थे, जबकि जनरल सिंह के जूता चालन को लोग उसी का अनुकरण मान रहे हैं | जनरल सिंह को इस घटना से एस फ़ायदा यह हुआ की लोग उन्हे जाने लगे | इस घटना से पहले लोग जनरल सिंह भिन्डरवाले को ही जानते थे, अब देश भर में पत्रकार जनरल सिंह के नाम का पता चल गया है |
जनरल सिंह का गुस्सा जायज था, लेकिन गृह मंत्री पी चिदम्बरम इसके लिए सही व्यक्ति नहीं थे | यह जूता जगदीश टाइटॉलर और कांग्रेस हाईकमान के लिए था | क्योंकि बिना कांग्रेस हाईकमान के इशारे के गृहमंत्री क्या करेंगे | गृह मंत्री पी चिदम्बरम इसलिए भी सही व्यक्ति नहीं थे क्योंकि उन्होंने जनरल सिंह को तुंरत माफ़ कर दिया और कहा कि ""the emotional outburst of one man should not hijack a press conference" इस काबिल भी नहीं समझा की गिरफ्तार तो करवा देते मुकदमा भले न चलवाते | लेकिन गृहमंत्री ने गांधीगिरी दिखाते हुए (आसन्न चुनावों को ध्यान में रखकर ) उन पर रहम किया | इसी रहम के कारण जनरल सिंह मात खा गए |
पत्रकारों ने भी जनरल सिंह की आलोचना की |
जनरल सिंह का जूता चालन मिशन इसलिए लोकप्रिय नहीं हो पाया क्योंकि इसमे मौलिकता का नितांत अभाव था और यह हाल ही में हुई इसी तरह के एक घटना की पुनरावृत्ति थी | भले ही यह स्वतः स्फूर्त रहा हो |
कोई और ढंग चुन लेते | कुछ नया करते | जूता की जगह चप्पल पहन लेते | शायद इसीलिये कहा जाता है कि भारतीय बुद्धजीवियों में मौलिकता का अभाव है |
यही हाल रहा तो पत्रकार सम्मलेन कक्ष के बाहर "जूता चप्पल बाहर उतारे" की तख्ती लगी होगी और पास में ही इस बात पर ध्यान दिलाने वाले भी खड़े रहेंगे | फिर किसी पत्रकार का जूता चोरी हो गया तो उस सम्मलेन की रिपोर्टिंग के साथ जूता चोरी का विवरण भी दिया रहेगा | पत्रकारों का ध्यान प्रश्न पूछने के साथ-साथ जूते पर भी जाता रहेगा, इसका असर उनके सवाल पूछने पर पड़ेगा | यदि ऐसा हुआ तो जाहिर है, उन्हें जनरल सिंह याद आयेंगे |
ज़ब कलम चलाने वाले जूते चलाने लगते हैं तो ऐसे ही दुष्परिणाम सामने आते हैं |
चित्र - गूगल
जार्ज बुश वाले कांड में लोग ज़्यादा चौंके थे, जबकि जनरल सिंह के जूता चालन को लोग उसी का अनुकरण मान रहे हैं | जनरल सिंह को इस घटना से एस फ़ायदा यह हुआ की लोग उन्हे जाने लगे | इस घटना से पहले लोग जनरल सिंह भिन्डरवाले को ही जानते थे, अब देश भर में पत्रकार जनरल सिंह के नाम का पता चल गया है |
जनरल सिंह का गुस्सा जायज था, लेकिन गृह मंत्री पी चिदम्बरम इसके लिए सही व्यक्ति नहीं थे | यह जूता जगदीश टाइटॉलर और कांग्रेस हाईकमान के लिए था | क्योंकि बिना कांग्रेस हाईकमान के इशारे के गृहमंत्री क्या करेंगे | गृह मंत्री पी चिदम्बरम इसलिए भी सही व्यक्ति नहीं थे क्योंकि उन्होंने जनरल सिंह को तुंरत माफ़ कर दिया और कहा कि ""the emotional outburst of one man should not hijack a press conference" इस काबिल भी नहीं समझा की गिरफ्तार तो करवा देते मुकदमा भले न चलवाते | लेकिन गृहमंत्री ने गांधीगिरी दिखाते हुए (आसन्न चुनावों को ध्यान में रखकर ) उन पर रहम किया | इसी रहम के कारण जनरल सिंह मात खा गए |
पत्रकारों ने भी जनरल सिंह की आलोचना की |
जनरल सिंह का जूता चालन मिशन इसलिए लोकप्रिय नहीं हो पाया क्योंकि इसमे मौलिकता का नितांत अभाव था और यह हाल ही में हुई इसी तरह के एक घटना की पुनरावृत्ति थी | भले ही यह स्वतः स्फूर्त रहा हो |
कोई और ढंग चुन लेते | कुछ नया करते | जूता की जगह चप्पल पहन लेते | शायद इसीलिये कहा जाता है कि भारतीय बुद्धजीवियों में मौलिकता का अभाव है |
यही हाल रहा तो पत्रकार सम्मलेन कक्ष के बाहर "जूता चप्पल बाहर उतारे" की तख्ती लगी होगी और पास में ही इस बात पर ध्यान दिलाने वाले भी खड़े रहेंगे | फिर किसी पत्रकार का जूता चोरी हो गया तो उस सम्मलेन की रिपोर्टिंग के साथ जूता चोरी का विवरण भी दिया रहेगा | पत्रकारों का ध्यान प्रश्न पूछने के साथ-साथ जूते पर भी जाता रहेगा, इसका असर उनके सवाल पूछने पर पड़ेगा | यदि ऐसा हुआ तो जाहिर है, उन्हें जनरल सिंह याद आयेंगे |
ज़ब कलम चलाने वाले जूते चलाने लगते हैं तो ऐसे ही दुष्परिणाम सामने आते हैं |
चित्र - गूगल
April 02, 2009
ब्लॉगिन्ग के कमेन्ट किलर या टिप्पणी हन्ता !
स्पष्टीकरण : यह लेख उन टिप्पणियों के बारे में कोई विचार नहीं करता जो ब्लॉग पोस्ट की विषय वस्तु से सम्बंधित नहीं होती और किसी अन्य व्यापारिक वस्तु या लिंक के प्रचार के लिए की जाती हैं तथा जो अश्लील भाषा का प्रयोग कर ब्लोग्गर को हतोत्साहित करती हैं | ऐसी टिप्पणियाँ कचडा पेटी के लिए ही उपयुक्त होती हैं |
मेरे इस लेख का मूल विचार यह है कि आप ब्लॉग पोस्ट तो लिखने के लिये स्वतन्त्र हैं, क्योंकि गूगल का ब्लॉग स्पॉट इस मामले में निष्पक्ष है, किन्तु किसी ब्लॉग पर आप टिप्पणी छापने के लिये स्वतन्त्र नहीं हैं ।
हाल ही में हिन्दी ब्लॉगिन्ग में कमेंट्स की काफ़ी चर्चा चली। जैसे कमेन्ट कितने प्रकार के होते हैं, किस-किस वजह से किये जाते हैं, क्यों किये जाते हैं, कमेन्ट नहीं करेंगे तो क्या नुकसान अथवा फ़ायदा होगा ? मतलब इस विषय में बहुत खोजपूर्ण चिट्ठे चिपकाये जा चुके हैं और टिप्पणियों का नैनो विश्लेषण कर डाला गया ।
हाल ही में यह चर्चा भी हो चुकी है कि आप पोस्ट पर कमेंट करते हैं कि पोस्टर पर अर्थात ब्लॉगिन्ग के नाम से प्रभावित होकर | आपका कमेंन्ट ब्लागी की साख से प्रभवित होता है कि नहीं |
इन विषयों पर तरह-तरह के विचार व्यक्त किये जा चुके हैं । लेकिन यहां पर मेरा मूल विषय टिप्पणी नहीं बल्कि जिस पर टिप्पणी की गयी अर्थात टिप्पी धारक व्यक्ति है। ब्लोगिन्ग में ब्लोग पढ्ना आपका अधिकार है, टिप्पणी करना भी आपका अधिकार है, लेकिन टिप्पणी को प्रकाशित करना या ना करना सिर्फ़ ब्लोगर का अधिकार है । गीता की तर्ज पर कि सिर्फ़ कर्म पर ही आपका अधिकार है, उसके फ़ल पर नहीं ।
यहीं से कमेन्ट किलर या टिप्पणी हन्ता का जन्म होता है । आपने लेडी किलर, सीरिअल किलर शब्द सुने होंगे । पतियों को भी सीरिअल किलर कहा जाता है । इसी तरह कमेट किलर भी होते हैं, यद्यपि यह शब्द अभी प्रचलित नहीं है ।
कमेन्ट रिसीव करने के ढंग से ब्लॉगर दो तरह के होते हैं ।
एक - वे जो कमेन्ट को सम्पादित नहीं करते अर्थात आपकी टिप्पणी को ब्लाग पर प्रकाशित होने के लिये पहले उनकी अनुमति की जरूरत नहीं पडती । दूसरे प्रकार के ब्लागर ठीक इसके विपरीत रुख अपनाते हैं अर्थात सम्पादन का सेन्सर लगाये रहते हैं, ताकि इज्जत मर्यादा बनी रहे और बाह्य तत्व आकर मनमानी छेडछाड न कर सकें । ऐसे ब्लागर जो टिप्पणी सम्पादन का प्रयोग नहीं करते उनमें से कुछ नये ब्लागर होते हैं, जिन्हें इसका पता नहीं रहता । शेष ब्लागर जानबूझकर पूरे होशो हवाश में ऐसा करते हैं । उनमें भी कई प्रकार के होते हैं । कुछ टिप्पणीहीन या टिप्पणी न्यून होते हैं । उन्हे लगता है कि कमेन्ट सम्पादन रखने से कहीं टिप्पक पर विपरीत प्रभाव न पड जाये और वह टिप्पणी करने से बिचक जाये । कुछ ब्लागर आरोप-प्रत्यारोपों को झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार रहते हैं । स्थिति ज्यादा बिगडने पर इनके पास भी बाद में कमेन्ट को लुप्त करने का विकल्प तो रहता ही है । ज्यादतर युवा ब्लागर (उम्र और सोच दोनों से ) कमेन्ट को सम्पादित नहीं करते चाहे वे कहानी, कविता, गज़ल, शेरो-शायरी या सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर लिख रहे हों । इस तरह के ब्लागर कमेन्ट को बर्दाश्त करने और जरूरत पडने पर सतर्क प्रत्युतर के लिये भी तैयार रहते हैं । ऐसे ब्लाग जो खुले होते हैं, जीवन्त होते हैं, क्योंकि वहां असहमति के लिये जगह होती है । समर्थन और विरोध दोनों के स्वर वहां सुनाई देते हैं अर्थात अपनी समालोचना के लिये वे प्रस्तुत रहते हैं । वे टिप्पणी छपने देते हैं और सिर्फ़ ऐसी टिप्पणियों को छोड़ कर जो ब्लॉग के विषय से सम्बंधित नहीं होतीं, डिलीट नहीं करते |
दूसरे प्रकार के टिप्पणी हन्ता ब्लॉगर महोदय/महोदया कुछ इस तरह के विचार रखते हैं - "यह हमारा ब्लॉग है, शहर की किसी सार्वजनिक धर्मशाला की दीवार नहीं, जो कोई भी ऐरा-गैरा आकर अपना इश्तिहार चिपका जायेगा। यह कोई वाद-विवाद का मंच नहीं (प्रशस्ति गायन मंच है)। यह हमारा चिठ्ठा है यहां आप वही लिख सकते हैं, जो हमारे विचारों के अनुकूल हो, सवाल हमारी पसंद का है, आपकी नहीं । हमने जो सिध्दांत अपनी पोस्ट में खींचा , वही वास्तविक तस्वीर है, बाकी सब कार्टून ।आपको कमेंट करना है तो आप हमसे अभिभूत हो जाइये । यही हमारे ब्लाग पर कमेन्ट करने कि आवश्यक योग्यता है । यदि ऐसा ना कर सकें तो इसे ठीक-ठाक बताकर निपट लीजिये ।"
दिमाग में ज्यादा घन्टी बज रही हो तो ब्याजस्तुति अलंकार का प्रयोग करिये मतलब करिए आलोचना और हो प्रशंसा । लेकिन इससे ज्यादा की इजाजत
माँ बदौलत के दरबार में नही है । नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा - आपकी टिप्पी का | आप यदि उनके सिध्दांत की कमियों को उजागर करने की खतरनाक तमन्ना रखते हैं तो आप अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं । इस तरह के ब्लागों में वही लोग टिप्पणी कर पाने में सफ़ल हो पाते हैं, जो कहते हैं -"दिन को अगर रात कहो रात कहेंगें लेकिन कमेन्ट जरूर करेंगे ।"
कमेन्ट किल्लर ब्लागर ज्यादतर पके हुए काइयां टाइप के लोग होते हैं, जो अपनी सामाजिक छवि को लेकर अति सावधान रहते हैं | असुरक्षा की भावना ही वह प्रमुख कारण है, जो एक ब्लॉगर को टिप्पणी हन्ता बनने पर मजबूर करती है |महिला ब्लागरों में भी कमेन्ट किलर प्रवृत्ति बेहूदा टिप्पणियों से बचने के लिये पायी जाती है।
उपर्युक्त लक्षण सामुदायिक ब्लोगों के लिये भी काफ़ी दूर तक सही हैं ।
चित्र - गूगल |
मेरे इस लेख का मूल विचार यह है कि आप ब्लॉग पोस्ट तो लिखने के लिये स्वतन्त्र हैं, क्योंकि गूगल का ब्लॉग स्पॉट इस मामले में निष्पक्ष है, किन्तु किसी ब्लॉग पर आप टिप्पणी छापने के लिये स्वतन्त्र नहीं हैं ।
हाल ही में हिन्दी ब्लॉगिन्ग में कमेंट्स की काफ़ी चर्चा चली। जैसे कमेन्ट कितने प्रकार के होते हैं, किस-किस वजह से किये जाते हैं, क्यों किये जाते हैं, कमेन्ट नहीं करेंगे तो क्या नुकसान अथवा फ़ायदा होगा ? मतलब इस विषय में बहुत खोजपूर्ण चिट्ठे चिपकाये जा चुके हैं और टिप्पणियों का नैनो विश्लेषण कर डाला गया ।
हाल ही में यह चर्चा भी हो चुकी है कि आप पोस्ट पर कमेंट करते हैं कि पोस्टर पर अर्थात ब्लॉगिन्ग के नाम से प्रभावित होकर | आपका कमेंन्ट ब्लागी की साख से प्रभवित होता है कि नहीं |
इन विषयों पर तरह-तरह के विचार व्यक्त किये जा चुके हैं । लेकिन यहां पर मेरा मूल विषय टिप्पणी नहीं बल्कि जिस पर टिप्पणी की गयी अर्थात टिप्पी धारक व्यक्ति है। ब्लोगिन्ग में ब्लोग पढ्ना आपका अधिकार है, टिप्पणी करना भी आपका अधिकार है, लेकिन टिप्पणी को प्रकाशित करना या ना करना सिर्फ़ ब्लोगर का अधिकार है । गीता की तर्ज पर कि सिर्फ़ कर्म पर ही आपका अधिकार है, उसके फ़ल पर नहीं ।
यहीं से कमेन्ट किलर या टिप्पणी हन्ता का जन्म होता है । आपने लेडी किलर, सीरिअल किलर शब्द सुने होंगे । पतियों को भी सीरिअल किलर कहा जाता है । इसी तरह कमेट किलर भी होते हैं, यद्यपि यह शब्द अभी प्रचलित नहीं है ।
कमेन्ट रिसीव करने के ढंग से ब्लॉगर दो तरह के होते हैं ।
एक - वे जो कमेन्ट को सम्पादित नहीं करते अर्थात आपकी टिप्पणी को ब्लाग पर प्रकाशित होने के लिये पहले उनकी अनुमति की जरूरत नहीं पडती । दूसरे प्रकार के ब्लागर ठीक इसके विपरीत रुख अपनाते हैं अर्थात सम्पादन का सेन्सर लगाये रहते हैं, ताकि इज्जत मर्यादा बनी रहे और बाह्य तत्व आकर मनमानी छेडछाड न कर सकें । ऐसे ब्लागर जो टिप्पणी सम्पादन का प्रयोग नहीं करते उनमें से कुछ नये ब्लागर होते हैं, जिन्हें इसका पता नहीं रहता । शेष ब्लागर जानबूझकर पूरे होशो हवाश में ऐसा करते हैं । उनमें भी कई प्रकार के होते हैं । कुछ टिप्पणीहीन या टिप्पणी न्यून होते हैं । उन्हे लगता है कि कमेन्ट सम्पादन रखने से कहीं टिप्पक पर विपरीत प्रभाव न पड जाये और वह टिप्पणी करने से बिचक जाये । कुछ ब्लागर आरोप-प्रत्यारोपों को झेलने के लिये मानसिक रूप से तैयार रहते हैं । स्थिति ज्यादा बिगडने पर इनके पास भी बाद में कमेन्ट को लुप्त करने का विकल्प तो रहता ही है । ज्यादतर युवा ब्लागर (उम्र और सोच दोनों से ) कमेन्ट को सम्पादित नहीं करते चाहे वे कहानी, कविता, गज़ल, शेरो-शायरी या सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर लिख रहे हों । इस तरह के ब्लागर कमेन्ट को बर्दाश्त करने और जरूरत पडने पर सतर्क प्रत्युतर के लिये भी तैयार रहते हैं । ऐसे ब्लाग जो खुले होते हैं, जीवन्त होते हैं, क्योंकि वहां असहमति के लिये जगह होती है । समर्थन और विरोध दोनों के स्वर वहां सुनाई देते हैं अर्थात अपनी समालोचना के लिये वे प्रस्तुत रहते हैं । वे टिप्पणी छपने देते हैं और सिर्फ़ ऐसी टिप्पणियों को छोड़ कर जो ब्लॉग के विषय से सम्बंधित नहीं होतीं, डिलीट नहीं करते |
दूसरे प्रकार के टिप्पणी हन्ता ब्लॉगर महोदय/महोदया कुछ इस तरह के विचार रखते हैं - "यह हमारा ब्लॉग है, शहर की किसी सार्वजनिक धर्मशाला की दीवार नहीं, जो कोई भी ऐरा-गैरा आकर अपना इश्तिहार चिपका जायेगा। यह कोई वाद-विवाद का मंच नहीं (प्रशस्ति गायन मंच है)। यह हमारा चिठ्ठा है यहां आप वही लिख सकते हैं, जो हमारे विचारों के अनुकूल हो, सवाल हमारी पसंद का है, आपकी नहीं । हमने जो सिध्दांत अपनी पोस्ट में खींचा , वही वास्तविक तस्वीर है, बाकी सब कार्टून ।आपको कमेंट करना है तो आप हमसे अभिभूत हो जाइये । यही हमारे ब्लाग पर कमेन्ट करने कि आवश्यक योग्यता है । यदि ऐसा ना कर सकें तो इसे ठीक-ठाक बताकर निपट लीजिये ।"
दिमाग में ज्यादा घन्टी बज रही हो तो ब्याजस्तुति अलंकार का प्रयोग करिये मतलब करिए आलोचना और हो प्रशंसा । लेकिन इससे ज्यादा की इजाजत
माँ बदौलत के दरबार में नही है । नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा - आपकी टिप्पी का | आप यदि उनके सिध्दांत की कमियों को उजागर करने की खतरनाक तमन्ना रखते हैं तो आप अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं । इस तरह के ब्लागों में वही लोग टिप्पणी कर पाने में सफ़ल हो पाते हैं, जो कहते हैं -"दिन को अगर रात कहो रात कहेंगें लेकिन कमेन्ट जरूर करेंगे ।"
कमेन्ट किल्लर ब्लागर ज्यादतर पके हुए काइयां टाइप के लोग होते हैं, जो अपनी सामाजिक छवि को लेकर अति सावधान रहते हैं | असुरक्षा की भावना ही वह प्रमुख कारण है, जो एक ब्लॉगर को टिप्पणी हन्ता बनने पर मजबूर करती है |महिला ब्लागरों में भी कमेन्ट किलर प्रवृत्ति बेहूदा टिप्पणियों से बचने के लिये पायी जाती है।
उपर्युक्त लक्षण सामुदायिक ब्लोगों के लिये भी काफ़ी दूर तक सही हैं ।
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