December 09, 2009

आदमी एक संवेदनशील प्राणी है .... खुद के लिए

कुछ लिखना चाहा कुछ लिख नहीं पाया । कुछ अधूरा सा लिखा कुछ पूरा नही हुआ । कोई टिप्पणी नहीं की किसी ब्लॉग पर । ब्लाग पढे बस ।
‍नई पोस्ट का आना जरूरी है । कुछ नहीं तो पुरानी पोस्ट हटाने के लिए ही । नई पोस्ट के लिए मुददा चाहिए , कोई बहाना चाहिए । हो सकता है नई पोस्ट किसी संवेदना या दिमाग में किसी का कौंध का परिणाम हो । या किसी घटना का या कोई प्रतिक्रिया या फिर आवेशित बैटरी के धन ऋण से जोडने पर धारा प्रवाह जैसा । दिमाग चार्ज है और दोनों हाथ की बोर्ड से जुड गए करेंट बहने लगी और एक ब्लाग पोस्ट रूपी बल्ब जल गया । दिमाग एक घर है तो कोई आयेगा कभी बुलाने पर और कभी अनायास । कोई नहीं तो चूहे, बिल्ली, ‍‍‍‍‍‍‍ ‍मकडी, पक्षी, चींटी, डाकिया, अखबारवाला या दूधवाला ही । जैसे भी आए स्वागत तो करना ही पडेगा और आनेवाला भी अपना प्रयोजन पूरा करने की कोशिश करेगा । नहीं है तो ढूंढ लें बना लें । खबरों की कमी क्या है । किसीभी खबर को पकड के खींचा जा सकता है । या मन में कोई दुख या विषाद हो तो उसका भी उपयोग किया जा सकताहै । कविता की जा सकती है । अच्छा रसोइया कम सामग्री में भी खाने वालों को उंगली चटवा देता है ।
हिंदी ब्लॉगिंग की संवेदनशीलता बढ गई है और नीलिमा जी के अनुसार "सेंस ऑफ ह्यूमर गडबडा गया है " जब कुछ करने का मन ही है तो कोई भी वजह बनाई जा सकती है । हम (मैं)
‍ ‍कोई उद्देश्यपूर्ण ब्लॉगिंग तो कर नहीं रहे बस लिखे जा रहे हैं । कुछ भी कभी भी । जब तक बिना किसी उददेश्य के जीना गैरकानूनी नहीं है, तब कोई चिंता की बात नहीं । तो आज बिना मुददे के लिखने का मन है तो लिखेंगे रोकता कौन है । शायद यह डर कि टिप्पणियॉं नहीं ‍‍मिलेंगी । मित्रों को पसंद नहीं आएँगी । पाठक बिना मन के वाह-वाह करेंगे या आकर चले जायेंगे या आयेंगे ही नहीं । अच्छा ही है कम से कम अपेक्षाऍं नहीं होंगी तो कल यह सुनने का डर नहीं रहेगा कि हमें आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी । पर लिखना तो जरूरी है । कुछ करेंगे नहीं तो पता नहीं चलेगा कि हम भी हैं । ब्लॉगर बन गए हैं हम । बताते हैं कि हम ब्लॉगर हैं । ब्लॉग पोस्ट लिखते हैं । सोचते हैं कि यदि ब्लागिंग न होती तो इतना सब जो लिखा जा रहा है किस रुप में निकलता । यह छपास कहॉं निकलती । शायद कुछ अखबार और पत्रिकाओं में छपतीं और ज्यादातर कहीं नहीं। या फिर डायरियों में । स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं । लेकिन सुख कहॉ है । यह स्वांत: सुखाय धीरे धीरे परान्त: सुखाय बन जाता है । शुरुआत ज्यादातर चीजों की स्वांत: सुखाय ही होती है । खेलते खेलते आदमी गंभीर हो जाता है । जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है जो कभी स्वांत: सुखाय होता था । कविता भी शुरू शुरू में स्वांत: सुखाय होती है । फिर हम अपनी संवेदनाओं का उपयोग करने लगते हैं । अपनी कुंठाओं और विषाद को ‍‍ गिनागिनाकर ‍‍‍ चपोटे रहते हैं । फिर वह सब बाहर निकलता है, किसी न किसी रूप में । अलंकृत सजा धजा, कभी कुरूप । पढ़कर राहत मिलती है । फिर उसे रचना वगैरह कहा जाता है । अपना ही लिखा हुआ लगता है कि यह सब मेरे दिमाग में कैसे आ गया या इतना अच्छा मैंने कैसे लिखा । एक मन:स्थिति होती है ।
इस तरह लिखने का नुकसान यह है कि कभी किसी बात पर मेरे खिलाफ मेरे ही बात को उद्धृत किया जा सकता ।

खैर जो भी हो, यह जरूर है कि आदमी एक संवेदनशील प्राणी है .............खुद के लिए ।

8 comments:

  1. आपने न लिखने के अनमने मन से इतना लंबा लेख लिख डाला और मैंने अनमने मन से आपकी इस ना उम्मीदी पर पानी फेर दिया की इस लेख पर आपको टिपण्णी नहीं मिलेगी :) हल्का-फुल्का, ..................... कभी कभी दिल के अन्दर की बात बाहर निकाल देने से भी दिल हल्का हो जाता है !

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  2. कुछ भी हो पर लिखा बहुतखूब है...मन तो ऐसे ही उड़ान भरता है उस ऐसे ही उड़ने दो। इस उड़ान मे पंखो को तो मजबूती मिलती जाएगी..इतना क्या हमारे लिए कम है !!

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  3. कभी-कभी यूं भी व्‍यक्‍त करना चाहिये मन के भावों को, बहुत ही अच्‍छा लिखा है ।

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  4. YAH STHITI TO LAGBHAG SABKI HUA KARTI HAI....AISE ME LIKHNE KI APEKSHA PADHNE PAR DHYAAN KENDRIT KAR DENA CHAHIYE...PADHTE PADHTE HI HAATHON ME SAARTHAK LIKHNE LAYAK SOOTRA AA JAAYA KARTE HAIN...

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  5. हां कभी-कभी होता है यूं भी. मन इधर-उधर भटकता रहता है, लेकिन लिखने से कतराता है.अजब उदासी या फिर सब बेकार है, वाला भाव ज़ोर मारने लगता है. बहुत खूबसूरती से व्यक्त किये आपने अपने, हम सबके भाव.

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  6. @आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया ।

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  7. ise padhkar to mujhe apni dairy ke panne yaad aa gaye bilkul wahi boli bol rahi hai ,isliye yah man ko bha gayi ,chhu gayi ,bahut hi sundar ,sukoon bhara .

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नेकी कर दरिया में डाल