ये घाव आदमी खुद बनाता है, अपने घिनौने स्वार्थों को पूरा करने के लिए । जो परिस्थितियॉ पैदा की गईं थी 6 दिसंबर को उसके लिये प्रत्यक्षत: भाजपा के साथ उस समय सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी समान रूप से जिम्मेदार थी । अपने लचर नेतृत्व की वजह से । उस समय हम स्कूल में पढते थे । गाँव कस्बों में इस घटना की वीडियो रिकार्डिग दिखाई जा रही थी । मस्जिद पर चढते हुए , भागते हुए , डंडे और गोलियॉं खाते हुए लोग । मरते हुए लोगों को देखकर मुझे बहुत बुरा लगा । मुझे नफरत हो गई धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों से । एक तरफ ढांचा गिर रहा था एक तरफ लोग गोलियों और लाठियों से लथपथ हो रहे थे । कहीं किसी मंच से भाषणबाजी भी हो रही थी ।
लोग वर्तमान की जगह अतीत को सुधारना चाहते हैं । वह भी सडे हुए अतीत को । एक ऐसे अतीत को जो हाथ लगाते ही भुरभुरा कर गिरने लगता है । हम कविता लिखते हैं । बहस करते हैं । पक्ष विपक्ष में दलीले देते हैं । और किया भी क्या जा सकता है । समय आने पर फिर से वही सब कुछ दोहराया जाता है । यदि जनता को इतना जागरुक किया जा सके कि वह धर्म जाति के नाम पर मरने-मारने को उकसाने वालों के बहकावे में न आवे तभी यह सब रुक सकता है । यह काम जनता के स्तर पर ही हो सकता है । क्योंकि जिन ठेकेदारों का अस्त्त्वि ही नफरत की जमीन पर टिका हो वह तो ऐसी आत्मघाती पहल करने से रहे ।
सवाल उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं को याद किया जाना चाहिए । लेकिन याद नहीं करते फिर भी चीखने लगती हैं, कुछ तारीखें । इन घटनाओं को किस तरह याद किया जाता है । मातम पुरसी के रूप में या अपने - अपने हित में प्रयोग करने के लिए । जो भी हो कम से कम अफसोस तो जाहिर कर ही दें आज । हालॉंकि अब तो अफसोस जाहिर करते हुए भी रस्मअदायगी का पाखंड सा मालूम होता है ।
कौन देगा हिसाब उन बच्चों को
जिनका बचपन अनाथ हो गया
जो मरहूम हो गए बाप के प्यार से
उन औरतों को जिनके लिए
बदल गए मायने जिंदगी के
एक नफरत के मिशन में
क्या इतिहास उनकी कुछ मदद करेगा
इंसान और भगवान
दोनों दब गए मलबे के ढेर में
और उस पर उग आए
कुछ और विष वृक्ष
जो बना रहे हैं
फिर फिर मलबों का ढेर
पूर देश में ।
या वे लोग जो इस्तेमाल करते हैं
आदमी को इंसानियत के खिलाफ
घिनौना बना डालते हैं धर्म के नाम को
अपने निहित स्वार्थों के लिए
मारा जाता हैं बेकसूर आदमी हर बार
और बच निकलते हैं विष वृक्ष
लहराते हरियाते रहते हैं शान से
छिपाए हुए विषों के बीज
अपने ठूँठ में ,
फिर से रोपने के लिए , किसी मानसून में |
नफरत की फसल काटने के लिए ।
इस विषय से कुछ और संबंधित पोस्ट जो मैंने देखे :
इसके लिये भी भूमिका लिखूँ.....? शरद कोकास जी की एक मर्मस्पर्शी कविता ।
चौराहा अयोध्या का दर्द खुद अयोध्या नगरी की जुबानी ।
6 दिसंबर काल या द्रोहकाल
6 दिसंबर
देहाती
मार्मिक प्रस्तुति!!
ReplyDeleteजो गुजर गया सो गुजर गया .....
ReplyDeleteउसे याद कर न दिल दुखा ....
(बशीर बद्र ..)
Nice Blog and nice post. ok keep blogging.
ReplyDeletewww.onlinekhaskhas.blogspot.com
man ko choo liya.dil ko rula diya .
ReplyDeleteअब छोड़िए भी भाई.. याद करके क्या मिलेगा.. आज को देखिए, कल क्या हुआ भूल जाइए... अगर आज को भी ठीक से देख पाए हमलोग तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी...
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति के साथ सार्थक लेख....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक और हृदय विदारक भी.
ReplyDeletebahut hi dardnaak ghatna padhkar man bhar gaya saath hi kavita ne bhi prabhit kiya .
ReplyDeleteबहुत मार्मिक लेख---खासकर बच्चों को लेकर लिखी गयी कविता दिल को छू गयी।
ReplyDeleteहेमन्त कुमार
jakhm aur raakh ko kabhi nahi kuredna chahiye,nahi to haath sirf dard aur aanch hi aata hai........
ReplyDeleteSarthak aur marmik rachna ke liye aabhar aapka...