February 08, 2013

दिल्‍ली यात्रा व संजय ग्रोवर से एक मुलाकात


पिछले महीने की अंतिम तारीख को एक शादी में दिल्‍ली पधारना हुआ. कुछ और भी मित्र साथ थे. बाद में वापस आकर सोचे कि अच्‍छा हुआ फरवरी की बाढ़ आने से पहले कार्यक्रम निपट गया. वरना वहॉं स्‍वच्‍छंद विचरण न कर पाते. दिल्‍ली जाने का फायदा उठाते हुए साथी पार्टी को चकमा देकर हम, तब तक एक वर्चुअल शख्सियत संजय ग्रोवर से मुलाकात करने चले गए. अब सोचते हैं कि इंटरनेट से पहले लोग बिना भौतिक रुप से मिले पत्रादि के द्वारा संपर्क में रहते थे. वह भी तो वर्चुअल ही था, कि नहीं था ?


पहले फोन किया. नाम बताते ही वे हमें पहचान गए. खुशी व्‍यक्‍त की. हमने कहा दिल्ली में ही हैं और मिलने आ रहे हैं. उन्‍होंने कहा आ जाओ. फिर बताया कि कैसे-कैसे आना है. सलाह दी कि मेट्रो से आओ. हमने वही किया. वही करने के पहले शंका जाहिर किए कि हम मेट्रो में कभी चढ़े नहीं हैं. कहीं भकुआ तो नहीं जाऍंगे. उन्‍होंने कहा कि ऐसा कुछ होगा नहीं. यदि हुआ भी तो भी कुछ नहीं होगा. ऑटो से आना भारी पड़ने के साथ-साथ मूर्खता भी कहाएगी. पहुँचने पर उनकी बात को सही पाया. फिर हम अपने स्‍थान से रवाना हुए. पास का मेट्रो स्‍टेशन जानने के लिए सड़क के किनारे बैठकर सुस्‍ता रही दो झाड़ू लगाने वाली महिलाओं से पूछा. झाड़ू लगाने वाली इसलिए कहा कि उनके बगल में में दो लम्‍बे झाड़ू रखे हुए थे. पता चला एकाध किलोमीटर पर ही है. वे महिलाऍं कुछ ज्‍यादा ही विस्‍तार से बताने के मूड मे थीं. इसलिए कन्फूज होने से पहले हम उनको धन्‍यवाद देकर जल्‍दी से वहॉं से फूट लिए. ठंडी का मौसम था सैर करना अच्‍छा लग रहा था इसलिए पैदल ही चले.

लगभग सौ मीटर जाने पर ओवर ब्रिज के नीचे की क्रासिंग पर एक अनजान गाइड मिल गया. वह सांवला सा व्‍यक्ति फुल शर्ट के ऊपर हाफ स्‍वेटर पहने हुए था. मेहनती शरीर दिख रहा था.  बाकायदा तेल लगाकर कंघी किए हुए. बाऍं हाथ में उसने सफेद प्‍लास्टिक में कोई प्रमाण-पत्र जैसा रखा हुआ था. वह मेरी सडक में बांयी ओर से आकर मिलने वाली सड़क से आकर सीधा तना हुआ लम्‍बे-लम्‍बे हाथ फेंकते हुए तेजी से चल रहा था. मैंने मेट्रो स्‍टेशन पूछा तो उसने बताया कि आगे ही है. मैं उसके साथ चलने लगा. मैने पूछा कि आप भी उधर ही जा रहे हैं क्‍या. तो उसने किसी और दूर के स्‍थान का नाम बताया. वह अपने से बताने लगा कि उसके यहॉं हाल ही में बच्‍चा पैदा हुआ है. उसका जन्‍म प्रमाण पत्र बनवाने गया था. मैंने कहा कि वह जगह तो काफी दूर है आप ऑटो करेंगे? उसने कहा कि ऑटो करने के मेरे पास पैसे नहीं हैं. क्‍योंकि मेरे पास कोई काम नहीं है. मैं पैदल ही जाता हूँ. फिर उससे और बातें होने लगीं. बताया कि बिहार के किसी जिले का है. पहले कोई काम करता था. छठ पूजा में गॉंव जाने के लिए छुट्टी लेने की वजह से उसकी नौकरी चली गई. इस तरह की कई बातें उसने अपने बारे में बताईं कि उसकी शादी हो गई है और बच्‍चे भी हैं. बोला कि 6-7 हजार का काम मिलता है पर उसमें क्‍या होता है. साथ में यह भी कहा कि लेकिन लगे रहेंगे छोडेंगे नहीं. फिर बताया कि कहीं किसी प्रोजेक्‍ट में जुगाड़ कर रहे हैं. इतने में मेट्रो स्‍टेशन आ गया. हम सड़क के बीच बने डिवाइडर पर चल रहे थे जिनमें फेंसिंग नहीं हुई थी केवल मिट्टी पड़ी हुई थी. उसीने मुझसे कहा कि जाइए स्‍टेशन आ गया है. मैं उसे धन्‍यवाद देते हुए हाथ मिलाकर सडक पार करके दांयी ओर मेट्रो स्‍टेशन की तरफ चला गया. 

अंदर जाकर कस्‍टमर केअर में यह बताते हुए कि हमारा पहली बार है, पूछताछ की. उसने जल्‍दी-जल्‍दी तीन चार लाइनें बोलीं. हमने भूल न जाए इसलिए तीन-चार शब्‍द पकड लिए. कश्‍मीरी गेट, ऊपर चढ़ना, वहां से दूसरी ट्रेन पकडना. उसने ऊपर चढने के लिए हाथ के पंजे को नीचे से ऊपर की ओर करके इशारा से बताया. टोकन वाला टिकट लिया. सामने फटकी वाले प्रवेश मार्ग थे. हमने सामने वाले को देखा कि वह किधर टच करवाता है टोकन. देखकर हमने भी वैसा ही किया और खुल जा सिमसिम की तरह फटकी खुल गई.

मेट्रो के अंदर सब सिस्‍टम बढि़या था. पढ़े-लिखे इंसान को कोई दिक्‍कत नहीं. कम्‍प्‍यूटराइज्‍ड अन्‍टी अंकल (वहीं किसी ने मजाक में कहा था) की आवाज आ रही थी. हिन्‍दी और अंग्रेजी में बारी-बारी से कि कौन सा स्‍टेशन आ रहा है और यह भी कि फाटक दांयी ओर खुलेगा कि बांयी ओर. साथ ही फाटक से हटकर खड़े रहिए. सामने नक्‍शे में भी ट्रेन रनिंग इंफार्मेशन दिख रही थी. डिब्‍बे के बीच की पूरी जगह खड़े होने के लिए थी और दीवार से सटी कुर्सियां थीं. विकलांगों, वृद्धों और महिलाओं की सीट पर सब बैठे हुए थे. कोई महिला या विकलांग कहे तो लोग उठ जाते थे. अपने आप नहीं उठते थे. दो यंगस्‍टर इअर फोन लगाए चिपके हुए बैठे बाते कर रहे थे. तभी एक विकलांग सज्‍जन आकर खड़े हुए. लगता है वो भी नए ही थे. हमने उनसे कहा कि आप बैठिए इनको उठाकर. उन्‍होंने अरुचि प्रकट की तो हमने लडके से कहा कि इनको बैठना है. वह तुरंत उठ गया. वह सज्‍जन लड़की की बगल में बैठ गए. इस तरह बिना भकुआए (वाया मेट्रो में भी नहीं भकुआए लोहा सिंह) मेट्रो में पहली बार सफर किए और आखिरकार बैटरी वाले रिक्‍शे की सवारी करते हुए उनके घर पहुँच गए. हमने यह रिक्‍शा पहली बार देखा था. यहॉं नहीं चलता. रिक्‍शा चालक से कीमत पूछने पर बताया गया कि एक लाख में आता है. हमने कहा कि बैटरी कितने घंटे चलती है तो उन्‍होंने बताया कि सात-आठ घंटे. हमने कहा तब तो ठीक है. 

संजय ग्रोवर
रिक्‍शे से उतरकर घर ढूँढने में कोई उल्‍लेखनीय दिक्‍कत नहीं हुई. हम एक छोटा सा चिल्‍डेन पार्क पार करके गए. एक कुत्‍ता सड़क पर बैठा था. एक छोटी और दो बड़ी लड़कियों को गुजरते देखकर गुर्रा रहा था. शकल से भी खतरनाक दिख रहा था. मुझे लगा इसी ने संजय को काटा होगा. बाद में चर्चा के दौरान उन्‍होंने बताया कि वही था. कई लोगों को काट चुका है. वापस जाते समय हम उस तरफ से नहीं गए.
दरवाजा खोलते ही बोले, बिल्‍कुल वैसे ही लग रहे हो जैसे फोटो में दिखते हो. यह जानकर अच्‍छा लगा. मुझे भी बाद में ख्‍याल आया कि वैसे ही हैं जैसा लिखते हैं. गप-शप चलती रही. मृदुभाषी हैं. आराम से ठहरकर बोलते हैं. कहने लगे कि मैं अभी फोटो मोड में नहीं निगेटिव मोड में हूँ. आजकल कुछ अस्‍वस्‍थ चल रहे हैं. 


पहले स्‍वास्‍थ्‍य पर बात हुई. थोड़ी-थोड़ी कई विषयों पर बातें हुईं. ब्‍लॉगिंग, फेसबुक, इंटरनेट के संबंध में उन्‍होंने कहा कि इसकी वजह से हम जैसे लोग सक्रिय हो गए हैं जिन्‍होंने बीच में लिखना बंद कर दिया था. यदि बात में दम है तो लोग पसंद करते हैं. उनकी बात‍ काफी हद तक सही है पर मुझे ख्‍याल आया कि लाइक कमेंट भी उतने निर्दोष नहीं हैं इसमें भी लेन-देन व्‍यवहार रखना पड़ता है. यहॉं भी  गुरुजन भक्‍तजन हैं. फिर भी यहॉं अच्‍छा है. फ्रेंड लिस्‍ट में हैं तो पढते तो हैं ही लाइक कमेंट भले न करें. यह बात मन में आई लेकिन कहता उसके पहले ही उड़ गई कोई दूसरी बात होने लगी. साथ ही दिल्‍ली की गैंगरेप के संदर्भ में भी विचार व्‍यक्‍त किए गए. इस तरह बातों से बातें निकलती गईं. बातें कई मोड़ ले‍ती हुई घटनाओं, व्‍यक्तियों मुद्दों, विचारों और जीवन पर चलती रहीं. कभी बात करते हुए मुझे लगा कि मैं बोल ज्‍यादा और सुन कम रहा हूँ. तब मैं सुनने ज्‍यादा लगा. साहित्‍य, हिन्‍दी, अंग्रेजी, कुत्‍ता, हंस, नरेंद्रमोदी,  सरल की डायरी, उदयप्रकाश,राजेंद्र यादव, रीतिरिवाज, माता-पिता, लेखक लेखिकाऍं, कमरा, ओशो, रोटी, सब्‍जी, गुड़, मांसाहार, नास्तिकता आदि इत्‍यादि इत्‍यादि जो भी दिखा सबको घिचियाते गए. 

नास्तिकता से याद आया कि संजय ने बताया कि वे गैर-परम्‍परावादी नास्तिक हैं. अपने प्रोफाइल में Creative Atheist अर्थात् सृजनात्‍मक नास्तिक लिखते हैं. ईश्‍वर के बारे में उनके मन में कोई अवधारणा नहीं है.  इसके अलावा 'सरल की डायरी' का जिक्र हुआ. जो कि इनका एक और ब्‍लॉग है. मैंने कहा कि सरल की डायरी आप बहुत बढि़या लिख रहे हैं. बोले कि उसको लिखते रहना है.


आपने बताया कि अंजुले और नीलाम्‍बुज भी आए थे.  

पागलखाना ग्रुप के बारे में भी बात हुई :-)

दोपहर के भोजन का समय हो चला था इसलिए खाना वाना मँगाया खाया गया. खाना बढि़या था खाकर हमें आने की सार्थकता का एहसास हुआ. हमने यह कहा भी. भोजन के बाद उन्‍होंने कॅाफी बनाते-बनाते दो गजलें लैपटॉप पर सुनवाईं. जो कि उनके मित्र राजेश लाख द्वारा बहुत ही बेहतरीन गाई गई हैं. संजय इस तरह की गजलों की एक एलबम रिलीज करने वाले हैं. उन्‍होंने कहा कि तुम्‍हारा सौभाग्‍य है कि रिलीज होने से पहले सुनवा रहे हैं. हमने स्‍वीकार किया. इनका डेमो वर्जन उन्‍होंने यू ट्यूब में डाल दिया है. (मेरी आवारगी को समझेंगे / लोग जब ज़िन्दगी को समझेंगे). कॉफी पीते-पीते एक गजल और सुनी. यह गजलें शायद उनकी किताब खुदाओं के शहर में आदमी में हैं. अंत में उन्‍होंने गुड़ ऑफर किया तो हमने मना नहीं किया. शिष्‍टाचारवश नहीं बल्कि नाम सुनकर मन हो गया खाने को. उन्‍होंने यह यह भी कहा कि कुछ लोग गुड़ खाने को पिछड़ापन समझते हैं. हमने कहा कि हम पिछड़े क्षेत्र से ही आते हैं.

हम चलने लगे तो बोले कि टाइम हो तो बैठो मुझे कोई दिक्‍कत नहीं है. मैं फिर आध-एक घंटे बैठा. फिर   अंधेरा होने से पहले  विदा लिए.

4 comments:

  1. हम भी चले सरल की डायरी पढ़ने, सरल शब्द से हमें जटिल प्रेम हो चला है।

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  2. ओहो...मेट्रो की सवारी और संजय जी से मुलाकात! एक पंथ दो काज :-)

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  3. अकेले अकेले ही मिल आये। बहुत अच्छा किया। हम को ले चलते तो और भी अच्छा होता। फिर बिलकुल नहीं भकुआते

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  4. हम भी जब मिले थे तो वो ऐसे ही लगे थे जैसे फोटू में दिखते हैं । लेकिन हमें गजल ना सुनवाई। बस खाना खिला के टरका दिया था। लेकिन आम पापड़ भी तो दिया था घेलुए में। वैसे बड़ा मन था कि सब भर्चुयल मित्र साथ बैठकर गप्प हाँका जाए।

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नेकी कर दरिया में डाल