नए साल के पहले महीने का अंत करीब आ
चुका है. बस अंतिम सांसे गिन रहा है. साल 2013 का एक महीना खर्चा हो गया. समय एक ऐसी
पूँजी है जो अपने आप खर्च होती रहती है. हम उसके खर्च करने में कंजूसी नहीं कर
सकते न ही ज्यादा खर्च कर सकते. इसे किस तरह खर्च करना है यह काफी कुछ हमारे ऊपर
निर्भर करता है. लेकिन ठीक मुद्रा की तरह ही हम इसे पूरी स्वतंत्रता से इस्तेमाल
नहीं कर सकते.
सर्दी भी अपना पूरा जोर दिखाकर हॉंफने
सी लगी है. धीरे-धीरे थम रही है. अभी एक-दो बार अचानक ब्रेक लगाकर फिर थोड़ी दूर
चलेगी फिर धम्म से थम जाएगी.
पिछले महीने और पिछले साल के अंत में न
ही दुनिया खत्म हुई न ही भीषण ठंड की वजह से हिमयुग आया. एक मुद्दा जरुर रहा सनसनीखेज
बहस और समाचार चलाने का.
आजकल बयानों का दौर चल रहा है. बयान तो
लोग हमेशा देते रहे हैं. लेकिन किसी भी सड़ेला टाइप बयानों पर जो हुआ हुआ मचती है
वह इधर नई प्रवृत्ति लगती है. तुमने यह बोला तो बोला कैसे टाइप बात. जैसे गड़करी,
दिग्विजय सिंह या मोहन भागवत ने कोई सड़ेली बात कह दी तो उस प्राइम टाइम पर बहस
होकर रहेगी. इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार मीडिया है. किसी भी बात को इतना हाइपर
कर देते हैं कि यदि आप इस पर नहीं बोले तो लगेगा कि बुद्धू हैं.
पिछले महीने तो बलात्कार मामले पर नेताओं
के तरह तरह के मूर्खतापूर्ण बयान आते रहे. इस तरह के बयानों को सुनकर लगता है कि
लोकतंत्र में बहुमत का मापदंड बिल्कुल पर्याप्त नहीं है. बहुमत के साथ कुछ और भी
होना चाहिए क्योंकि बहुमत प्राप्त कर लेने भर से किसी की मूर्खता में कोई कमी
नहीं आती. बल्कि मूर्खता और अहंकार में बदल जाती है.
आसाराम बापू जैसे ढोंगियों ने तो हद कर
दी. जिस व्यक्ति के आश्रमों में चार-पॉंच बच्चों की हत्या का मामला चल रहा हो
वह व्यक्ति स्वाभाविक रुप से बलात्कारियों की भर्त्सना न करके पीडि़ता को ही
दोषी ठहराएगा.
किसी ने कुछ कहा नहीं कि पूरी
मीडिया सोशल मीडिया भी उसके पीछे वह सब लेकर पड़ जाती है जिससे उसकी छीछलेदर की जा
सके. इसके बाद देखा गया है कि बयान देने वाले सफाई देते या माफी मॉंगते फिरते हैं.
उन लोगों की भावनाऍं भी बहुत जल्दी आहत हो जाती हैं जिन्हें दूसरों को गरियाने
और उनकी भावनाओं का ख्याल नहीं रहता. हाल ही में आशीष नंदी का बयान सुर्खियों में
रहा. अभी ताजा – ताजा शाहरुख खान उछाले जा रहे हैं.
इस महीने अरविंद केजरीवाल और अन्ना
हजारे मीडिया से गायब रहे. केजरीवाल के खुलासों से गड़करी का इतना भर बिगड़ गया कि
वह फिर से अध्यक्ष नहीं बन पाए. बाकी सलमान खुर्शीद के एनजीओ, राबर्ट वाड्रा और
कोयला घोटाला मामलों के बारे में इस महीने कोई चर्चा या अपडेट नहीं मिला.
सर्दियों में भी मानसिक गर्मी बढ़ाने वालों की कमी कहाँ रही?
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