वह लडकी जो एक प्रतीक बन चुकी है। समाज और प्रशासन की असंवेदनशीलता का। साथी ही हमारे तंत्र की असफलता का जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हुई।
कल न्यूज चैनल दिल्ली की चलती
बस में हुए बलात्कार पीडित की मृत्यु पर शोक और आक्रोश व्यक्त करने गए प्रदर्शनकारियों
को कम ही दिखा पाई। वह लडकी जिसे दामिनी अमानत और भी कई छद्म नाम दिए गए, देश भर
में महिलाओं के खिलाफ हो रहे यौन अत्याचार पीडितों की एक प्रतीक बन गई है।
भारत-पाकिस्तान मैच शुरु हो
चुका था। मीडिया को वही खबरें ज्यादा दिखानी पडती हैं जिसे लोग ज्यादा देखना
चाहते हैं। इसलिए मीडिया को इस बात में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी कि कहॉं कौन से
थाने में कितने बेगुनाह लड़के-लड़कियॉं बंद हैं। उनके बारे में जनता को जानकारी दी
जाए। मीडिया क्रिकेट का पोस्टमार्टम करने में जुट गया था। अंत में खुशी की बात यह थी कि धोनी के शतक के बावजूद भारत हार चुका था।
सडक पर एक वाहन किसी राह चलते इंसान को टक्कर मार देता है।
लोकल पब्लिक जाम लगा देती है। यदि चालक पकडा जाता है तो उसे मार-मार कर अधमरा कर
दिया जाता है। वरना कुछ घंटे आवागमन बंद रहने के बाद पुलिस के समझाने बुझाने डराने
आश्वासन देने के बाद यातायात पुन: शुरु हो जाता है। कुछ दिन बाद फिर वही दुर्घटना
किसी न किसी रुप में दुहराई जाती है। न तो यातायात नियमों की फिक्र की जाती है। न
ही उन कारणों को खोजकर उन्हें दूर किया जाता जिसकी वजह से दुर्घटना होती है।
यह सब स्थानीय स्तर पर होता है। यह सही है कि कोई भी विरोध
की आवाज वहीं से सबसे पहले उठती है जहॉं वह विरोध हो रहा होता है। जाहिर है कि
दिल्ली के लोग खुद अपने शहर में हो रहे अत्याचार के विरोध में सबसे पहले खडे
होंगे।
यह जनाक्रोश रेप के केवल एक मामले तक सीमित नहीं रह गया। इससे
पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार एवं इससे पहले चर्चित हुए बलात्कार
के अनेक मामलों के लिए भी आवाज उठाई गई। इसमें जम्मू कश्मीर, आसाम में सेना
द्वारा किए गए अत्याचार और छत्तीसगढ में शिक्षिका सोनी सोरी पर किए गए पुलिसिया
यौन उत्पीडन का मामला भी शामिल है।
दूर-दराज के गॉंवों से डायन समझकर जला डालने या दलित स्त्री
को निर्वस्त्र करके गॉंव में घुमाने की घटनाऍं समाचार पत्रों में अक्सर आती रहती
हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं के लिए स्थानीय स्तर पर कभी कोई आंदोलन सुनने में नहीं
आते। या तो ऐसी घटनाओं के लिए जनाक्रोश पैदा नहीं हो पाता या फिर ऐसी जगहों पर
अपराधियों के पक्ष में सत्ता होती है सामाजिक और प्रशासनिक सत्ता।
यहॉं पर जनता के आक्रोश का मुख्य केन्द्र प्रशासन होता है।
प्रशासन के खिलाफ जनता नगरों महानगरों में इकट्टी हो जाती है। लेकिन छोटी जगहों या
गॉंव में यदि किसी दलित / पिछड़ी स्त्री का बलात्कार होता है तो वहॉं पर समाज
बंटा हुआ है। इसलिए वहॉं जनाक्रोश उस जाति विशेष के समाज में ही दिखाई पडता है, न
कि पूरे समाज में। इसलिए इस लडाई को पूरी तरह से महिलाओं को अपने हाथ में लेना
होगा। यह विरोध आंदोलन का रुप तब तक नहीं ले सकता जब तक कि किसी भी क्षेत्र में
वारदात होने पर उसे क्षेत्र की हर जाति धर्म की महिलाऍं विरोध के लिए सड़क पर नहीं
उतरतीं।
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नववर्ष में कुछ बदलता नहीं सिवाय कैलेंडर के। मौज मस्ती
पार्टी के लिए यह एक अच्छा अवसर होता है। शुभकामनाओं से कुछ होता जाता नहीं। फिर
भी शुभकामनाऍं देने से हम बाज नहीं आते। एक आदत सी पड़ गई है। हालॉंकि लोग केवल
रस्मी तौर पर दुहराने के साथ-साथ तहे दिल से भी शुभकामनाऍं देते हैं। पर उससे भी
कुछ फर्क नहीं पड़ता। कुछ चीजें केवल फील गुड करने के लिए होती हैं। यही सही।
इसमें भी क्या बुराई है। कम से कम एक दिन तो साल भर के लिए थोक में शुभकामनाऍं दे
देते हैं। फिर साल भर कौन क्या देगा इसकी कोई गारंटी नहीं रहती। यहॉं तो दो दो
बार हैप्पी न्यू इअर होता है। एक दीपावली के दूसरे दिन गुजराती नया साल और दूसरा
1 जनवरी। गुजराती नया साल काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। उतना तो 1 जनवरी भी नहीं
मनाया जाता यहॉं।
ek sarthak aur samyik lekh.
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