February 20, 2013

अपना मोर्चा में अप्रकाशित पत्र


 (यह पत्र दि.14 दिस. 2012 को जीमेल के माध्‍यम से editorhans@gmail.com को लिखा था)

पिछले कई अंकों से हंस में डॉ भीमराव अम्‍बेडकर के बौद्ध धर्म संबंधी विचारों पर बहस देख रहा हूँ।

हंस के नवंबर अंक में डॉ धर्मवीर के लेख का समापन कबीर की कविता से हुआ देखकर लगा कि यदि आप अम्‍बेडकर को उनके बौद्ध धर्म संबंधी व्‍याख्‍याओं में अवैज्ञानिकता निकालकर उसे खारिज कर रहे हैं, तो आप कबीर को उनके रहस्‍यवादी उलटबांसियों, निर्गुण भक्ति के आध्‍यात्मिक इशारों वाली उक्तियों के होते हुए किस तरह स्‍वीकार कर सकते हैं। यदि आपके दृष्टिकोण से धार्मिक संदर्भ में अम्‍बेडकर क्रांतिकारी नहीं हैं तो आप कबीर को कम से कम अम्‍बेडकर की तुलना में किस तरह क्रांतिकारी मान सकते हैं। कबीर निर्गुण भक्ति शाखा के संत थे। ब्राह्मण रामानंद के शिष्‍य थे। कबीर ने लिखा भी है "भक्ति द्राविड ऊपजी, लाए रामानंद" कबीर के दोहे धर्म संबंधी पाखंडों और आडंबरों पर चोट करते हैं। लेकिन कबीर एक भक्‍त हैं, निर्गुण राम के ही सही लेकिन उन्‍होंने धर्म की मूलभूत सत्‍व को तो स्‍वीकार किया ही है। उनके विचारों में भी एकरुपता नहीं है। शायद समय के साथ परिपक्‍वता आयी होगी।दूसरे नारी के विषय में कबीर की सोच तुलसी के समान ही रुढि़वादी है। कबीर ने नारी को नरक की खान और विषधर नागिन की भांति खतरनाक बताया है। इस तरह अम्‍बेडकर के बौद्ध धर्म संबंधी विचारों पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाकर कबीर के दोहे उद्धृत करना हास्‍यास्‍पद है।

अम्‍बेडकर के समक्ष मुख्‍य चुनौती या समस्‍या छुआछूत और जातीय भेदभाव था। हिन्‍दू धर्म की अवैज्ञानिकता नहीं। उनके बौद्ध धर्म स्‍वीकार करने की वजह क्‍या हो सकती है। एक विशाल समुदाय को ऐसी छत के नीचे लाना जिसमें जातीय आधार पर भेदभाव न हो। जिसके ईश्‍वर और संसार संबधी विचार वैज्ञानिक हों और सबसे बडी बात वे विचार उस विशाल समुदाय के मानसिक बुनावट को ग्राह्य हों। इसके लिए किसी ऐसे विचारधारा के साथ जाया जा सकता था जो इसी मिट्टी और अतीत काल में इन्‍हीं कुरीतियों समस्‍याओं की वजह से उपजी रही हो। जाहिर है द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद एक तर्कपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत होते हुए भी ऐसे लोगों की समझ में आने से रहा जिनका पुस्‍तकों से कोई नाता न हो। अम्‍बेडकर को यह भी पता था कि यदि मार्कस इनके समझ में आ भी गए तो भी मार्क्सवादी सवर्ण इन्‍हें अपने बराबरी का दर्जा देने से रहे। भारत में वर्ग अभी पैदा नहीं हुआ था। यहॉं केवल जाति थी, अभी भी है, मृत्‍यु से भी बडी अकाट्य सत्‍य। अम्‍बेडकर अपने साथियों के साथ कम्‍युनिज्‍म में दीक्षा नहीं ले सकते थे। क्‍योंकि वहॉं उन्‍हीं लोगों का आधिपत्‍य था जिनसे अम्‍बेडकर ताउम्र लड़ रहे थे और इंतजार करने का उनके पास समय नहीं था। 

इन परिस्थितियों में बौद्ध धर्म ही सर्वोत्‍तम था। अब रही बौद्ध धर्म की तत्‍वमीमांसा और इहलोक परलोक संबंधी विचारों की तो इसमें शास्‍त्रों के आधार पर अनंत समय तक तर्क किए जा सकते हैं। लिखित रूप में बौद्ध धर्म बुद्ध के पांच सौ वर्ष बाद अस्तित्‍व में आया। लिपिबद्ध करने वाले भी ब्राह्मण थे। स्‍वाभाविक है उसमें उन्‍होंने अपने संस्‍कारों के हिसाब से पूर्वजन्‍म की कथाऍं वगैरह डाल दी हों। इसी आधार पर अम्‍बेडकर की सोच को अवैज्ञानिक बताना तो एक बार विचारणीय हो सकता था। लेकिन उसके साथ ही  मक्खलि गोशाल जो कि नियतिवाद को मानते थे, उनका समर्थन करना, संदेह खडा करता है और पूर्वाग्रहग्रस्‍त मानसिकता को दर्शाता है। यदि अम्‍बेडकर किन्‍हीं बिंदुओं पर अवैज्ञानिक हैं तो मक्खलि गोशाल के विचार वैज्ञानिक कैसे हो गए। आप गड्ढे से बचकर दूसरे गड्ढे में क्‍यों गिरना चाहते हैं।


बौद्ध धर्म को इसलिए अस्‍वीकार किया जा रहा है कि बुद्ध क्षत्रिय थे। इसतर्क को आगे ले जाने पर  भविष्‍य में प्रेमचंद, हंस और राजेंद्र यादव के दलितस्‍त्री विमर्श को खारिज कर दिया जाएगा क्‍योंकि वे न तो दलित हैं, न ही स्‍त्री।

1 comment:

  1. जब व्यक्ति को उसके विचारों से कम, उसकी उपाधियों से अधिक जोड़ा जाने लगता है तो मान लीजिये कि उसकी चिता की लकड़ियाँ सजाने की तैयारी हो रही है।

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नेकी कर दरिया में डाल