May 14, 2009

नमस्ते !

यूँ तो नमस्ते या नमस्कार आज एक औपचारिक अभिवादन मात्र रह गया है, किन्तु यह एक शब्द पूरे भारतीय संस्कृत और दर्शन का सारतत्व समेटे हुए है । जब इस शब्द पर गहराई से विचार करते हैं, तो हमारा मन उन मनीषियों की आध्यात्मिक ऊंचाई और जीवन के प्रति उनकी अकूत समझ पर श्रद्धा से भर जाता है।

नमस्ते और नमस्ते करने की मुद्रा ठेठ भारतीय है । नमस्ते पर सारे भारतीय मत-मतान्तर वैदिक और अवैदिक, नास्तिक और आस्तिक, आर्य और द्रविड उसी प्रकार सहमत हैं जैसे समस्त भारतीय चिन्तन कर्म के सिद्धांत , पुनर्जन्म और ॐ पर सहमत हैं । चार्वाक को छोडकर ।

नमस्ते शब्द और नमस्ते करने की मुद्रा अद्भुत है । आइये इसके आध्यात्मिक पक्ष को समझने कि कोशिश करें ।

भारतीय धार्मिक परम्परा मूल धारा भक्ति की रही है । ध्यान और योग परम्परा की भी अपनी सत्ता थी, लेकिन वह केवल कुछ विशिष्ट वर्ग जैसे साधु-सन्यासियों तक ही सीमित थी । लोक मानस में भक्ति ही लोकप्रिय थी । आज भी है |

भक्ति में भाव ही प्रधान होता है । भाव का स्थल ह्रदय को माना जाता है। हालाँकि आधुनिक चिकित्सा शास्त्र मस्तिष्क को ही सारे ज्ञानात्मक अनुभव का केन्द्र मानता है, लेकिन यहां ह्रदय भाव का प्रतीक है ।

नमस्ते शब्द का यदि हम विश्लेषण करें तो इसका अर्थ इस तरह है :

नम = झुकना या नमन करना ।
अस = मैं ।
ते = तुम

अतः नमस्ते का शाब्दिक अर्थ हुआ कि मैं तुम्हारे सामने झुकता हूं या मैं तुम्हे नमन करता हूं ।

नमस्ते की मुद्रा इस विश्वास को प्रदर्शित करती है की प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय में दिव्याग्नि होती है जो कि ह्रदय चक्र में स्थित होती है ।

नमस्ते की आदर्श मुद्रा में हम दोनों हाथ जोडकर ह्रदय चक्र पर रखते हैं और सिर झुकाते हैं । यही प्रार्थना की मुद्रा भी है । यह क्रिया दोनों हाथॊं को जोडकर, हाथों को दोनों भौहों के मध्य(जहां त्रितीय नेत्र अवस्थित माना गया है) रखकर सिर झुकाते हुए और दोनों हाथ ह्रदय के पास लाते हुए भी की जा सकती है । यह बहुत ही गहन आदर प्रदर्शित करने का एक रूप है ।

नमस्ते की क्रिया ऐसी है की उसकी मुद्रा में ही नमस्ते का भाव छुपा हुआ है, इस तरह नमस्ते शब्द ना भी बोला जाये तो भी नमस्ते हो जाती है ।

एक तरह से नमस्ते व्यक्ति में छुपे हुए परमात्मा के प्रति भावाभिव्यक्ति है ।

नमस्ते करना ह्रदय से जुडने का प्रतीक है । नमस्ते विभिन्न व्यक्तियों के ऊर्जात्मक रूप से जुड़ने की विधि है | हमारे अहंकार का केन्द्र मस्तिष्क या मन है । जो व्यस्टि को समष्टि से अलग करता है । इस तरह नमस्ते अहंकार से मुक्त होकर ह्रदय से जुडने का आमन्त्रण है।

इसलिए नमस्ते कराने के फायदे ही फायदे हैं, लोक व्यवहार में भी और स्वयं से जुड़ने के लिए भी | इसलिए नमस्ते करते रहिये कोई प्रत्युतर में नमस्ते करे या नहीं |

नमस्ते !
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2 comments:

  1. नमस्ते की बहुत सटीक व्याख्या की आपने.बधाई.

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  2. सही लिखा है। नमस्ते करना तो चलता रहेगा। बस अगली पीढ़ियाँ शायद इसे छोड़ रही हैं।
    घुघूती बासूती

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नेकी कर दरिया में डाल