January 03, 2010

3 ईडियट्स बनाम फाइव प्‍वाइंट समवन

कल मैंने फिल् 3 ईडियटस देखी इसके पहले हाल ही में चेतन भगत का उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन पढा था

यह उपन्यास एक फुल टाइम पास है, वैसी ही फिल् भी है आप कहीं भी बोर नहीं होंगे फर्क इतना है कि किताब सच्चाई के ज्यादा करीब है चेतन भगत अद्भुत किस्सा गो हैं रेलवे स्टेशन पर प्रतीक्षा करते यात्रियों की तीन घंटे की समयावधि पर भी पूरा उपन्यास लिख सकते हैं

इसमें प्रेरणा देने की जो कोशिश की गई है, बहुत अच्छी है , कि हमारे यहॉ की शिक्षा पद्धति रट्टा आधारित है यह बात पहले भी अनंत बार कही जा चुकी है वैसे ही जैसे भ्रष्टाचार , जातिवाद , धार्मिक उन्माद इत्यादि खत् होने ही चाहिए , लेकिन होता नहीं है ऐसा लगता है कि इनके बिना हमारा काम नहीं चलेगा या अपनी पहचान लुप् हो जायेगी हर साल नए घोटाले पिछले साल के घोटालों के रिकार्ड तोडते जाते हैं इस क्षेत्र में क्रिकेट के खेल की तरह धडाधड कीर्तिमान बनते रहते हैं

फिल् रिलीज होने के बाद विवाद भी हो लिया लेकिन हम विवाद में काहे पडें हमने तो जो पढा और देखा वही बता रहे हैं वैसे भी विवाद से दोनों पक्षों को लाभ ही होने वाला है आज समाचार में था कि दिल्ली, अहमादाबाद , सूरत , वडोदरा इत्यादि में किताब की बिक्री पचास प्रतिशत तक बढ गई है फाइव प्वाइंट समवन बेस् सेलर पुस्तक रही है

चेतन भगत को फिल् के क्रेडिट हिस्से में वाजिब श्रेय मिला या नहीं यह तो फाइव प्वाइंट समवन देखने वाला और किताब पढने वाला मनुष् समझ ही जायेगा इसमें कोई आईआईटी बुद्धि या पटकथा लेखन के कौशल की कतई आवश्यकता नहीं है और यह भी कि सबको पहले से ही पता था कि यह फिल् चेतन भगत के उपन्यास पर बन रही है जिनको पता नहीं था अब पता हो गया है

यह बहस करना कि कितने प्रतिशत चेतन की कहानी है और कितने प्रतिशत शरमन जोशी, आर माधवन की जोड-तोड है , ज्यादा महत् नहीं रखता इसे इस तरह कहा जा सकता है कि कहानी का पूरा विचार दर्शन चेतन का है , भवन की नींव , पूरा ढॉंचा बाकी फिल् वालों ने उसमें अपने ढंग से डेकोरेशन किया है कहानी की कुछ घटनाओं को दूसरे ढंग से होते दिखाने भर से कोई कहानी का लेखक नहीं हो जाता उदाहरण के लिए डीन के कार्यालय से प्रश्नपत्र चुराने के लिए फिल् में प्रोफेसर की लडकी खुद लडकों को चाबी देती है जबकि किताब में हरि यह चाबी प्रोफेसर की लडकी , जिससे उसकी दोस्ती हो गई है , के यहॉं से चुराता है

फिल् और उपन्यास पर तुलनात्मक रूप से कुछ भी कहने से पहले मै यह बता दूँ कि मैंने किसी उपन्यास या कहानी पर बनी ऐसी कोई भी फिल् या टीवी धारावाहिक नहीं देखा जो मूल कृति से बेहतर हो शायद यह विधाओं में अंतर की वजहसे होता है पढते समय हम कल्पना करने के लिए स्वतंत्र होते हैं और हमारे मन में अपनी सुविधानुसार पात्रों की छवियॉं बन जाती हैं हमारे अनुभवों से मस्तिष् में काल्पनिक परिवेश बन जाता है फिर हम एक बेहतर कृति में डूबकर पढते जाते हैं लेखक जो विचार रख्ाता है, जो संदेश देना चाहता है उसे ग्रहण करते जाते हैं एक बेहतर रचना किसी काई लगी हुई ढलान की तरह होती है पैर रखते ही आप फिसलना शुरू हो जाते हैं और फिर फिसलते ही जाते हैं जब तक कि ढलान खत् नहीं हो जाती उसी तरह एक बेहतरीन रचना की एक लाइन पढने के बाद आप पूरी किताब पढने से खुद को नहीं रोक सकते यही उस पुस्तक के लोकप्रियता की वजह भी होती है क्‍योंकि साहित्‍य या कला कुछ भी होने से पहले मनोरंजन है चाहे वह किसी भी ढंग से हो दुखद या सुखद मन: स्थिति के अनुरूप

तो किसी पुस्तक को पढने के बाद उसके पिक्चराइज रूप को देखते समय स्वभावत: मन तुलना करने लगता है
तुलना इसलिए करता है क्योंकि कि हम अपने मन में पहले ही उस कहानी को पिक्चराइज कर चुके हैं कला फिल्में इस तरह के पिक्चराइजेशन में ज्यादा सफल होती हैं

जहॉं तक 3 इडियटस की बात है, इस कहानी का स्रोत चेतन भगत का उपन्यास फाइव प्‍वाइंट समवन ही है किताब पढकर और फिल् देखकर यह बात कोई भी आसानी से कह सकता है उपन्यास जो संदेश देना चाहता है फिल् भी वही कहती है , कि अपनी रुचि का काम करने से आदमी सफल होता है नौकरी के लिए पढाई और उच् शिक्षण संस्थान भी छात्रों में शोधपरक मनोवृत्ति विकसित करने की अपेक्षा उन्हें अच्छे अंक प्राप् करने की चूहा दौड में झोंक देते हैं शिक्षा का मकसद छात्र को यह समझने में मदद करना होना चाहिए कि वह क्या बनना चाहता है यह भी एक बडी उपलब्धि है कि स्टूडेंट समझ सकें कि उनकी रुचि क्या है और किस क्षेत्र का चुनाव उनके लिए सही रहेगा बच्चे अभिभावकों की महत्वाकांक्षा का शिकार हों और अपनी दिल की आवाज का अनुसरण कर सकें तभी एक खुशहाल समाज बन सकता है इसके लिए जरुरी है कि हर आदमी को वह करने का मौका मिल सके जिसके लिए वह पैदा हुआ है अन्यथा एक समाज में जहॉं लोग गलत जगहों पर बैठे हुए हैं कभी अमन चैन कायम नहीं हो सकता और ना ही वहॉं किसी सृजन की कोई सम्भावना है बस एक के बाद एक भारवाहक पीढियॉं पैदा होती रहेंगी यही भारत की समस्या है मेरे विचार से यह समस्या इसलिए है क्योंकि भारत जनसंख्या के बोझ से दबा हुआ एक गरीब देश है जिसके विकास में भारी असमानताऍं हैं ।

यह संदेश उपन्यास और फिल् दोनों में एकरूप है इसमें छात्रों पर पाठ्यक्रम के बोझ , सिस्टम या तंत्र के प्रति उनका असंतोष और उससे निपटने का 3 ईडियट्स का तरीका किताब और फिल् में एक ही है उपन्यास की तुलना में फिल् में कुछ घटनाओं को बदल दिया गया है जैसे किसी मकान में जाने से पहले आप उसमें अपनी सुविधानुसार फेरबदल करें उसी तरह फिल् में घटनाओं में फेरबदल किया गया है

3 ईडियट्स और फाइव प्वाइंट समवन की कहानी में तुलना :

- यह इंजीनियरिंग की मैकेनिकल शाखा से स्नातक करने वाले तीन छात्रों की कहानी है उपन्यास और फिल् दोनों की शुरुआत रैगिंग से होती है दोनों में छात्रो की रैगिंग होती है फिर रैंचो या रेहान उन्हें बचा लेता है जो कि दोनों में अलग-अलग ढंग से दिखाई गई हैं

- कालेज के पहले दिन कक्षा में मशीन के बारे में प्रश् किया जाना यह दिखाना कि किस तरह शिक्षा तंत्र में बदलाव की आवश्यकता है

- कालेज का प्रोफेसर डीन(बोमन ईरानी) बेहद सख् है , उसकी एक खूबसूरत लडकी है (करीना कपूर ) प्रोफेसर एक लडका भी था जोकि आत्महत्या कर चुका होता है, लेकिन सब समझते हैं कि वह ट्रेन दुर्घटना में मरा है यह बात केवल उसकी बहन को मालूम होती है , जिसे वह मरने से पहले एक पत्र लिखकर जाता है प्रोफेसर को पत्र और आत्महत्या के बारे में बाद में पता चलता है
उसकी बेटी अपने भाई की मृत्यु का जिम्मेवार प्रोफेसर को ठहराती है क्योंकि उसके भाई के बारबार आईआईटी प्रवेश परीक्षा में असफल होने के बाद भी प्रोफेसर उसे इंजीनयिरिंग करवाने का ही दबाव बढाता जाता है जबकि वह कला विषय लेकर पढना चाहता है प्रोफेसर की बेटी बहस के दौरान अंत में कहती है कि उसने आत्महत्या नहीं की बल्कि उसका मर्डर हुआ है

- तीन में से एक ईडियट आलोक (राजू रस्तोगी) के परिवार का वर्णन फिल् और किताब में एक समान है आलोक का परिवार मुसीबतों से घिरा हुआ है धनाभाव के कारण परिवार त्रस् है बहन की शादी करनी है , जिसके दहेज में लडके वाले मारुति 800 की मॉंग करते हैं बाप को लकवा मार गया है जिसकी वजह से वह हमेशा बिस्तर पर ही पडे रहते हैं आलोक किसी भी तरह एक जॉब चाहता है उसका इंजीनियरिंग करने का एकमात्र यही मकसद है यह घटना भी फिल् और किताब में समान है कि तीनों दोस् आलोक के घर खाना खाने जाते हैं और मटर पनीर की सब्जी खाते हैं अंत में खीर भी आलोक की मॉं खाने के दौरना अपनी समस्याओं का रोना रोती रहती है वस्तुओं के दाम बताती रहती है

- रट्टू छात्र वेंकट (किताब में) ( फिल् में ) की भूमिका ज्यादा अहम है किताब की अपेक्षा जिसके साथ आलोक , मित्रों से झगडा होने पर एक साल तक रहता है

आलोक के माता पिता फिल् में ज्यादा गरीब और दीन हीन दिखाए गए हैं उपन्यास में हरि के माता पिता का जिक्र नहीं है फिल् में हरि के माता पिता और उसका शौक फोटोग्राफी है यह बात उपन्यास की कहानी से अलग जोडी गई है इसी तरह करीना कपूर का रेहान से प्यार होता है जबकि उपन्यास में वह हरि से प्यार करती है उपन्यास में तीनों दोस्तो का ग्रेड फाइव प्वाइंट समथिंग होता है जबकि फिल् में रेहान (रैंचो) को प्रथम और बाकी दो दोस्तों आलोक और हरि को अंतिम स्थान में दिखाया गया है

इस तरह घटनाऍं ज्यादातर वही घटती हैं, जो उपन्यास में वर्णित हैं जैसे आलोक छत से कूदकर आत्महत्या करने की कोशिश करता है , लडके डीन के कार्यालय से प्रश् पत्र चोरी करते हैं , तीनों लडकों का डीन के घर में उसकी लडकी के कमरे में खिडकी के रास्ते चुपके से रात में जाना, कक्षा में प्रोफेसर को मशीन की परिभाषा पूछना आदि लेकिन फिल् में इन घटनाओं के घटित होने की वजह अलग है और इन्हें अलग ढंग से पेश किया गया है

फिल् की कहानी में उपन्यास की अपेक्षा जो एक बडा परिवर्तन किया गया है वह यह कि फिल् में दिखाया गया है कि कालेज से निकलने के बाद रणछोडदास (रेन्चो ) गायब हो जाता है और बाकी दोनों दोस् को उसका पता नहीं चलता पॉंच साल के बाद उन्हीं के कालेज के एक पढाकू छात्र साइलेन्सर(चतुर) का उन्हें फोन आता है जो कि अब किसी बढी कम्पनी में उच् पद पर है कि रैन्चों का पता मिल गया है इसके बाद फ्लैश बैक में होती हुई कहानी आगे बढती है जबकि उपन्यास की कहानी कालेज खत् होने और आलोक और हरि को नौकरी मिलने तथा रेहान (रेंचो) को उसी कालेज में सहायक शोधछात्र की छात्रवृत्ति मिलने के बाद खत् हो जाती है रेहान के पिता उसके रिसर्च से बनाए गए उत्पाद पर पैसा लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं और रेहान उसके व्यावसायिक उत्पादन संबंधी उद्योग की स्थापना में लग जाता है जोकि उसी शहर से लगे किसी गॉंव में लगाया जा रहा है

अंतत: 3 इडियटस एक बॉलीवुड मनोरंजक फिल् है जिसे देखकर पैसा डूबने का पछतावा नहीं होता आमिर खान का अभिनय अच्छा है, जैसा कि हमेशा होता है फिर भी फिल् उपन्यास की अपेक्षा यथार्थ के कम करीब लगती है

रही बात चेतन भगत को क्रेडिट्स की तो यह कहानी चेतन भगत की है मूल ढांचा तो उपन्यास का ही है फिर उसमें मनचाहे फेरबदल करना फिल् विधा के हिसाब से कोई बडी बात नहीं है जैसे रैगिंग करने के ढंग बहुत हैं तो उसमें आपने बदलाव कर दिया थोडा सा इससे यह साबित नहीं हो जाता कि यह आपकी मूल कहानी है

ठीक है अभिजात जोशी और राजकुमार हिरानी ने इस पर मेहनत की है लेकिन किसी भी मूलकृति पर कोई भी आसानी से अपनी इच्छानुसार छेडछाड कर सकता है, इससे आप यह नहीं कह सकते कि यह कृति उसकी हो गई मोनालिसा की प्रतिकृति बनाने से कोई लियो नार्दो विंसी नहीं हो जाता

फिर कांट्रैक् में क्या था या उनके बीच क्या डील हुई थी यह सब अभी पूरी तरह स्पष् नहीं है

अंत में यदि पूछा जाय कि फिल् देखने और उपन्यास पढने में ज्यादा मजेदार क्या है तो बेहिचक मैं यह कहूंगा कि फाइव प्वाइंट समवन के मुकाबले 3 इडियट्स बहुत कमजोर है वजह : फिल् हमें सिर्फ मनोरंजन देती है जबकि उपन्यामनोरंजन से आगे भी कुछ देता है उपन्यास का हिन्दी संस्करण भी उपलब् है प्रभात पेपर बैक् प्रकाशन, नई दिल्ली से , मूल् 95/-

चित्र : गूगल

12 comments:

  1. ji bilkul sahi vistrit vivechna maine bhi yahi kahna chaha tha.

    ReplyDelete
  2. अभी वही मूवी देख रहा हूँ, कल बात करुँगा.



    ’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

    -त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

    नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

    कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

    -सादर,
    समीर लाल ’समीर’

    ReplyDelete
  3. चूंकि आमीर दूसरों की फिल्म नहीं देखते और पुरस्कार समारोह में भाग नहीं लेते मैं उनकी फिल्में नहीं देखता। हां चेतन भगत की किताब पढ़ी है। अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  4. बहुत आभार इस दुहरी समीक्क्षा(उपहार ) के लिए

    ReplyDelete
  5. अफ़सोस कि मैने चेतन भगत की पुस्तक नहीं पढी और अभी तक फिल्म भी नहीं देखी. इसलिये इस बहस में सार्थक योगदान नहीं दे सकती. लेकिन फिर भी कहना चाहूंगी कि किसी भी साहित्यिक कृति पर जब भी फ़िल्म बनती है, तो उसमें कुछ परिवर्तन आवश्यक होते हैं, अपनी बात कहने के लिये ऐसा करने पर कहानी में परिवर्तन दिखाई देता है, लेकिन ऐसा होगा ही. मं च से जुडा व्यक्ति इन आवश्यक परिवर्तनों को बहुत अच्छे से समझ सकता है. यदि फ़िल्म का प्रस्तुतिकरण अच्छा है, कहानी की आत्मा ज़िन्दा है और फ़िल्म मूल कथा का संदेश भी देती है, तो फिल्म कमज़ोर नहीं कही जानी चाहिये. वैसे मैं फ़िल्म देख लूं, उपन्यास पढ लूं तो कुछ कहने के लायक हो सकूं.

    ReplyDelete
  6. main film dekh chuki aur mujhe bahut pasand aai ,iska subject mujhe bahut hi bhaya ,aur aapke is lekh se kai jaankaria bhi mili jinse hum anjaan rahe ,

    ReplyDelete
  7. I have not seen the film yet but have read the novel when it was first available in the market as it is my hobby to read books. As far as picturisation of novels or books is concerned, it is obvious that not everything can be shown and converted to scenes. It is for this reason, some modifications are made. But the essence of the story or the theme remains the same.

    The current controversy is baseless and may be a publicity stunt. When Chetan sold the novel to the producer, he should have argued with the producer to give him due credit in the form of a running entry saying "This film is based on the Five Points ...of Chetan Bhagat." Chetan was paid one lakh for selling his right. Now what is the use of raising the issue. If it is true that one must say that Chetan wants more money as the film grossed crores of rupees in the first and declared a box office hit.

    Rightly said that Chetan is the Fourth Idiot. What was he doing till this time? When the film was shown in theaters, he chose to come out and vent his objection.

    Purely it is a publicity stunt and i am afraid if Chetan was paid for this. If not it is useless in the part of Chetan to rake controversy. Mr. Chetan before selling any right in future make sure you are paid adequately and credit is given to you. Rubbish!

    ReplyDelete
  8. फिल्म तो देखी नहीं है। पता नहीं कब देख पायेंगे...किताब बहुत पहले पढ़ ली थी। आपने अच्छा लिखा है। बहुत ही अच्छा विश्लेषण!

    ReplyDelete
  9. पढ़कर यह कहा जा सकता है क‍ि इस को ल‍िखने के ल‍िए काफी मेहनत की गइ है। हमने तो क‍िताब नहीं पढ़ी हां बच्चों के कहने पर फ‍िल्म जरूर देख ली।
    इस फ‍िल्म को देखकर मुझे तो ऐसा लगा मानों मुन्ना भाइ एम बी बी एस और तारे जमीन पर की की मूल भावनाओं को एक शीशी में रखकर फेंट द‍िया गया हो।
    वो कहते हैं न ... डबल मजा! हां, तो मुझे डबल मजा आया था फ‍िल्म देखकर। रही सही कमी आपके इस पोस्ट ने पूरी कर दी।

    ReplyDelete
  10. मैं विवाद को सुनकर झुंझलाहट में पड़ गया, कथाकार, कथाकार ही होता है. बिना बुनियाद के इमारत थोड़े खड़ी हो जाएगी. अब इन फिल्म वालों को क्या कहा जाए, पता नहीं इनका पटकथा लेखक से क्या कनेक्शन है जो निर्देशक से लेकर आमिर खान तक सारा क्रेडिट उसे ही देने पर तुले हैं.
    आपने लिखा, बहुत अच्छा लिखा, बिंदास लिखा. जो तुलना की उसका तो जवाब नहीं. आपकी लेखनी काफी धारदार हो गयी है. बधाई.

    ReplyDelete
  11. किताब का अपना मज़ा है पर फिल्म भी बहुत अच्छी है .......... दोनो का अलग अलग मज़ा है .........

    ReplyDelete
  12. सुन्दर लिखा है। बिन्दास!

    ReplyDelete

नेकी कर दरिया में डाल