लीजिये पेश हैं, सदी के सबसे विद्रोही विचार -
"मैं अपनी पहली संन्यास दीक्षा किसी स्त्री को ही देना चाहता था - संतुलन के लिए |
स्त्री को संन्यास देने में बुद्ध तक हिचकिचाए ..... बुद्ध तक ! उनके जीवन की सिर्फ़ यही एक बात मुझे कांटे कीतरह खटकती है, और कुछ नहीं | बुद्ध झिझके ....क्यों ? उन्हें डर था की स्त्री संयासिनियाँ उनके भिक्षुओं कोडावांडोल कर देंगी | क्या बकवास है ! एक बुद्ध और डरे ! अगर उन मूर्ख भिक्षुओं का ध्यान भंग होता था तो होनेदेते | महावीर ने कहा की स्त्री शरीर रहने से किसी को निर्वाण, परम मुक्ति नहीं हो सकती | मुझे इन सब पुरुषोंके लिए प्रायश्चित करना है | मोहम्मद ने कभी किसी स्त्री को मस्जिद में आने की अनुमति नहीं दी | सिनागोगमें भी स्त्रीयां गैलरी में अलग बैठती हैं, पुरुषों के साथ नहीं बैठतीं |
इंदिरा गाँधी मुझे बता रही थीं की जब वे इजराइल की यात्रा पर थीं और येरुसलम गईं, तो उन्हें भरोसा ही नहींहुआ की इजराइल की प्रधानमंत्री और वे स्वयं, दोनों बालकनी में बैठी हुई थीं और सारे पुरूष नीचे मुख्य हाल मेंबैठे हुए थे | उन्हें ख्याल नहीं आया की इजरायल की प्रधामंत्री भी, स्त्री होने के कारण मुख्य सिनागोग में प्रवेशनहीं कर सकती थीं | वे केवल बालकनी से देख सकती थीं |
यह आदरपूर्ण नहीं है, यह अपमानजनक है | मुझे मोहम्मद, मोज़ेज़, महावीर, बुद्ध के लिए माफी मांगनी है | और जीसुस के लिए भी, क्योंकि उन्होंने अपने ख़ास बारह शिष्यों में एक भी स्त्री नहीं चुनी| और जब उनकीसूली लगी तो वे बारह मूर्ख वहां नहीं थे | केवल तीन स्त्रियाँ उनके पास थीं - मेग्दालिन, मेरी और मेग्दालिन कीबहन | पर इन तीन स्त्रियों को भी जीसस ने नहीं चुना, वे चुने हुए ख़ास शिष्यों में नहीं थीं | चुने हुए ख़ास शिष्यतो भाग गए थे | वे अपनी जान बचाने की कोशिश में थे | खतरे के समय केवल स्त्रियाँ ही आईं |
इन सब लोगों के लिए मुझे भविष्य से क्षमा मांगनी है | और मेरी पहली माफ़ी थी कि सबसे पहले स्त्री को हीसंन्यास दिया |"
- ओशो
यह पैराग्राफ "हिन्दुस्तान", नई दिल्ली और "हंस" पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ है | स्त्री मनोविज्ञान से सम्बंधित ओशो के विचार "कृष्ण स्मृति" प्रवचन माला एवं पुस्तक में उपलब्ध हैं |
महिला दिवस की बधाई।
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