सडक किनारे पंजाबी, चाइनीज, दक्षिण भारतीय खाने की दुकानों, आइसक्रीम, सोडा के ठेलों के ठीक बगल में, पडे रहते हैं तम्बू ताने लोग, अपनी रोटी खाते भात पकाते, इतने करीब की हमारी कुर्सी और उनकी टूटी खटिया में दो-चार हाथ की ही दूरी रहती है। जमीन में उनके बच्चे, महिलाऍं सोते रहते हैं। कभी-कभी हाथ में रोटी लेकर खाते बच्चे। पता नहीं किस चीज से खाते रहते हैं रोटी। गंदे-गंदे से दीखते उनके बूढे-बूढियां बाल उलझाए। अपनी हड्डियां दिखाते, बीडी फूंकते बैठे रहते हैं। गर्मी से बेहाल। रात बढने, रात के साथ मौसम ठंडा होने के इंतजार में।
ऐसे दृश्य हमेशा ध्यान खींचते हैं। गरीबी और बीमारी निराश करती हैं। इसलिए हम इनसे बचकर निकलना चाहते हैं। नोटिस सब करते हैं। निराश इसलिए करती हैं कि मन में कहीं न कहीं यह बात होती है कि किसी भी इंसान की स्थिति वैसी हो सकती है। किसी भी इंसान में हम खुद भी शामिल हैं।
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साल में एक-दो बार कटनी स्टेशन से गुजरते वक्त अकसर उस बुक स्टॉल पर जिसमें साहित्यिक किताबें रखी होती हैं खासकर हिन्दी की, पूछ लिया करता था कुछ किताबों के बारे में जिन्हें खरीदना चाहता था। 2-3 सालों में पहली बार उस बुक स्टॉल पर 'काशी का अस्सी' उपलब्ध थी। यह किताब अकसर मैं बुक स्टालों पर पूछता रहता था लेकिन नहीं मिलती थी। अभी शायद किताबें उतरी ही थीं। सामने ही रखी थी। इसके साथ ही काशीनाथ सिंह की 'रेहन पर रग्घू' और 'घर का जोगी जोगडा' भी मिलीं। मनोहर श्याम जोशी की 'हरिया हक्यूलिस की हैरानी' और 'क्याप' भी ली। हरिया हक्यूलिस की हैरानी पुस्तकालय से लेकर पढ चुका हूँ। मैं ज्यादातर पुस्तकें पुस्तकालय से लेकर ही पढता हूँ। लेकिन पुस्तकालय बहुत सी पुस्तकें नहीं मिलती जिन्हें आप पढना चाहते हैं। नई पुस्तकें भी पुस्तकालय में नहीं मिलतीं। ज्ञान चतुर्वेदी की 'मरीचिका' भी ली। ज्ञान चतुर्वेदी की 'बारहमासी' और 'नरकयात्रा' पढने के बाद उनकी अगली पुस्तक लेने से रोक पाना असंभव है। ज्ञान चतुर्वेदी श्रीलाल शुक्ल की परंपरा को कायम रखे हुए हैं।
मजेदार बात यह हुई की पुस्तकें चयनित करते करते ट्रेन चल दी। अभी मैं कुछ और पुस्तकों के लेने न लेने का विचार कर रहा था लेकिन ट्रेन लुढकने लगी तो जो भी थीं उनके पैसे जल्दी से देकर ट्रेन की तरफ रुख किया। इतने में ट्रेन रुक गई। तस्लीमा नसरीन की एक मोटी सी किताब मुझे लगा कि मैं पुस्तकालय से लेकर पढ चुका हूं जो कि कॉफी महँगी भी थी। मैंने दुकानदार को उसकी जगह दूसरी किताबें देने को कहा। उसने पैसों का हिसाब लगाकर किताबें दीं। अभी उसके 5 रुपए नहीं एडजस्ट हो रहे थे कि ट्रेन फिर चल दी। मैंने उसे अगली बार देने को कहकर ट्रेन में चढ गया। इसके पहले उसने 10 रुपए मुझ पर टिकाए थे।
पुस्तकों के चक्कर में ट्रेन अक्सर चल देती है..
ReplyDeleteबहुत अच्छी पर्स्तुती
ReplyDelete:( पहले भाग के लिये।
ReplyDelete:) दूसरे के लिये। :)