January 09, 2011

जो बिक न सके उनकी हालत तो देखिए

 जो बिक न सके उनकी हालत तो देखिए
बिके लोगों पर पर खुशी की आमद तो देखिए

आज फेसबुक और ब्‍लॉग्‍स के कुछ स्‍टेटस-पोस्‍ट देखकर ऐसा लगता है कि खिलाडियों का आईपीएल में नीलाम होना भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को रास नहीं आता कि फलां इतने करोड में बिक गए ढिकां इतने में बिके। जैसे प्रशांत प्रियदर्शी का यह फेसबुकिया स्‍टेटस 
सुना कि क्रिकेटरों कि मंडी लगी है आज.. सोचते हैं कि कुछ क्रिकेटर खरीद कर उनसे झाडू-पोछा करवाया जाए.. ;-)
 यहॉं पर हमारी टिप्‍प्‍णी थी #वैसे बात मजेदार लगती है कभी 'बिक जाना' शर्म की बात है और कभी 'न बिकना' फिर भी बिकने की नेट प्रैक्टिस अच्‍छी हो रही है।
और पी सी गोदियाल जी की पोस्‍ट नीलामी
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वजह साफ है कि अब तक भारत में खेल सिर्फ राष्‍ट्रीय या क्षेत्रीय पहचान से जुडा हुआ है। विदेशों की तरह क्‍लब या काउंटी खेल इतने लोकप्रिय नहीं हैं कि बडे पैमाने पर लोग महँगे टिकट खरीदकर खेलों को देखने जाऍं। आईपीएल क्रिकेट ने एक नई शुरुआत जरूर की है । सिर्फ क्रिकेट के लिए ही नहीं वह तो भारत में पहले से ही जरुरत से ज्‍यादा लोकप्रिय है।  बल्कि यदि आईपीएल की तर्ज पर फुटबॉल और हॉकी के भी लीग बनें और इससे इन खेलों के खिलाडियों को भी क्रिकेट की तर्ज पर ही खेलने का मौका मिले तो हॉकी और फुटबॉल को भी कॉफी लोकिप्रियता हासिल हो सकती है। साथ ही इन खेल के खिलाडियों को खूब आर्थिक लाभ होने की वजह से युवा वर्ग इन्‍हें खेलने के लिए प्रोत्‍साहित भी होंगे।
आज हमारे यहॉं क्रिकेट की अपेक्षा फुटबॉल और हॉकी खेलों और उनके खिलाडयों की यह स्‍िथति है कि टीवी पर विज्ञापन में एक भी हॉकी या फुटबॉल खिलाडी दिखाई नही देता। कभी बाईचुंग भूटिया दिखाई देते थे। हॉकी का भी कभी कोई खिलाडी आया होगा। पर यह सिर्फ अपवाद स्‍वरूप थोडे दिन के लिए ही होता है। हॉं, ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाडी जरूर कुछ दिन तक या कोई बडा खेल आयोजन होने पर विज्ञापनों में दिखाई देने लगते हैं।

खिलाडियों को हमेशा चाहे वह क्‍लब - काउंटी या किसी देश राज्‍य की तरफ से खेलें, मैच फीस मिलती ही है। लेकिन सरेआम इस तरह खिलाडियों की नीलामी होना कुछ अच्‍छा नहीं लगता। यह ठीक किसी विज्ञापन में काम के लिए अनुबंध करने जैसा है। न बिक सकने वाले खिलाडी बिल्‍कुल हताश और बेकार नजर आते हैं। यह अपमानजनक है। जैसे आज समाचार चैनलों पर बार-बार खबर आ रही थी कि गांगुली को किसी ने नहीं खरीदा। इस तरह की हरकतें बंद होनी चाहिए और किसी दूसरे ढंग से इस काम को अंजाम देना चाहिए। खिलाडियों के बिकने की आदत पड गई तो फिर सट्टेबाजों से खेल को बचा पाना मुश्किल हो जाएगा। खिलाडी कन्‍फूज भी हो सकते हैं कि कहॉं बिकना चाहिए और कहां नहीं बिकना चाहिए। क्‍योंकि खिलाडी जितना बडा होगा कीमत भी उसी के अनुसार बडी होगी और कीमत ज्‍यादा बडी होने पर कन्‍फयूजन बडा होना स्‍वाभाविक है।
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(परसों हमने भारत और द. अफ्रीका के  बीच  तीसरे टेस्‍ट मैच के समाप्‍त होने के बाद अपनी प्रतिक्रया लिखी थी जिसे प्रकाशित नहीं कर पाए थे। इसे आज यहॉं पर दे रहे हैं।)
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हार और जीत के बीच सचिन तेंदुलकर और जैकस कैलिस खडे हो गए। हम इसी तीसरे केपटाउन टेस्‍ट की बात कर रहे हैं । पॉंचवें दिन 342 रन बना पाना तो असंभव ही लग रहा था। खासकर सहवाग की खराब फार्म के चलते। सभी इंडियन यही कह रहे थे कि आज भारत तभी जीत सकता है जब सहवाग चले। हालांकि सहवाग को नो बॉल पर आउट दिया गया। इंडिया टीवी पर चेतन शर्मा ने बाकायदा एक सफेद पट्टी पर पैर रख-रखकर नो बॉल की कॉन्‍सेप्‍ट भी समझाई। साथ ही आईसीसी के कोई नियम संख्‍या का हवाला देकर इसकी बार‍ीकियॉं भी समझाई गईं। इसी चैनल में भारतीय बल्‍लेबाजों गंभीर, सहवाग, द्रविड की फोटो दिखा दिखाकर यह भी बताया गया कि हार के जिम्‍मेवार कौन। मतलब यही लोग हार के जिम्‍मेवार थे। क्‍योंकि इन्‍होंने बहुत धीमा खेला।  इस चैनल से यह नहीं कहते बना कि यही धीमा खेलकर ड्रा के जिम्‍मेदार बने। वरना भारतीय आयाराम गयाराम होने ही वाले थे। 

कुल मिलाकर धोनी ने साबित कर दिया कि उन्‍हें किस्‍मत का सॉंड यूं ही नहीं कहा जाता।  दक्षिण अफ्रीका जाकर सीरीज हारने से इंकार कर देना भी बडी बात हुई। वजह सिर्फ यही रही कि भारतीय तेज गेंदबाज छह विकेट पर 136 रन के बाद दक्षिण अफ्रीकियों को डराने की कोशिश करने लगे। इसीलिए वे विकेट पकडकर खडे रह गए। नतीजा टेस्‍ट ड्रा रह गया। भज्‍जी ने ठीक ही कहा कि हमने यह मैच गँवा दिया।

9 comments:

  1. बिक के भी खुश, न बिक के भी दुखी।

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  2. बाजार के नियम-कायदे, मूल्‍य और प्रतिमान वैसे नहीं होते, जैसे आपसी रिश्‍ते. अगर खेल के मैदान में भी (युद्ध की तरह) धूल चटाने की बात कही जाए फिर खरीद-फरोख्‍त की शब्‍दावली तो ऐसी है ही, क्‍या करें.

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  3. दासों की नीलामी, और अब फिर वही। इतिहास क्या इस तरह से अपने को दोहरा रहा है। स्पार्टाकसों के चहरे और मुट्ठियों का तनाव आज सिरे से गायब है। हुक्मरान आनंद में हैं।

    शुक्रिया।

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  4. तुलसीदास आज होते तो यही कहते, "सबहीं नचावत 'बाजार' गोसाईं"

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  5. @समय, नई गुलामी के इस दौर के गुलामों की चेतना शायद अभी स्‍पार्टाकस के स्‍तर
    तक नहीं पहुँची है ।
    आभार ।

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  6. @PD, बढिया पैरोडी है तुलसी बाबा के चौपाई की

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  7. अर्कजेश जी मुझे भी ये खरीद-फ़रोख़्त रास नहीं आती. असल में मुझे तो क्रिकेट ही रास नहीं आता. दूसरी पारी के लिये स्वागत है.(आपका)

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  8. More on khareed farokth:
    जब तक बिका ना था तो कोई पूछता ना था, तुमने खरीद कर मुझे अनमोल कर दिया!

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  9. @ वंदना अवस्‍थी दुबे, धन्‍यवाद ! अच्‍छी बात है क्रिकेट रास नहीं आता

    @ Giribala] वाह !

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नेकी कर दरिया में डाल