पावर है तो सब कुछ है पावर नहीं है तो सब कुछ भी कुछ ना होने के बराबर है । पावर के शाब्दिक अर्थ तो बहुत हैं पर अर्थ जो ध्वनित होता है एक ही है - ताकत, शक्ति ।
इस ताकत को प्राण या जान भी कहा गया है । जिसे अभी भी विग्यान को समझना बाकी है ।
जब पावर माने बिजली होता है तो वह बिजलीधारी जीवों की आत्मा है । सब बिजली और बैटरी से चलने वाले उपकरण बिजली चालित जीव हैं । बिना बिजली के ये सब निर्जीव हैं । पावर नहीं होने पर आदमी सीधे आदिम युग में पहुंच जाता है । मनुष्य की सभ्यता का विकास शक्ति और उसको अपने ढंग से उपयोग में लाने का विकास है ।
जैसे आदमी ऊर्जा को शक्ति में बदलकर उपयोग में लाना सीख गया । विकास होता गया । बिजली वाली पावर के संकट का सामना तो हम कर ही रहे हैं ।
समाज के सारे विमर्श पॉवर के विमर्श हैं ।
स्त्री-पुरुष, शासक-शासित, नौकर-मालिक, अमीर-गरीब, अफ़सर-मातहत में मुख्य अन्तर पॉवर का ही है ।
कई उन्नत सभ्यतायें पॉवर हीन होने की वजह से नष्ट हो गईं ।
पावर शारीरिक भी होता है और मानसिक भी । लेकिन जो भी हो पॉवर अन्ततः निर्णायक होता है ।
धर्म और ईश्वर से भक्त या श्र्द्धालु का "प्रेम" वस्तुतः ताकत के प्रति प्रेम है ।
यह बहस और विवाद की बात हो सकती है ।
क्या कोई शक्तिविहीन ईश्वर को प्रेम करना पसन्द करेगा ? तुलसीदास जी ने तो कह ही दिया है की "भय बिन होय न प्रीत" ।
धर्म का विकास ही वास्तव में ताकत के तुष्टीकरण के रूप में हुआ है ।
ताकत ही ऊंच-नीच का भेद पैदा करता है । श्रेष्ठ हमेशा ताकतवर होता है या उसके अन्दर किसी न किसी रूप में शक्तिशाली होने का भाव होता है ।
और इस विषमता का संग्यान भी ताकत के द्वारा ही लिया जाता है ।
प्रेम, नैतिकता और मानवता पॉवर को दरकिनार करके व्यवहार करने की शिक्षा देते हैं । यहां भी शक्ति ही है पर यह सृजनात्मक शक्ति है ।
इस तरह शक्ति के दो विरोधी रूप सतत कार्यरत रह्ते हैं । परमाणु से लेकर ब्रह्मांड तक ।
एक - सृजन , दो - विनाश ।
कहा जाता है कि आदमी की असली पहचान तब होती है जब वह पॉवर में होता है । इसी को दूसरे ढंग से कहा जाता है की जब वह सत्ता में होता है ।
शक्ति एक विरेचक भी है जो आदमी की छिपी हुई कामनाओं को तुरन्त बाहर ला देती है । दीन-हीन अवस्था में आदमी सेफ़-मोड में रहता है ।
अपने गुस्से वगैरह को औकात में रखे हुए । पॉवर में आते ही उसका व्यवहार एकदम से बदल जाता है । इसका उल्टा भी होता है ।
मतलब पॉवर के जाने से भी व्यवहार उतना ही जल्दी उलटता है । यह कहा जा सकता है की ताकत इन्सान के व्यवहार को भी निर्धारित करती है ।
अच्छा आदमी वही कहा जाता है जो ताकत में होने पर भी उसका एहसास ना कराये । यदि आप बन्दूक रखे हैं तो दिखाइये मत ।
अगले को यदि आपकी ताकत का पता नहीं चलेगा तो वह डरेगा क्यों । ताकत को नियंत्रित कर पाना ही असली ताकत है । यही ताकत विकास और सृजन करती है ।
ताकत प्रेम की तरह स्वयं अपने आप में उपयोगी नहीं है, बल्कि इसका महत्व इसका उपयोग कर लेने में है । कहने का मतलब यह आपको आनंदित नहीं करेगी यदि आप इसका उपयोग ना करें । इसीलिये ताकतवर आदमी या तो भगवान बन जायेगा या शैतान बन जायेगा । अर्थात किसी न किसी रूप में ताकत को विसर्जित करेगा ।
शक्तिहीन हो जाने पर सूर्य , तारे यहां तक की आकाश गंगा भी शून्य़ में विलीन होने लगती हैं ।
इस लेख के अन्त तक पहुंचते पहुंचते ऐसा लग रहा है कि जिस तरह वैयक्तिक चेतना मनुष्य के रूप में शक्ति को मनचाहे ढंग से प्रयोग करने के क्रम में पहिए के आविष्कार से शुरू करके सूक्ष्म उपकरणों से गुजरते हुए स्वचालित कृत्रिम बुद्धि तक विकास करती जाती है , ठीक उसी तरह समष्टि चेतना भी एक कोशिकीय जीव से लेकर पादप और जीव जगत में विकास करते हुए मनुष्य के अति उन्नत मस्तिष्क तक पहुंचती है ।
और अन्ततः व्यष्टि चेतना के द्वारा निर्मित स्वचालित कृत्रिम बुद्धि अपने उच्चतम शिखर पर मानवीय बुद्धि से अंशतः समायोजित होकर मशीनी मानव
का निर्माण करती है ।
बन्धु,
ReplyDeleteप्रभुता और शक्ति आज सृजन के लिए नहीं, संहार के लिए ही प्रयुक्त होती है... वह देव-युग गया जब शक्ति का प्रयोग सेवा, सृजन, सहायता के लिए होता था! 'तेन दिवसा गता:.'
इस आलेख की विशेषता यह है कि यह बड़ी मासूमियत से शक्ति के नियंत्रण की सलाह देता है; जिसकी आज सचमुच बेहद ज़रुरत है...
सुन्दर, प्रभावी आलेख, बधाई !! --आ.
bahut achchi laga padh kar..... views ko bahut achche se rakha hai...
ReplyDeleteतरह-तरह की शक्तियां इंसान को घेरे रहतीं हैं. कुछ इंसानी तो कुछ मशीनी. शक्तियों का सदुपयोग ,दुरुपयोग की अपेक्षा कम ही होता है. बढिया आलेख.
ReplyDelete"POWER" ke baare me powerfull jaankaari
ReplyDeletevandana ji ki baat bilkul satya hai durupyog jyada nazar aata hai .ati sundar vishya aur mahtavpoorn jaankaari rahi ,
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