April 03, 2010

काली मलाई - एक अप्रायोगिक निष्‍कर्ष

ब्‍लॉगर बगलूचंद आराम की मुद्रा में बैठकर , नहीं, बल्कि पसरकर इंटरनेट लोक में घुसे ही थे , ऐसे जैसे कोई दिनभर के कामों से फुरसत पाकर शाम को अपने दोस्‍तों की महफिल - अड्डे में निठल्‍ले मूड में बैठा हो । महफिल जमने ही वाली थी । जाल के कुछ पन्‍ने खुल गए थे और कुछ खुल रहे थे । बगलूचंद आज कई दिनों बाद ब्‍लागों पर इधर उधर अगंभीर नजर मारने की कोशिश कर रहे थे । तभी उन्‍हें कहीं आस पडोस में हवन से उठने वाली गंध जैसी गंध महसूस हुई । पहले तो उन्‍हें अच्‍छा लगा लेकिन जब गंध तेज होती गई , तब उन्‍होंने अपने पास एक अदद सोचने वाला दिमाग होने का फायदा उठाया और सोचा कि हो न हो आज कोई व्रत उपवास का दिन होगा, पडोस में पूजा या कथा वगैरह हुई होगी । इसीलिए हवन किया जा रहा है । ऐसा सोच ही रहे थे कि उनके दरवाजे पर दस्‍तक हुई । उन्‍होंने फिर सोचा कि लो कोई प्रसाद लेकर भी आ गया । लेकिन दरवाजा पूरा खुलने से पहले ही नीचे के फ्लोर पर रहने वाली पडोसन भाभी जी का चेहरा बाद में दिखा और आवाज पहले सुनाई दी कि आपकी किचेन की खिडकी से धुँआ निकल रहा है - लगता है कुछ जल रहा है ..

इतना सुनते ही बगलूचंद को नैनो सेकंड से भी कम समय में घटना के उस रहस्‍य का बोध हो गया - जिसे वे हवन से उत्‍पनन समझ रहे थे ।

"जल ही रहा है" नामक पंक्तियॉं उनके मानस पटल पर बिजली की कौंध की तरह दिखाई पडीं , जो उन्‍हें आधे सेकंड के लिए निर्विचार अवस्‍था में पहुँचाने के लिए काफी था । प्रकृतिस्‍थ होते ही रसोईघर की तरफ भागने की निरर्थक और अनिवार्य जल्‍दी दिखाई गई । निरर्थक इसलिए क्‍योंकि उन्‍हें पूर्व के अनुभव से ज्ञात था कि अब जो होना था हो चुका । जो खोना था खो चुका । और अनिवार्य इसलिए कि सामग्री भस्स्‍मीभूत होने के बाद भी अग्नि जल ही रही होगी । रसोईघर में धुँए की वजह से दृश्‍यता केवल एक हाथ तक की रह गई थी । लेकिन स्‍थान से परिचित होने की वजह से वे जल्‍द ही घटनास्‍थल पर पहुँचने में कामयाब हो गए ।

करीब जाकर देखने पर सिर्फ पतीली की पेंदी हवन की लकडी की तरह सुलगती हुई लाल पाई गई । शेष कक्ष केवल गर्म और तीखे गंध युक्‍त कोहरे से आच्‍छादित भर था । कोहरा भी नियमों की मर्यादा का ख्‍याल रखते हुए कमरे से बाहर जाने का रास्‍ता खोज रहा था । पतीली के ऊपर कोयेले की पतली काली मलाई की फटी हुई पर्त हिल रही थी । और पतीली के नीचे करोडों वर्षों की प्राकृतिक एवं हाल ही की मानवीय प्रक्रिया के बाद बना निर्धूम्र जीवाश्‍म ईंधन निर्विकार भाव से जले ही चला जा रहा था , इस बात की चिंता किए बिना कि इस पृथ्‍वी के गर्भ में उसकी सीमित मात्रा ही उपलब्‍ध है ।

अप्रायोगिक निष्‍कर्ष यह पाया गया कि दूध में दो रंगों की मलाई पडती है । सफेद और काली । अंतर सिर्फ इतना है कि सफेद वाली मलाई के नीचे दूध भी होता है । काली मलाई के नीचे दूध की जगह सिर्फ दूध का धूम्र पाया जाता है ।

खेल तो समय का ही है .... इन अर्थों में कि पतीली अग्नि के ऊपर कितनी देर तक अवस्थित रहती है ।

बाकी, कहने को चाहे कोई कुछ भी कहता रहे है ।

13 comments:

  1. काली मलाई के स्वाद की विवेचना रह गई , वो भी कर डालते

    ;० ;० ;० :)

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  2. कहा नहीं गया! जला ही दिया न! जाने कहां ध्यान रहता है तुम्हारा!

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  3. वाह जी..यह एक जुदा अंदाज लगा आपका..और बड़ा मजेदार भी..वैसे काली मलाई की खुशबू से हम भी कई बार परिचित हो चुके हैं..और उससे पैदा होने वाली खीज से भी..मगर जिस दार्शनिक भाव मे आपने पूरी रेसिपी समझा दी..वो इसे और खास बना गया...

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  4. @वीनस केशरी,
    स्‍वाद की विवेचना के लिए स्‍वाद लेना पडता और तब शायद हम यह पोस्‍ट लिखने के काबिल न बचते । इसीलिए रूप और गंध तक ही सीमित कर गए ।

    @ :D

    @ अपूर्व,
    हम समझ गए कि आप समझ गए ! शुक्रिया समानुभूति का ।

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  5. @:D , अनूप जी के लिए है । नाम लिखना भूल गए थे

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  6. बढ़िया चित्रण करते हो और बात ही बात में गहरी बात कह जाते हो ,
    एक बार सरसरी नज़र से पोस्ट पढ़ी थी अब सोच रही हूं पहले ही क्यों नहीं पढ़ी ठीक से

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  7. Highly philosophical! Enjoyed reading it.

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  8. ;;) अपना अनुभव लिखा है न? ऐसा ही होता है, बिना ’गृहिणी’ के. वैसे इसमें ’दर्शन’ भी था क्या? :(

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  9. चलिये कम से कम अन्तर्जाल और ब्लाग्स के बहाने ही ---लोग इतना तन्मय हो जा रहे हैं और ध्यानस्थ हो रहे हैं---।

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  10. Janab Aapki Bhasha aur Shaili dono hi lajawab hain. par afsos ki log sirf shabdon me ulajhkar rah gaye. mujhe nahi lagta ki jis kaali malai ka aapne zikr kiya wo ghar ki patili me jale doodh ki hai. mera anuman hai ki is doodh me tamaam tarah ki safedi shamil hai (kya me sach kah raha hoon). agar wakai sirf ghar ki patili me jale doodh se hi aapka tatparya tha to koi baat nahi, par agar tatparya usse adhik vyapat hai to ye kahunga ki upmaon se tatparya ko samajhne ki is mushqil ko apni shaili me hi aasaan karna mujhe nahi lagta ki koi mushqil kaam hoga aapke liye. baharhaal maine jin sandarbhon me ise liya uske mutabik kahoon to - "Achchha bighakar maara hai".

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  11. उस पतीली की तह में एक बार फिर झांकना था. मलाई बिलकुल काली नहीं, कुछ डार्क ब्राउन, कुछ महरूनिश कलर रहा होगा. दूध आखिर दूध है, कानपुर की गंगा मैया थोड़े कि एकदम काला पड़ जाए. फिर दूध में दूधिए भैया ने जो पाउडर, डिटर्जेंट, यूरिया वगैरह मिलाया होगा, वे सब क्या मलाई को काला होने देंगे.
    पोस्ट फिर से लिखी जाए और काली की जगह डार्क ब्राउन मलाई वाला शीर्षक लगाया जाए.

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  12. Ha,ha,ha...hansi comments pe bhi aayi..bahut mazedar!

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  13. शानदार विषय, जानदार चर्चा।

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नेकी कर दरिया में डाल