February 03, 2010

चलो, चुप हो जाऍं

चलो,
चुप हो जाऍं, कुछ दिनों के लिए

जैसे,
चुप हो जाते हैं दो अनन्‍य मित्र
सहनशीलता की आखिरी सीमा
आने से पहले ,
बिना एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए
करते रहते हैं, अपना काम
साझे मिशन के लिए
सदाशयता से ,
कभी मिल जाने के लिए

जैसे,
मॉं-बाप पूरे करते रहते हैं अपना कर्त्‍तव्‍य
औलादों को झगडते हुए या
बहकते हुए, देखकर भी
लगे रहते हैं घर की भलाई में
क्‍योंकि , शक्तिप्रदर्शन में तबाही घर की ही है
चाहे जीते कोई भी

जैसे,
चुप रह जाती है समझदार जनता
नेताओं के, मरने मारने के उकसावे पर भी
जलाये रखती है इंसानियत का चिराग
अपने दिलों में

जैसे,
असली देशप्रेमी कोशिश करता है
कि उसका गौरव उसके दूसरे भाई/बहन को
शर्मसार न कर सके

जैसे,
माली सींचता रहता है अपने पौधों को
खिलाता है नये-नये फूल
खूबसूरत बनाने के लिए बाग को,
बगैर दूसरे का बाग उजाडे

चलो,
मनोरंजन और काबिलियत दिखाने के,
कुछ और तरीके खोजें
स्‍थगित करें, तलवारबाजी , मुर्गेबाजी और मुक्‍केबाजी से
अपने ही दोस्‍तों को लहूलुहान करके
विजेता बनने की हिंसक चमक को

चलो,
ऐसी बातें न शुरू करें
जिसका अंत न कर सकें
और जो अगले संवाद की
संभावना को समाप्‍त कर दे

चलो,
थोडा कम होशियार बनना
स्‍वीकार कर लें
क्‍योंकि अगला भी
बुद्धिमान ही है, हमेशा !

चलो,
कुछ नेताओं की कुश्‍ती को
राष्‍ट्रीय टूर्नामेंट और
कुछ बाहुबलियों के झगडे को
गृहयु्द्ध मानने से इंकार कर दें

चलो,
फसादियों को निराश कर दें
और 'मनुष्‍य' के आगे-पीछे बिना कोई
शब्‍द लगाये उसे बचाये रखें

चलो,
जब कुछ नहीं कर सकते तो
तमाशबीनी बंद करें !
और अपना-अपना काम करें

हाँ ! मजे लेने वाले उतने ही
भागीदार हैं,
जितने की मजमा लगानेवाले

कम से कम इतने से मजे का
त्‍याग तो कर ही सकते हो मेरे दोस्‍त ।

यदि नहीं , तो फिर चुप रहने का कोई मूल्‍य नहीं ।

16 comments:

  1. चलो,
    ऐसी बातें न शुरू करें
    जिसका अंत न कर सकें
    और जो अगले संवाद की
    संभावना को समाप्‍त कर दे

    -बहुत उम्दा सोच!

    ReplyDelete
  2. Vastav me aapne shanti ka bahut hai accha aahwan kiya hai! samst srajan karatao ke udaharano ke madhyam se bahut hi uchi soch ka pradardhn kiya hai...Badhai!!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छे पैगाम के साथ सुंदर पोस्ट....

    नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....

    ReplyDelete
  4. क्‍योंकि , शक्तिप्रदर्शन में तबाही घर की ही है
    चाहे जीते कोई भी
    और चलो,
    ऐसी बातें न शुरू करें
    जिसका अंत न कर सकें
    और जो अगले संवाद की
    संभावना को समाप्‍त कर दे
    बहुत सुन्दर सन्देश बधाई

    ReplyDelete
  5. बन्धु,
    'चलो,
    फसादियों को निराश कर दें
    और 'मनुष्‍य' के आगे-पीछे बिना कोई
    शब्‍द लगाये उसे बचाये रखें !'
    आदमीयत, मनुष्यता और इंसानियत को प्रतिष्ठित किये रखने की फिक्र के साथ अनेक महत्व के मुद्दों को निरावृत्त कर पाठकों के सम्मुख रखती है यह कविता; कुछ ज़रूरी हिदायतें देती हुई...
    बधाई भाई !
    --आ.

    ReplyDelete
  6. चलो,
    फसादियों को निराश कर दें
    और 'मनुष्‍य' के आगे-पीछे बिना कोई
    शब्‍द लगाये उसे बचाये रखें

    Waah...kitnee sundar baat kahi aapne......Bahut bahut sundar kalyaankari prerak rachna....
    Kaash sab log aisa hi soch paayen...

    ReplyDelete
  7. नई विचारोत्तेजक बात।

    ReplyDelete
  8. जैसे,
    माली सींचता रहता है अपने पौधों को
    खिलाता है नये-नये फूल
    खूबसूरत बनाने के लिए बाग को,
    बगैर दूसरे का बाग उजाडे
    लम्बे अन्तराल पर कविता आती है आपकी, लेकिन आती बहुत ज़ोरदार है. इतनी गम्भीर और सधी हुई रचना इस तरह के रचना-विन्यास पर आप के ब्लॉग पर ही पढने को मिलती है. अकविता की श्रेणी की श्रेष्ठ कविता. बधाई.

    ReplyDelete
  9. अर्कजेश जी बहुत सुंदर रचना सत्य के साथ
    आभार ................

    ReplyDelete
  10. =))

    काफी गहरी और मजेदार सोच लेकिन दिमाग को दस्तक देती हुयी

    ReplyDelete
  11. कम से कम इतने से मजे का
    त्‍याग तो कर ही सकते हो मेरे दोस्‍त ।

    यदि नहीं , तो फिर चुप रहने का कोई मूल्‍य नहीं ।
    bahut hi badhiya ,aane se pahle lekh samjh rahi thi ,magar yahan aakar bahut hi achchhi rachna ka swad liya .aap bahut hi badhiya likhte hai koi do rai nahi .

    ReplyDelete
  12. चलो,
    ऐसी बातें न शुरू करें
    जिसका अंत न कर सकें
    और जो अगले संवाद की
    संभावना को समाप्‍त कर दे ...

    संवाद नही होगा तो सृजन भी नही होगा ...... संवाद जारी रहना चाहिए ...... विषय बदलते रहना चाहिए ..... सब कुछ परिवर्तन शील ही तो है ........

    ReplyDelete
  13. यार, मुझे कभी कभी यह एहसास अपनी ही नजरें खुद से चुराने पर मजबूर करने लगता है कि मैं किसे गजल और कविता का व्याकरण सीखने के लिए कह रहा था. इस कविता में 'जैसे' और 'चलो' से जो जो बातें तुमने रची हैं, यकीन करो, आँखें फट पड़ने को राजी हो गयी थीं. तुम मेरे जैसों से बहुत ऊपर पहुँच गए. कीप इट अप

    ReplyDelete
  14. अच्छी कविता है भाई अर्कजेश

    ReplyDelete
  15. Kafi achchhi kavita lagi, Arkjesh. Aaj ki taarikh meN aur Manviye chaalakiyoN ko ughaadne ke sandarbh meN jo ansh zyada prasangik lage unhe dohra raha huN :

    "जैसे,
    असली देशप्रेमी कोशिश करता है
    कि उसका गौरव उसके दूसरे भाई/बहन को
    शर्मसार न कर सके"

    "चलो,
    मनोरंजन और काबिलियत दिखाने के,
    कुछ और तरीके खोजें
    स्‍थगित करें, तलवारबाजी , मुर्गेबाजी और मुक्‍केबाजी से
    अपने ही दोस्‍तों को लहूलुहान करके
    विजेता बनने की हिंसक चमक को"

    "चलो,
    थोडा कम होशियार बनना
    स्‍वीकार कर लें
    क्‍योंकि अगला भी
    बुद्धिमान ही है, हमेशा !"

    "चलो,
    फसादियों को निराश कर दें
    और 'मनुष्‍य' के आगे-पीछे बिना कोई
    शब्‍द लगाये उसे बचाये रखें"

    ReplyDelete
  16. सुन्‍दर शब्‍द रचना, बहुत कुछ कहती हुई ।

    ReplyDelete

नेकी कर दरिया में डाल