यह सब मैं भगत सिंह और उनके साथियों के संबंध में कह रहा हूँ। उन्हे मारने का केवल एक ही तरीका था, उनकी मूर्तियॉं बनवा दो, उनकी पूजा करनी शुरु कर दो। हमारे देश में मानवतावादियों समतावादियों को खत्म करने का एक बहुत ही नायाब तरीका बहुत प्राचीन समय से निकाला हुआ है। जिसके विचारों से इत्तफाक न रखते हुए भी आप उससे लड़ न सको उसकी पूजा शुरु कर दो। उसे महान घोषित करो। लेकिन कभी भी उसके विचारों की बात मत करो। उसने क्या कहा था इससे कोई मतलब ही नहीं बल्कि अपनी बात उसके मुँह से कहलवाओ। उसके श्रद्धांजलि कार्यक्रम में अपना एजेंडा पेश करो। जब साध्वी प्राची महात्मा गांधी के विरोध में और भगत सिंह के पक्ष में बोलती हैं तब उन्हें पता नहीं होता कि वह क्या कह रही हैं। वह कभी नहीं कहतीं कि भगत सिंह ने मैं नास्तिक क्यों हूँ नामक लेख लिखा था। साध्वी प्राची जैसे लोगों को लगता है कि भगत सिंह उन्हीं की तरह एक राष्ट्रवादी थे।
भगत सिंह ने किसानो, मजदूरों की बात की। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म करने की बात की। धर्म द्वारा मनुष्य को उन्मादी बनाए जाने पर चिंता जाहिर की और इसीलिए धर्म द्वारा समाज की भलाई होने को सिरे से नकार दिया। आज वो लोग भगत सिंह को श्रद्धांजलि देते फिर रहे हैं जिनकी प्राथमिकता में किसान, मजदूर और देश का अंतिम व्यक्ति कहीं भी नही दिखता। एक सोच है, एक विचारधारा है जो भगत सिंह के दर्शन से ठीक उलट है लेकिन वह भगत सिंह से ऐसे चिपकती है जैसे वही भगत सिंह की सबसे बड़ी अनुयायी हो।
यदि हिन्दू राष्ट्रवादियों ने भगत सिंह की पूजा न करके उनका विरोध किया होता तो आज इस देश का ज्यादा हित होता। लेकिन भगत सिंह को अपनाकर उनकी पूजा करके उनके वृक्ष में अपनी कलम प्रत्यारोपित कर दी गई। यह एक तरह से व्यक्ति और उसके विचारों का अपहरण है। यह कायरता तो है ही हद दर्जे की धोखाधड़ी है।
यदि आप किसी के विचारों से इत्तफाक नहीं रखते तो सम्मान के बावजूद आपको उसे जाहिर करना चाहिए। यह माना जा सकता है कि विचारों की समानता न होने के बावजूद समाज और देश के लिए किए गए योगदान के लिए हम विरोधी को भी आदर देते हैं लेकिन वैचारिक साम्यता की अधिकता के बिना आप किसी पर श्रद्धा नहीं रख सकते।
क्या भगत सिंह का उद्देश्य सिर्फ देश को आजाद कराना ही था। यदि वास्तव में ऐसा होता तो वे कभी भी जानबूझकर खुद को अँग्रेजों के हवाले न कर देते। सच्चाई तो यह है कि उन्हें अपने देश की सड़न का एहसास बहुत शिद्दत से हो चुका था और उन्हें मालूम था कि असली लड़ाई हमें अँग्रेजों से नहीं अपने देश के अंदर ही लड़नी है। इसीलिए अपने विचारों को बहरे अँग्रेज प्रशासन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने लाहौर असेम्बली में धमाका किया और अपने ही समाज के उससे भी बड़े बहरे और अंधे समाज और उसके अगुआओं को जगाने के लिए खुद की शहादत का धमाका किया। उनकी शहादत उन विचारों और सपनों को जन-जन तक पहुँचाने का एक जरिया थी जो उन्होंने देखे थे।
ये तो अच्छा है कि भगत सिंह के हस्तलिखित दस्तावेज आज नेट पर सहज उपलब्ध हैं। कोई कितना भी कहता रहे कि भगत सिंह यह नहीं वह नहीं थी इस विचाराधारा के नहीं थे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनका जीवन दर्शन स्वयं उनके लेखन में उपलब्ध है। और वह है मानवतावादी समतावादी समाज की स्थापना करना।
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नेकी कर दरिया में डाल