यह साल 2014 भारतवर्ष के लिए एक ऐतिहासिक महत्व का साल रहा है। मैं मानता हूँ कि भारत की आजादी के बाद कुछ ऐसी घटनाऍं हुई हैं जिसने भारत को जैसा आज हम देख रहे हैं वैसा बनाने में निर्णायक भूमिका अदा की हैं। उनमें से पहली घटना नेहरु का प्रधानमंत्री बनना थी, दूसरा अम्बेडकर का कानून मंत्री बनना, तीसरी विश्वनाथ प्रताप सिंह का मंडल कमीशन लागू करना, चौथी बाबरी मस्जिद का गिराया जाना और पांचवी 2014 में भारतीय जनता पार्टी का पूर्ण बहुमत से आकर मोदी का प्रधानमंत्री बनना थी। इन घटनाओं के महत्व पर मैं यहॉं विस्तार में नहीं जाना चाहता। सुधीजन इनके प्रभावों का आसानी से अनुमान लगा सकते हैं।
December 31, 2014
pk पीके
(पीके की समीक्षा से अलग)
ओह माई गॉड और पीके
ओह माई गॉड और पीके
उमेश शुक्ला निर्देशित अक्षय कुमार की फिल्म ओह माई गॉड की रोशनी में राजकुमार हिरानी और आमिर खान की फिल्म पीके प्रकरण को देखा जाए तो पता चलता है कि हिन्दू को मुसलमान और मुसलमान को हिन्दू की नसीहत पसंद नहीं आती। जैसे एक दल के नेता का दूसरे दल के नेता द्वारा आइना दिखाना पसंद नहीं आता। ओह माइ गॉड में हंगामा नहीं हुआ क्योंकि हीरो हिंदू था। इधर पीके बनाते ही आमिर मुसलमान हो गए हालांकि मंगल पांडे बनाकर हिंदू नहीं हुए। उनको भी फिल्म में काम करते समय ख्याल नहीं रहा होगा कि वे मुसलमान हैं और हज कर आए हैं। उन्हें शायद अंदाजा नहीं था कि अब हिंदू जागरुक हो गए हैं और अपनी असहिष्णुता को किसी भी अन्य से कमतर नहीं होने देना चाहते। यदि दूसरे की बुराइयों पर हमारे चोट करने से आग लग जाएगी तो हमारी बुराइयों पर दूसरे के चोट करने से आग न लगना शर्म की बात है। इसी तरह की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी तारतम्य में दोनों समुदायों के तथाकथित प्रतिनिधि पीके का विरोध करने लगे हैं।
मुझे सबसे हैरानी इस बात से है कि जागरुक लोग इतनी देर से क्यों जागे।
फिल्म चल भी गई सबने देख भी ली और अच्छी खासी कमाई भी कर गई। इसलिए कि यह
विरोध स्वत: स्फूर्त नहीं है। पहले तय नहीं कर पाए कि इससे अपमान हुआ या
नहीं तय करने में थोड़ा टाइम लग गया। बात देर से समझ में आई। समझते और फिर
दूसरों को समझाते इतनी देर हो गई।
(पिछले इतवार मैं भी गया था। सभी स्क्रीनों पर हाउस फुल चल रहा था और सब मजे ले रहे थे क्योंकि फिल्म बहुत फनी है एक भी दर्शक उठकर विरोध नहीं किया कि यह गलत दिखाया जा रहा है।)
ओह माई गॉड के संवादों से इसकी तुलना की जाए तो उस फिल्म का यह दूसरा संस्करण लगती है। क्योंकि उबाऊ दोहराव है। खासकर जहां उपदेशात्मक है। लेकिन पिक्चराइजेशन और हास्य का पुट आमिर के अभिनय के साथ इसे अत्यंत मनोरंजक बनाता है। यही इस फिल्म की जान है।
यदि राजू हिरानी ओह माई गॉड के कांसेप्ट का इतना स्थूल दोहराव न करके इसे किसी और कांसेप्ट पर रखते तो यह फिल्म एक क्लासिक हो सकती थी। राजू इस फिल्म में मनोरंजन को एक नए स्तर पर ले गए लेकिन इस उम्दा हास्य को ओह माइ गॉड की फिलॉसफिकल दोहराव का भार उठाना पड़ा जबकि वे इसके सारतत्व को ओह माई गॉड से आगे ले जा सकते थे।
(पिछले इतवार मैं भी गया था। सभी स्क्रीनों पर हाउस फुल चल रहा था और सब मजे ले रहे थे क्योंकि फिल्म बहुत फनी है एक भी दर्शक उठकर विरोध नहीं किया कि यह गलत दिखाया जा रहा है।)
ओह माई गॉड के संवादों से इसकी तुलना की जाए तो उस फिल्म का यह दूसरा संस्करण लगती है। क्योंकि उबाऊ दोहराव है। खासकर जहां उपदेशात्मक है। लेकिन पिक्चराइजेशन और हास्य का पुट आमिर के अभिनय के साथ इसे अत्यंत मनोरंजक बनाता है। यही इस फिल्म की जान है।
यदि राजू हिरानी ओह माई गॉड के कांसेप्ट का इतना स्थूल दोहराव न करके इसे किसी और कांसेप्ट पर रखते तो यह फिल्म एक क्लासिक हो सकती थी। राजू इस फिल्म में मनोरंजन को एक नए स्तर पर ले गए लेकिन इस उम्दा हास्य को ओह माइ गॉड की फिलॉसफिकल दोहराव का भार उठाना पड़ा जबकि वे इसके सारतत्व को ओह माई गॉड से आगे ले जा सकते थे।
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