प्रेम में प्रेम भी
है
कविता में अब भी कुछ
कविता बची हुई है
ऐसा लगता है
शब्दों का सम्मान
हमारी दगाबाजी का
निहायत जरुरी हिस्सा है
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निराशावादी होना मुझे
पसंद नहीं है
दिखना और भी ज्यादा
नापसंद
इसलिए मस्कुरा देता
हूँ, परिचित को देखकर
मुस्कुराहट में
खुशी भी है या नहीं
इसकी परवाह न मुझे
है न उन्हें
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लाइनों को तोड देता
हूँ
बीच से
ताकि पढने में हो आसानी
और
समझने में मुश्किल
पर शब्द खुद घुस जाते हैं
अपने-अपने हिस्से तक
अर्थ की परवाह किए
बिना
शायद वे समझ गए हैं कि
‘हमारा’ अर्थ ‘हमारे’
होने में ही है
किसी और के सलीके
में नहीं
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मैं वह सब नहीं
कहूँगा
जो देखता हूँ रोज – रोज
और सवाल ही नहीं
उठता
वह सब देखने का जिसे
मैं रोज करता हूँ
मनोरंजन ही है वह
चीज जिसे
मैं पसंद करता हूँ
क्योंकि यही सबसे सुरक्षित काम है
जिसे रोजी रोटी के बाद
मैं करना चाहता हूँ