February 22, 2009

और भी बहुत कुछ ... बेतरतीब


एक कविता लिखने का मन करता है,
खेलते हुए बच्चों पर
अंकुरते हुए बीज पर,
अँधेरी रात के
अलग दिखते चमकीले तारे पर,
खिलती हुई कली पर
मुरझाते हुए फूल पर,
और भी बहुत कुछ ...



दिन भर के श्रम के बाद
रात को नींद से बोझिल पलकों पर,
सिर से भारी बोझ
उतरने के सुख पर ,
संघर्ष पर, पलायन

किसी को उसकी औकात के पता चलने पर
जीवन पर, जीवन के थोड़े अंश पर,
और भी बहुत कुछ ...

पूरेपन की चाह और
मेशा अपूर्णता के एहसास पर ,
आलस्य पर, कर्मठता पर

उदासी पर खिलखिलाहट पर,
बागुड चरती हुई बकरी पर
चराने वाली लड़की की बेपरवाही पर

आत्मा पर , परमात्मा पर
साथ ही इन महान शब्दों की
अपने लिए निरर्थकता पर
और भी बहुत कुछ ...

मन की चंचलता अर्थात क्षणभंगुरता पर
उसकी क्वांटम छलांग और इंच इंच सरकने पर ,
मोती सी लिखावट पर
मोती से अक्षर लिखने की चाह और
गन्दी हस्तलिपि पर,

किसी
कुरूप की ग्लानि पर
इसमें उसकी निर्दोषता पर
और अचानक इस बात पर ख़ुद के
सजग हो जाने पर,

मेरे साथ ही ऐसा क्यों की विवशता पर
इस दुनिया जहान पर,
ओस की बूंदों और कमल के पत्तों पर

व्यर्थ के गुरुर और उससे
पैदा हुए हास्यास्पद मनुष्य पर
और भी बहुत कुछ ...

बार-बार की हुई भूलों पर पछताने पर

क्यों ? का कारण न ढूंढ पाने

दूसरों को समझाने और ख़ुद न समझ पाने पर,



बचपन के मासूम सवालों पर
सपनों पर , सपनों
के पूरा होने या न होने पर
और उम्र बढ़ने के साथ
उनके बदलते रहने पर,

बचपन के उत्साह पर
जवानी के जोश पर,
बेरोजगारी की दीनता
और रोजगार की यातना पर,

विनम्रता
, विनम्रता के एहसास
व्यवहारिकता और पाखण्ड पर,
साहस, दुस्साहस और दुनियादारी पर
और भी बहुत कुछ ...

सूरज
, चाँद, सितारों पर
अंधेरे पर, दिए पर,
ब्रह्माण्ड की असीमता
इसके अन्तर की एकता
और प्रकृति के अद्वितीयता पर,

क्षितिज
के आकर्षण पर
इन्द्रधनुष और किशोर मन पर,
निषेध के आमंत्रण और
मृगमरीचिका पर
सौन्दर्य, कोमलता, प्रेम और वात्सल्य के
नारी सुलभ होने पर,

रस्सी पर चलते हुए नट
और धरती पर चलते हुए आदमी पर ,

धारा
प्रवाह प्रांजल भाषा और
बच्चे की तुतलाहट पर

और भी बहुत कुछ ...

February 18, 2009

निक्कर की मार और चड्ढीया इजहार - रंग दे गुलाबी ..

हात्मा गाँधी अर्थात बापू के कई योगदानों में से एक 'लगे रहो मुन्ना भाई' फ़िल्म भी है, इसमें सत्याग्रह के प्रयोगों को आजमाया गया है | फ़िल्म के प्रभाव से कई छोटे-मोटे कैम्पेन चले थे, लेकिन उन्हें किसी ने ज्यादा भाव नहीं दिया | इस बार के गुलाबी चड्डी आन्दोलन ने मुन्ना भाई फिल्म को सार्थक और बापू के प्रयोग को एक बार फ़िर नवीन सन्दर्भ में सत्यापित किया |

चड्डी की अहमियत का पता सबको है, क्योंकि यही वह अन्तिम वस्तु है जो इन्सान को नंगा होने से बचाती है | लंगोट चड्डी का अग्रज / अग्रजा है (जो भी ठीक समझें चुने) क्योंकि कहावतें लंगोट पर मिलती हैं,चड्डी पर नहीं, जैसे - लंगोटिया यार, लंगोट का पक्का, लंगोट ढीली होना, लंगोट बांधना, भागते भूत की लंगोटी सही, एक ही लंगोटी में बाप और पूत आदि | भागते भूत की चड्डी सही कोई नहीं कहता क्योंकि भूत सिर्फ़ लंगोट बांधता था | अब जाकर चड्डी के दिन फिरे हैं लंगोट तिथिबाह्य हो चुकी है | हम लँगोट से वाया जांघिया होते हुए हाफ चड्डी तक पहुंच चुके हैं | फ़िर भी लंगोटिया यार का महत्त्व कम नहीं हुआ है, ऐसा आदमी मिलाना मिलना मुश्किल है जिसका कभी कोई लंगोटिया यार रहा हो लंगोटिया यार मतलब उस समय की दोस्ती जब हम लँगोट में होते थे |

चड्डीया इजहार तो फिल्मों, विज्ञापनों समुद्रतटों पर बहुत समय से प्रचलन में है, लेकिन मानव शरीर से आजाद करके चड्डी का इजहार करना और उपहार देना अपने आप में एक अनोखी घटना है | आंकडों से पता चलता है कि लगभग 3000 चड्डीयां पार्सल की जा चुकी हैं | अभी - अभी मैंने एक वेबसाइट पर देखा कि लगभग 35,000 लोग इसमें शामिल हो चुके हैं | गुलाबी रंग प्रेम और कोमलता के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, पहले प्रेम पत्रों को गुलाबी लिफाफों में भरकर भेजा जाता था | गुलाबी चड्डी आन्दोलनकारियों ने पार्सलों में गुलाबी चड्डी भेजकर पुराने प्रेम पत्र वाले दिनों की याद ताजा कर दी है | मोटी बुद्धि से तुलना करें तो पार्सल को यदि लिफाफा समझें तो "चड्डी" प्रेम पत्र हुई | इस प्रेम पत्र पर दिल, चुम्बन की मुहर, दिल चीरता हुआ तीर, दो चार प्रभावी शब्द के रूप में प्रेम का इजहार किया रहता है | यह इस भावना का इजहार है कि उन्हें "प्यार पे गुस्सा आता है और हमें गुस्से पर प्यार आता है |"

हिंसा के विरुद्ध विशुद्ध अहिंसक आन्दोलन | चड्डी आन्दोलनकारियों कि तरफ़ से इसका अर्थ यही है कि गुस्से और नफ़रत से भरे हुए लोगों ढाई आखर के साक्षर बनो| अभी तुम्हारी मानसिकता चड्डी से बाहर नहीं आई है और तुम सिर्फ़ प्यार का चड्डी संस्करण ही समझ सकते हो इसलिए कम से कम यहीं से शुरू करो | नफ़रत का निक्कर उतारकर प्रेम कि पिंक चड्डी धारण करो जिससे लोगबाग गा सकें - "जगह-जगह बात चली है पता चला है, चड्डी पकड़कर फूल खड़ा है, फूल खड़ा है|"

गुलाबी चड्डी गिरोह ने अपने आन्दोलन के नियमों को उदार बनाते हुए यह भी कहा है कि यदि पिंक चड्डी हो तो किसी भी रंग की भेज सकते हैं, क्योंकि सब लोग सब समय तो पिंक चड्डी पहनते नहीं और इसलिए नई खरीद कर ही दिए होंगे | अब यदि आप प्राप्तकर्ता को होने वाले आर्थिक लाभ का आकलन करेंगे तो ईर्ष्या होने लगेगी कि हमें क्यों चड्डी भेजी गई | यदि एक चड्डी 50 रुपये कि भी माने तो कम से कम 3000 चड्डी के हिसाब से मामला1,50,000 रुपये पर गिरता है, अब चाहें तो उन्हें बेचकर रूपया बना लें या चाहें तो पार्टी सेवक भी प्रयोग कर सकते हैं, किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कैम्पेन वाली पहने हैं | भविष्य में शायद तक और भी वस्तुएं मिलें |

इन चड्डियों को रिसीव करने वालों ने प्रतिक्रिया दी है कि ऐसे चड्डी फेकने वाले किसी अच्छी सोसाइटी या आभिजात्य परिवारों से नहीं हो सकते | उसके जवाब में सवाल किया जा सकता है कि महिलाओं को सरेआम पीटने वालों कि पृष्ठभूमि क्या हो सकती है ? दूसरा तर्क है कि कश्मीर में जो महिलाओं के साथ चरमपंथी गुट ज्यादतियां करते हैं उन्हें चड्डी भेजने कि हिम्मत क्यों नहीं दिखाते तो उसका संभावित जवाब है कि इन सज्जनों कि गिनती अभी तक उन गुटों में नहीं है , सिर्फ़ इसीलिये| और फ़िर आप भी तो वहां जोर आजमाइश करने नहीं जाते |पब चलने वालों को क्यों नहीं पकड़ते |

क्या इन बहादुरों ने कभी भ्रष्ट अधिकारियों, माफिया या असामाजिक तत्वों के खिलाफ कोई देशव्यापी मुहिम छेडी है ? किसी गरीब लाचार और मजबूर को हक़ दिलाने के लिए लड़ाई की है ? इनकी सृजनात्मक उपलब्धि क्या है ?

आज भारत को किस चीज की जरूरत है ?

देश में
26 % लोग यानी २३ करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर कर रहे हैं |
अब गरीबी रेखा की परिभाषा पर भी गौर कीजिये | भारत सरकार ने गरीबी रेखा की परिभाषा दी ही की
540 रुपये महीने से कम की आमदनी | आकडों को देखने से पता चलता है की स्थिति कितनी भयावह है |
देश में २३ करोड़ लोग आज भी 25 रुपये रोज से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं| यह एक कटु सत्य है - पेट प्राथमिक है, बाकी सब दोयम | गरीबी सारी सामाजिक बुराइयों की जड़ है | मूलभूत सुविधाओं का अभाव जीवन को बोझिल और संवेदनहीन बना देता है | ये तो हुए गरीबी रेखा से नीचे | इनसे दुगुनी संख्या उनकी है, जिन्हें हम गरीबी रेखा से ऊपर कहते हैं | उनकी आय सिर्फ़ इतनी है कि अपने बच्चों को कभी कभी वह सब्जी खिला सकें जो सबसे सस्ती हो , फल और दूध का तो नाम ही मत लीजिये |

निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग की हालत महगाई ने खस्ता की हुई है | जिन्हें एक- दो रुपयों के लिए किच किच करनी पड़ती |

अब बचे खाए पिए अघाये जीव (हम तो चाहते हैं की सारे हिंदुस्तान के लोग इसी हैसियत के हो जाएँ) | वो पब में जायेंगे, क्लब में जायेंगे उनके लडके बच्चे ऐश करेंगे | आख़िर आदमी रूपया कमाता किसलिए है | करने दीजिये | उससे किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं | लेकिन उनकी संख्या कितनी है |

पबों-क्लबों में जाने वाले लोगों की संख्या कितनी है
| मान लीजिये मुश्किल से कुछ हजार | उसी के पीछे सारी ऊर्जा ख़त्म की जा रही है | भारत जैसे देश में इस तरह के मुद्दों पर सस्ती लोकप्रियता बनाना पाप जैसा है |

भारत की सभ्यता और संस्कृति किसी डंडे के जोर से नहीं बची हुई है | न ही किन्ही ठेकेदारों के कारण | वह स्वतः स्फूर्त ढंग से शरीर में आत्मा की तरह व्याप्त है | भारतीय संस्कृति का कपडों-लत्तों या पबों क्लबों से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है, यदि बिगड़ता तो यह कब की ख़त्म हो चुकी होती | यह अपनी अनंत समयोजिता के साथ अक्षुण है |
भारत की संस्कृति इसके महान मानवीय मूल्यों में है | पबों में जाने वाली महिलाओं को पीटने वाले अपने लड़कों बच्चों को वहां जाने से रोक पायेंगे ? न तो आप टेक्नोलॉजी कि त्वरित विकास को रोक सकते, न ही संस्कृतियों के संकरण को और न ही सामाजिक बदलाव को |

यदि कोई चीज ग़लत लगती है, तो उसकी बुराइयों को उजागर कीजिये | जन जागरूकता फैलाइए | यदि आपकी बात में दम होगा तो लोग समर्थन करेंगे, सोचेंगे | लेकिन यह तो सरासर गुंडागर्दी है की आप किसी को जबरदस्ती वह नहीं करने देंगे जो आप सोचते हैं कि ग़लत है | फ़िर आप में और तालिबानों में फर्क कहाँ है ?

जिस भारत देश की संस्कृति में नारी को देवी और जगत जननी जगदम्बा की संज्ञा दी गई है, उसे उसी संस्कृति की रक्षा करने का दावा करने वाले, नारी को सरेआम पीट रहे हैं | और वो भी किस चीज के नाम पर? जिसका अपनी संस्कृति से कुछ लेना-नहीं है | यह यौन पहरेदारी वाली मानसिकता केवल मध्य युग कि देन है | वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में सेक्स स्वस्थ और स्वीकृत था | सेक्स को लेकर कोई विकृति नहीं थी | यदि यकीन न हो तो पुराण पढ़ लीजिये | कामसूत्र पढ़ लीजिये |

यह तो एक इन्टरनेट कैम्पेन चला और यह कृत्य राष्ट्रीय आलोचना का विषय बना | वरना यहाँ तो रोज पता नहीं कितनी महिलाओं पर कभी तेजाब पड़ता है, कभी बिरादरी के द्वारा सरेआम नग्न किया जाता है, प्रेम के नाम पर तेजाब डाला जाता है, कभी दहेज़ के नाम पर और कभी कुल मर्यादा के नाम पर|

किसी ने कहा है कि - "किसी देश और आदमी के चरित्र का पता इस बात से चलता है कि वह अपने देश कि महिलाओं और बुजुर्गों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं|"