November 23, 2009

सचिन, 26/11, स्काई लैब और माया

इन दिनों सचिन का बयान, की उन्‍हें मराठी होने पर गर्व है , लेकिल मुम्‍बई पूरे भारत की है काफी चर्चित रहा । आज शिवसेना के एक और सांसद का बयान आने से मामला फिर से रिफ्रेश हो गया है । इसमें सांसद ने कहा है कि सचिन ने मराठीवासियों के लिए कुछ नहीं किया है जबकि गावस्‍कर ने कई मराठी खिलाडियों को टेस्‍ट टीम में जगह दिलाई थी । इस बयान में कहा गया है कि उन्‍होंने काम्‍बली का भी साथ नहीं दिया ।

अब सचिन को मैदान के अंदर और बाहर दोनों जगह बल्‍लेबाजी करनी है । उनकी एक-एक हरकत बहुत महत्‍वपूर्ण होती है । सचिन का यह पहला सार्वजनिक बयान कहा जा सकता है । बिल्‍कुल उसी अंदाज जिसमें उन्‍होंने अंतर्राष्‍ट्रीय क्रिकेट की शुरुआत की थी । पहली ही सीरीज में अब्‍दुल कादिर जैसे अनुभवी स्पिनर का कैरियर तबाह कर दिया था । सचिन की लोकप्रियता एक महान खिलाडी के साथ साथ एक भद्रपुरुष के रुप में है इसीलिए वे भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लाडले हैं । एक महान प्रतिभा का भद्र पुरुष होना बहुत अपीलक होता है ।

माओवादियों और नक्‍सलवादियों का आतंक तो जारी है ही । मुंबई के बमविस्‍फोटों 26/11 की बरषी भी आ पहुँची है । इसमें सरकार को चाहिए की वह मुंबई विस्‍फोटों से सबक लेकर साल भर में किए गए सुरक्षा उपायों की समीक्षा करे | इसके लिए छदूम अभ्‍यास भी किए जाने चाहिए । वरना उनकी कुशलता पर चौंकने और अपनी खामियों पर हाय-हाय करने के अलावा और कुछ करते नहीं बनता । मीडिया को भी सुरक्षा सुधारों पर बहस छेडनी चाहिए ।

इसके अलावा दिसम्‍बर 2012 में दुनिया भी खत्‍म होने वाली है । यह मैं नहीं कह रहा हूँ । बल्कि पिछले कई दिनों से मीडिया, समाचार पत्रों और ब्‍लॉगों में इस बाबत सम्‍भावनाऍं व्‍यक्‍त करने वाले प्रमाण दिए जा रहे हैं । जिधर रुख करो उधर ही एकाध पोस्‍ट दिख जाती है । कुछ नया होने की उत्‍तेजना लिए हुए ।

इस मामले में माया सभ्‍यता का नाम सबसे ज्‍यादा लिया जाता है । भला हो इस खबर का कि हमें दुनिया की एक और सभ्‍यता का नाम जानने का अवसर मिला । हो सकता है माया वालों को 2012 तक ही गिनती आती रही हो । या कुछ और वजह भी हो सकती है ।

हमें टेंशन दुनिया खत्‍म होने की नहीं है, यदि वह पूरी खत्‍म हो जाये तो । "आप मरे जग परलय" । जब सबै खत्‍म हो जायेगा तो काहे की फिकिर । बेचैनी तब होती है, जब परिस्थिति स्‍काई लैब वाली पैदा हो जाती है । हमें तो स्‍काई लैब गिरने की याद नहीं है । लेकिन हमने अपने बडे दोस्‍तों और बुजुर्गों से सुना था कि एक समय स्‍काई लैब नामक कोई पहाड अन्तरिक्ष से टूट कर पृथ्‍वी पर गिरने वाला था । वह अं‍तरिक्ष में लटकी हुई अमेरिका की एक प्रयोगशाला थी । जब उसका दिन पूरा हो गया और वह आसमान से जमीन पर आने लगी तो अमेरिका वालों ने कहा कि वह कहीं भी गिर सकती है । वैसे तो उसकी हवा में ही स्‍वाहा हो जाने की संभावना थी पर मान लो कुछ बचकर पृथ्‍वी से टकरा गई तो सत्‍यानाश ही समझो । इस धोखे में कई लोगों ने खूब पैसा खर्च करके ऐश किया था कि कहीं इधर ही आ गिरी तो सब धरा का धरा रह जायेगा पैसा वगैरह । ये बात अलग है कि बाद में ऐसे लोग स्‍काई लैब के प्रशांत महासागर में गिरने पर अफसोस करते पाये गए । क्‍योंकि कंगाल भी हो गए थे और परलय भी नहीं हुआ । अब खायें क्‍या | हमारे एकदोस्‍त के बडे भाई ने अपने बगीचे के सारे अनार तोडकर मोहल्‍ले में बँटवा दिए थे । बाद में पिताश्री के पैरों के चर्म मेडल प्राप्‍त किए , अपनी दूर‍दर्शिता के इनाम के तौर पर ।

हमारे स्‍कूल में एक लडके का नाम स्‍काई लैब था । वह उसी दिन पैदा हुआ था जिस दिन स्‍काई लैब गिरा | इसलिए उसके पिता ने उसे स्‍काई लैब करार दिया । बाद में मैट्रिक पहुँचते पहुँचते उसने अपने नाम के आगे तूफान भी जोड लिया था । स्‍काई लैब 'तूफान' । मेरा दोस्‍त नहीं था, जूनियर था लेकिन वह सिर्फ अपने नाम की वजह से जाना जाता था । पहली बार उसका नाम सुनकर लोग समझते कि मजाक कर रहा है । खासकर पूरा नाम स्‍काई लैब तूफान पढकर । अब पता नहीं स्‍काई लैब कहॉं होगा ।

बहरहाल हम 2012 जैसी खबरों को सनसनीखेज और मनोरंजन से ज्‍यादा तरजीह नहीं देते । क्‍योंकि जिस चीज में आदमी कुछ कर ही नहीं सकता उसमें फालतू की मगजमारी काहे । बल्कि पर्यावरण संबंधी मुददों को इस तरह के प्रचार की ज्‍यादा जरूरत है । मुझे तो लगता है कि पृथ्‍वी को ऐसे अचानक तो खत्‍म हो नहीं जायेगी । हॉं, यदि प्रमुख राष्‍ट्रों की सरकारें जल्‍द ही पर्यावरण से संबंधित समझौतों पर हस्‍ताक्षर करके अमल करना शुरू नहीं करतीं तो जरूर है कि आने वाले समय में हमें गंभीर प्राकृतिक संकटों का सामना करना पडेगा |

November 22, 2009

भाषा में छिपे हुए भाव

बडा कौतूहल होता है
देखकर
जब प्‍यार और नफरत
उपेक्षा और अपनत्‍व
अस्‍वीकार और सहानभूति की भाषा
बेजुबान पशु पक्षी और अबोध नवजात
भी समझ जाते हैं ,
तत्‍क्षण |
वे भी,
जिनका भाषा और सभ्‍यता से
कोई सरोकार नहीं होता |
वे भी,
जिन्‍हें इनकी आदत पड गई है
सदियों से या कुछ ही वर्षों से,
अपमान और अस्‍वीकार सहन करने की |
जिन्‍हें लोग समझते हैं,
वे स्‍वीकार कर चुके हैं
अपने अस्तित्‍व पर थोपा हुआ ओछापन ,
नहीं !
वे सब जानते हैं
समझते हैं , शब्‍दों में
सवारी करते हुए
भावों के दर्प को
और अचेतन ढूँढता रहता है
एक इंसान
जो देख सके उन्‍हें
अतीत की हीनताओं से मुक्‍त |
करते हुए आज के पुरुषार्थ का सम्‍मान
माई बाप की रट लगाने वाला
गॉंव का पुसुआ भी और
साब साब कहने वाला शहर का
चाय वाला भी |

एक प्रेमी-प्रेमिका के बीच
शब्‍द वही रहते हैं फिर भी
समय के साथ उनके मायने बदल जाते हैं
ये सब
पता नहीं कैसे
पढ लेते हैं
भाषाओं के चेहरे
बिना अक्षर ज्ञान के !
यांत्रिकता और आत्‍मीयता को
पहचानते हैं
दुधमुँहे बच्‍चे , पालतू पशु भी
शब्‍द तो जैसे शरीर होते हैं और
भाव उनकी चेतना |
कैसे संप्रेषित हो जाते हैं
तरह तरह के भाव एक ही शब्‍द से
प्रत्‍येक 'हाय' या नमस्‍कार
अलग अर्थ देता है
यहँ तक की
लिखे हुए शब्‍द भी
बता देत हैं अपना मूड
कितने गुस्‍से या प्‍यार से
ईमानदारी या बेईमानी से
लिखा गया है उन्‍हें
क्‍योंकि निकलने वाले शब्‍द
मात्र शब्‍द नहीं होते
बल्कि
पूरा ब्‍लूप्रिंट लिए होते हैं
वक्‍ता की भावनाओं का
वरना क्यों, एक ही गाली
कभी तिरस्कार की तरह और कभी
आत्‍मीयता के प्रमाण पत्र की तरह लगती |

November 17, 2009

बात सच है, पर चलन में है नहीं

बात सच है, पर चलन में है नहीं
आपकी बातें सहन में हैं नहीं

बात कैसे बोल दी तुमने यहॉं
बात जो अपने जेहन में है नहीं

बात करते ही रहो हर बात पर
आपात तो अपने वतन में है नहीं

बात हमसे ऑंकडों की न करो
एक भी संख्‍या फलन में है नहीं

बात पूछेगी तुम्‍ही से जान लो
ऐसे कैसे तन, वतन में है नही

बात करने के लिए ही बोलते हैं
ज्ञान की इच्‍छा जतन में है नहीं

अब कहॉं ले जाओगे बरसात में
एक भी गागर तपन में है नहीं

बात उनकी जब सुने ऐसा लगा
बात ऐसी सब मुखन में है नहीं

बोलते हैं सभी खुल जाने पर
नाम सबका बतकहन में है नहीं

मिल गए हो आज खुलकर बात कर लो
है बात में जीवन, मरण में है नहीं

गड्ढे खोदोगे तुम्ही पहले गिरोगे
कोई नागा इस नियम में है नहीं


दिल में अपने एक सागर
तुम बसा लो
फासला धरती गगन में है नहीं


November 14, 2009

इन बच्चों का दिवस कब आयेगा भारत देश में

क्या हवाई मुद्दों पर लड़ने वालों को कुछ शर्म आएगी ?













चित्र : गूगल और ईमेल से प्राप्त

November 12, 2009

बहुत हो गया अब देखिए तरह तरह की मोनालिसा

मोनालिसा मोरक्को में
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मोनालिसा लन्दन में
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मोनालिसा इराक में
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मोनालिसा मिस्र में
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मोनालिसा सऊदी अरब में
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मोनालिसा कुवैत में
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मोनालिसा लेबनान में
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मोनालिसा फिलिस्तीन में
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मोनालिसा अफगानिस्तान में
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दुबई में

November 11, 2009

तो इसमें कौन सी नई बात है भाई

खबर : हिन्‍दी में शपथ लेते हुए विधायक अबू आजिमी की मनसे विधायकों द्वारा पिटाई

तो इसमें कौन सी नई बात है भाई
हिन्‍दी की वजह से
तो होती ही रहती है पिटाई
अभी विधायक की हो गई
इसके पहले मजदूरों, कामवालों,
और छात्रों की हूई थी
ऐसी ही पिटाई
ये तो दो-चार हाथ ही पाये
लेकिन सब इतने ल‍की थे नाय
कुछ हाथ-पैर तुडवाकर निपटे
कुछ अपनी जान से हाथ धो बैठे
कुछ पक्‍को है कांय
के अपने दोस्‍त, बहन और भाय की
कब हिन्‍दी माई के नाम से
देश के कुछ जगहों में जान चली जाय
ये तो भई यारा स्‍थूल पिटाई
सूक्ष्‍म पिटाई तो हो ही रही है लगातार
हर जगह अपनों और गैरों से बार-बार
हर हिन्‍दी भाषी महसूस कर सकता है इसे
खुद हिन्‍दी का ब‍डा आदमी नहीं बोलता जिसे
हिन्‍दी माध्‍यम में पढे विद्यार्थी से पूछिए
गॉंव कस्‍बे के आदमी से पूछिये
कितनी पिटाई होती है उसकी
उच्‍च शिक्षा में , नौकरी में , नौकरी के निर्वहन में
औरों को तो छोडिये अपने फिल्‍मी सितारो को ही देखिये
हिन्दी के नाम से करोडों का वारा-न्‍यारा करते हैं
पर कभी फिल्‍मों से बाहर उनके मुखारबिन्‍द से
हिन्‍दी नहीं निकसते हैं
सबके दुलारे है , बडे प्‍यारे हैं, पर
जिसका खाते हैं , उसी में पलीता लगारिये हैं
आप ही बताइये अपने लोगां को ही देख लीजिये
अपने नौकरशाहों और खिला‍डियों को ही देख लीजिए
हिन्‍दी बुलवाकर इनकी तौहीन मत कीजिए
भारत देश में हिन्‍दी भी जीती है
गरीब आदमी भी जीता है
दोनों से नाता रखना पडता है
पैसे, वोट और व्‍यवसाय के लिए
सितारों , नेताओं और व्‍यापारियों को

हिन्‍दी नही बोलना है तो मत बोलो
लेकिन जो बोलता है उसका मुँह तो मत तोडो
क्‍योंक‍ि हिन्‍दी गॉंधी है तो सुभाष भी है
तिलक है और आजाद भी है
यह सबमें घुल जाती है
हर भाषा में मिल जाती है
यह समन्‍वय की कृति है
बिल्‍कुल भारतीय प्रकृति है
इसका किसी भाषा से विराध नाय है
कांय के सब भारतीय भाषा तो
बूढी दादी संस्‍कृत से ही आयं हैं

लोगां तो बिला वजह हो हल्‍ला मचायं हैं

हिन्‍दी नहीं है किसी की मोहताज
वह हमेशा रही है बादशाह बेताज
लोकतंत्र है हल्‍ला मचाते रहो
अंतिम आजादी का लुत्‍फ उठाते रहो
गीत एक फिल्‍मी गुनगुनाते रहो
गम को धूऍं में उडाते रहो
वायु प्रदूषण फैलाते रहो
वरना गम तुम्‍हें उडा देगा
बिना डोर के पतंग की तरह

सच कडवा है कुरुप है तो हम क्‍या करें
तुझे मिर्ची लगी तो हम क्‍या करें
हमें मिर्ची लगी तो तुम क्‍या करे

भाई से चारा छुडाते रहो
भाईचारा निभाते रहो

"यहाँ बात सिर्फ़ हिन्दी की नहीं है असल बात ये भी है की आप कैसे किसी को उसकी भाषा में बात करने से रोक सकते हैं , आपको ये हक़ किसने दिया है ?"

November 09, 2009

चीथडों के गठ्ठर फ़ेंको

पता नहीं
कैसे रहते हैं लोग

आज भी

लादे हुए
सतत

चीथडों का गठ्ठर

जिसे कभी खोल कर
नहीं देखा गया

कि क्या है उसके अन्दर
पता नहीं कितनी
सडी हुई चीजें हैं
उनमें जो
मारती रहती हैं
सडांध वक्त-बेवक्त
तब छिडक देते हैं
उनके ऊपर गुलाब जल
और इत्र
सुंदर शब्दों और
व्याख्याओं के द्वारा

फ़िर सडांध को
थोपा जाता है
दूसरों के गठ्ठरों पर
और चलता रहता है
यही क्रम
बिना सफ़ाई किए हुए
अपने-अपने गठ्ठरों की
बह जाता है खून,
पानी सा
एक-एक चीथडों
के लिए
वो भी
दूसरों के उतारन
सदियों के फ़ेंके हुए

कैसे रहते हैं
ऐसे घरों में लोग
चीथडों को
मनमर्जी से
लादे हुए
जिनसे बाहर जाने की
झांकने की
तो बात ही क्या
ऐसा सोचने की भी
इजाजत नहीं है

जहां संदेह
एक अपराधबोध है
अपने होने की घोषणा
महापातक

संदेह
जो वजह है
सृजन का
सारे ज्ञान-विज्ञान का
आदमियत का
डिसेबल कर दिया
जाता है
स्थाई रूप से
लाद दिया जाता है
ऊपर से
एक खोखला विश्वास
जिसे बचाने के लिए
तैनात होती हैं
बडी-बडी कंटीली बागुडें
भय और प्रलोभनों की

रहने वाले कह सकते हैं
इसे मर्जी से रहना
जैसे पैदाइश से ही
पिंजडे में रहने वाला पक्षी
रहता है
अपनी मर्जी से

पर फ़िर भी,
कैसे रहते हैं
लोग ऐसे घरों में
अब भी
जहां रहने का
मूल्य होता है
रहने वाला
वह खुद
और
ढोते हुए चलना
होता है सिर पर
एक भारी गठ्ठर
पूरे अतीत का
गर्व से
कहना होता है उसे अपना
बिना चुनाव की आजादी के
लडना पडता है
दूसरों के
उतारन चीथडों के
सम्मान के लिए

यह एक अपमानजनक
मूर्खता हो जाती है
जब एक आम
आदमी
लड जाता है
उन चीथडों के लिए
जो उसके हैं
ही उसके किसी काम के हैं
जो उसे रोटी दे सकते
ही प्रेम और खुशी
सिवाय बोझ और घुटन के
बेगारी मजदूरी की तरह
जबकि कुछ होशियार
लोग उतारने नहीं देते
गठ्ठर
आदमी के सिर से
अपनी मालकियत
कायम रखने के लिए
और करते रहते हैं
चीथडों का व्यापार

मित्रों !
तनिक रुको और सोचो
क्या वह सब तुम्हारे हैं
जिन्हें स्थापित करने के लिए
तुम अपनी सबसे ज्यादा
ऊर्जा नष्ट कर रहे हो
कब तक अतीत के
लाउड स्पीकर बने रहोगे
कब तक ?
कब तक दूसरे के चीथडों की
मार्केटिंग करते रहोगे
अपने गीत कब गाओगे ?
कब तुम अपनी पहचान
अपनी निजता से दोगे
अपने सिर और कान में
खोंसे हुए चीथडों से नहीं

पता नहीं कब ?

सोचोगे तो अवश्य ही
पाओगे की ये चीथडों
के गठ्ठर
इतने कीमती नहीं है कि
इनके लिए लडा जा सके
इनका उपयोग हो सके तो कर लो
पर खोपडी में
लादकर
इनके रक्षार्थ तलवार लेकर
मत घूमो
अतीत के चीथडों के लिए
वर्तमान को तार-तार मत करो !

कब चीथडों को तुम
इंसानियत से कम
तवज्जो देना शुरू करोगे
ताकि बचाया जा सके
इंसानियत को
चीथडे-चीथडे होने से !

और भी बातें हैं
ज्यादा जरूरी जो
की जा सकती हैं
बेहतरी के लिए
इंसान की ,
चीथडों के लिए
जांबाजी दिखाने के सिवा !

November 04, 2009

फ़ूल में भी मगरूरी रही होगी


फूलों में मगरूरी रही होगी
पत्थर की भी मजबूरी रही होगी

पछता सके
लडकर भी जब
रिश्तों में बहुत दूरी रही होगी

बात की है अब तक तो क्या
दिमागी कुछ कमजोरी रही होगी

पूछा नहीं हम कहां थे अब तक
फ़िक्र ये गैर-जरूरी रही होगी

समझ आई तो क्या आई उनको
ये किस्मत ही छिछोरी रही होगी

ताके बैठे थे जिसे चातक की तरह
और चन्दा की वो चकोरी रही होगी

भूल जा मीठी बातें हकीकत में
सब उनकी दुनियादारी रही होगी

बुरा मानें हम क्यों किसी बात का
उनकी भी कुछ मजबूरी रही होगी